जला के दीप
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अशोक 'अंजुम'
आओ जला के दीप
क रे दूर हम सियाही
भटकें न पथ पे राही!
इन आंधियों से यारो
कब तक रहेंगे डरते,
जो जुट न पाई हिम्मत
पल–पल रहेंगे मरते
अब तोड़ के सन्नाटा
दें कत्ल की गवाही
ना और हो तबाही!
जो बोझ हैं सीने पर
उनको उतार फेंकें,
दृढ़ हैं अगर इरादे
फिर कौन रोके, देखें
इतिहास, चलो लिख दें
किरणों भरा, नया ही
अब मत करे मनाही!
खण्डित राष्ट्र की अपूर्ण आरती!
शैवाल सत्यार्थी
यह सुनहरा और सुहाना
दीप–पर्व
मना तो रहे हो तुम…
दीपक
उल्लास के
जला तो रहे तो तुम…
पर इन
उल्लसित क्षणों में–
उन आहत क्षणों को न भूल जाना तुम!
इतिहास ही नहीं,
भूगोल की भी–
उस निर्मम हत्या को न भूल जाना तुम!!
कि जब अपने हाथों–
अपनी भारत मां के दो टुकड़े किए हैं तुमने!
कि उसी रक्त से–
यह बुझे दीपक प्रज्ज्वलित किए हैं तुमने!!
तो संपूर्ण नहीं–
अपूर्ण प्रकाश की अश्रुपूरित भारती है यह!
अखंड नहीं–
खण्डित राष्ट्र की अपूर्ण आरती है यह!!
ज्योति किरण भरपूर
देवेन्द्र आर्य
दीपों को गाएं, करें, तम–सत्ता को दूर।
सुनें विश्व की रागिनी, ज्योति किरण भरपूर।।
तम शाश्वत पर तम नहीं, जीवन का पाथेय।
रचें ज्योति का इन्द्रधनु, भोर किरण सा गेय।।
जब उठता है ठान कर, लघु दीपक का मान।
अवरोधों के वक्ष पर, लिखता सौ पहचान।।
महाज्योति का पुंज है, दीपक का लघु तेज।
जनहित में इस ज्योति को, मन से जरा सहेज।।
दीवाली हर वर्ष आ, दे जाती संदेश।
मन में, घर में, देश में, कहीं न तम आवेश।।
एक दीप मन से जला, जन–मन के हर द्वार।
सत्ता के मैं भाव का, रहे न जग अंधियार।।
जुगनंू हूं पर है मुझे, लघुता का अभिमान।
गहन अंधेरे में लिखी, दिनमणि की पहचान।।
करें प्रतिज्ञा भोर की, ठान चलें मिल साथ।
जीतें इस अंधियार को, कील ठोक दें माथ।।
दीपक जला समेट कर, चिर प्रकाश अनुरक्ति।
अब कितनी भी हो विकट, विप्लव की यह शक्ति।
हम समाज के घटक हैं, हमसे बना समाज।
थामें, जो जो रच रहे, कालिख के सुरसाज।।
झुककर जिए कि क्या जिए, बिना स्वत्व सम्मान।
बिना बुलंदी के नहीं, हिमगिरि की पहचान।।
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