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Oct 17, 2012, 12:00 am IST
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नवरात्र का महत्व

दिंनाक: 17 Oct 2012 16:15:43

नवरात्र का महत्व

प्रवेश सक्सेना

ऋतु संधिकाल में वर्ष में दो बार चैत्र और आश्विन में नवरात्र संपन्न होता है जिन्हें वासंतिक एवं शारदीय नवरात्र कहते हैं। नवरात्र में दो शब्द हैं नव और रात्र। नव संख्यावाचक है और 'नौ' की संख्या को व्यक्त करता है। रात्रि का सामान्य अर्थ है 'रात'। दिन प्रकाश से परिपूर्ण, रात्रि पर दोनों ही शब्दों के विशिष्ट अर्थ भी हैं। नव, नु (धातु, क्रिया मूल रूप) से बनता है जिसका अर्थ होता है स्तुत्य, प्रशस्य, प्रशंसनीय। रात्रि का अर्थ है-राति ददाति क्षणमुत्सवं जनेभ्यो या सा रात्रि:-अर्थात् जो प्राणियों को अवकाश देने वाली है या उत्सव प्रदान करने वाली। अत: नवरात्र का अर्थ सामान्य दृष्टि से होगा -नौ रात्रियां। विशिष्ट दृष्टि से प्रशंसनीय अवकाश या उत्सव का काल। सच ही शारदीय नवरात्र शरत्काल की शोभा से आविष्ट होते हैं – न अधिक गर्मी न अधिक ठंडक। ऐसे ऋतु संधिकाल में प्रतिपदा से लेकर नवमी तक दुर्गा पूजा का विधान है। दुर्गा दुर्गति और दुर्भाग्य से बचाने वाली देवी हैं। मनुष्य के जीवन में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीन प्रकार के कष्ट, दुर्गतियां या दुर्भाग्य होते हैं। नवरात्र में दुर्गा का पूजन कर इन सबसे बचा जा सकता है इसीलिए दुर्गा शक्ति से समीकृत हैं। उनकी सामर्थ्य से ही व्यक्ति दुर्गम से दुर्गम परिस्थितियों को पार कर सकता है।

ऋतु संधिकाल में मौसम के बदलने से मनुष्य का स्वास्थ्य प्रभावित होता है। तरह-तरह की मौसमी बीमारियां घेरने लगती हैं। तन बीमार होता है तो मन पर प्रभाव पड़ता है। ऐसे में व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति भी नहीं कर पाता। अत: इस काल में पहले से जागरूक रहा जाए तथा अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिए यत्न कर लिए जाएं तो मानसिक हर्ष तथा आध्यात्मिक उत्कर्ष की सिद्धि हो सकती है। हमारे प्राचीन समाजशास्त्री एवं संस्कृति के रक्षकों ने इन सबको ध्यान में रखकर कुछ ऐसे विधान रचे। कुछ ऐसी परंपराएं प्रारंभ कीं जो अपनी वैज्ञानिकता के कारण युगों-युगों तक मान्य रही हैं। इन नौ दिनों में व्रत अनशन, उपवास या फलाहार करके शरीर को विजातीय तत्वों से, विषों से मुक्त किया जाता है। शरीर विज्ञान के अनुसार भी संधिकाल में उपवास से तन स्वस्थ रहता है। तन के स्वस्थ रहने से ही व्यक्ति हर प्रकार के धर्म, कर्तव्य का पालन कर सकता है। कहा भी जाता है शरीरमाद्यं खलु, धर्म साधनम् अर्थात् धर्म साधन का प्रथम आधार शरीर ही है। शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति मानसिक रूप से प्रसन्न रहता है। यही कारण है कि व्रतोपवास के साथ-साथ नवरात्रों में तरह-तरह के उत्सव, मेले आदि भी मनाए जाते हैं। हां, अध्यात्म की उपेक्षा भी नहीं की जाती तभी तो पूजा-पाठ, यज्ञ-दानादि, कन्या-पूजन आदि सब नवरात्र के विधान में शामिल रहते हैं। सब अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार धार्मिक ग्रंथों का पारायण करते हैं। कुछ रामचरितमानस का संपूर्ण पाठ नौ दिनों में कर प्रेरणा पाते हैं, तो कुछ दुर्गासप्तशती (संस्कृत या हिन्दी) का पाठ करते हैं। कोई कोई दुर्गाचालीसा का पाठ प्रतिदिन करते हैं। वास्तव में यह सब शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति अर्थात् पूर्ण स्वस्तिभाव के लिए की गई साधना है। इसे शक्ति साधना कहा जाता है। यह शक्ति साधना चिर प्राचीन वैदिककाल से चली आ रही है। वहां प्राय: सभी देवों से शक्ति या बल की याचना-प्रार्थना की गई है। रामायणकाल में रावण युद्ध से पूर्व राम ने भी शक्ति पूजा की थी, जो कवि निराला की शक्ति पूजा कविता में सुंदरता से व्यक्त हुई है। उपनिषद् जो आत्मविद्या के ग्रंथ हैं स्पष्ट कहते हैं नायमात्मा बलहीनेन लभ्य: अर्थात् आत्मा शक्तिहीन द्वारा नहीं पाई जा सकती। पौराणिककाल में विशेषकर शाक्तमत प्रचलित हुआ और अनेक आख्यान-उपाख्यान देवी शक्ति के इर्द-गिर्द जुड़ते गए। देवी पुराण, देवी भागवत् और मार्कण्डेय पुराण के अन्तर्गत देवीतंत्र जैसे अध्याय देवी की आराधना में रचे गए। देवी दुर्गा के विराट रूप की कल्पना उभरी-अष्टभुजा खड्गकपालधारिणी देवी महिषासुर जैसे राक्षस का वध करने अवतरित हुईं। इसी प्रक्रिया में देवी के सहस्रनामों का परिगणन भी हुआ। इन सबमें उनकी शक्ति के विविध आयामों का चित्रण हुआ है।

नवरात्र में तो पूरे नौ दिन भक्तजन देवी के ध्यान पूजन अर्चना में लीन रहते हैं। इन नौ दिनों में देवी के नित नए रूप की अर्चना का विधान है। नव या नौ की संख्या एक विशिष्ट संख्या है जिसे पूर्णा कहा जाता है। नौ के अंक में नौ के पहाड़े में भी अद्भुत विशेषता है 9X1=9, 9X2=18, 1+8=9, 9X3=27,  2+7=9, इसी प्रकार से अंत तक 9×9=81=8+1=9 है। इस पूर्णा संख्या का महत्व शक्ति देवी की साधना में भी है। देवी के नवरूप इस प्रकार हैं-

शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री। प्राय: लोग इन देवियों की श्रद्धाभाव से पूजा तो कर लेते हैं परंतु इनके प्रतीकार्थों को नहीं समझते। शक्तिसाधना या देवी पूजन की पूर्णता के लिए इनके नामों के भाव को जानना समझना अधिक लाभदायक होगा।

शैलपुत्री

गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती देवी सबकी अधीश्वरी मानी जाती हैं। हिमालय की तप और साधना से प्रसन्न हो उनकी पुत्री के रूप में प्रकट हुईं। स्वयं इन शैलपुत्री या पार्वती ने शिव को पाने के लिए इतनी कठोर तपस्या की कि पेड़ों से गिरने वाले पत्तों तक को खाना छोड़ दिया। तभी उनका नाम अपर्णा पड़ा था। देवी के इस रूप से अचल, अडिग संकल्प लेकर जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करके ही रहना सीखा जाना चाहिए।

ब्रह्मचारिणी

ब्रह्म अर्थात् ज्ञान, मंत्र तथा परम सत्ता इन सबकी प्राप्ति का यत्न करना दुर्गा के दूसरे रूप में समाविष्ट हुआ है। भक्तजन सदैव ज्ञानार्जन के मंत्र रचना या मंत्र साधना के लिए सन्नद्ध रहकर परंब्रह्म की प्राप्ति की साधना में लीन रहें यही संदेश है। ब्रह्मचर्य की साधना का अन्य अर्थ है संयमित आचरण। आज के अनैतिक युग में जब व्यक्ति अमर्यादित व्यवहार जाल में फंसे हैं, देवी का यह रूप अत्यंत प्रेरणादायी है।

चंद्रघंटा

चंद्र कहते हैं शीतलता प्रदान करने वाले चंद्रमा को। यह चंद्रमा जिनके घंटे पर अंकित हो वह कहलाती हैं चंद्रघंटा देवी। यदि आपके पास शक्ति है तो वह दूसरों को कष्ट देने के लिए न हो, अपितु सबको प्रसन्नता देने के लिए हो। साथ ही अपनी शक्ति, अपने सद्गुणों का घंटा ध्वनि कर प्रचार-प्रसार करना चाहिए। घंटा ध्वनि के प्रभाव से वातावरण में व्याप्त बहुत से दूषण भी दूर होते हैं।

कूष्मांडा

कूष्मा शब्द कुत्सित ऊष्मा से बना है जिसका अर्थ है त्रिविधतापयुक्त संसार। यह संसार देवी के अंड स्थल या उदर में रहता है। अत: देवी का नाम कूष्मांडा पड़ा। देवी का यह सर्वव्यापक रूप बताता है कि देवी की सच्ची पूजा पूरे संसार के प्रति सम्मानभाव रखने में ही है।

स्कंदमाता

स्कंद समस्त देवों के सेनाध्यक्ष थे। उन्होंने ही तारक नामक राक्षस का वध किया। ऐसे स्कंद (कार्तिकेय) की मां हैं देवी। देवी के इस रूप से मातृ जाति को प्रेरणा लेनी चाहिए कि वे अपना व्यक्तित्व ऐसा बनाएं कि संतान शक्तिशाली हो और नैतिक मूल्यों को अपनाकर दुष्प्रवृत्तियों का नाश करने वाली हो।

कात्यायनी

नवरात्र के छठे दिन कात्यायनी देवी की पूजा का विधान है। कात्यायनी का नाम व्याकरण और स्मृतिग्रंथों से जुड़ा है। देवकार्य सिद्धि के लिए देवी कात्यायन के आश्रम में प्रकट हुईं तथा कात्यायनी कहलायीं। देवी का यह रूप स्त्री को अपने अधिकार के लिए सचेष्ट करता है तो दूसरी ओर दिव्य कार्य संपादन के लिए प्रेरणा देता है।

कालरात्रि

देवी का सातवां नाम है कालरात्रि। सबको मारने वाली कालि का नाम भी प्रसिद्ध है। देवी का यह रूप याद दिलाता है कि मनुष्य को हमेशा काल या मृत्यु को याद रखना चाहिए। संसार में रहते हुए लोग विषय भोगों में तथा धन संचय में इतना आसक्त हो जाते हैं कि दूसरों को सताने लगते हैं, अत्याचार करने लगते हैं। मृत्यु के क्षण को याद रखने से अनुचित मार्ग से बचाव होगा।

महागौरी

देवी का आठवां नाम है महागौरी जिनकी अर्चना अष्टमी को की जाती है। गौरवर्ण शक्ति मां, स्वच्छता व शीतलता का प्रतीक है। देवी यदि कालरात्रि हैं तो महागौरी भी हैं। श्वेत व कृष्ण दो पक्ष ही तो जीवन में हैं। शुभ-अशुभ दोनों को स्वीकार करते चलें तो जीवन में सिद्धि यानी सफलता मिलने में कोई बाधा नहीं रहती।

सिद्धिदात्री

नवरात्र के अंतिम दिन देवी के सिद्धिदात्री अर्थात् सिद्धि देने वाले रूप की पूजा की जाती है।

प्रथम दिन शैलपुत्री की आराधना से आरंभ करते हुए नए-नए रूपों की अर्चना श्रद्धापूर्वक ज्ञानपूर्वक करते हुए अंतिम रूप से सिद्धि प्राप्ति होती है। सिद्धि सामान्य अर्थों में किसी भी क्षेत्र में सफलता का नाम है। आध्यात्मिक क्षेत्र में वह मोक्ष का नाम है जो मानव जीवन का चरम उद्देश्य है।

दुर्गा की मूर्ति भी बहुत प्रतीकात्मक है। उनकी आठ, दस, बारह या अठारह भुजाएं विभिन्न-अस्त्र शस्त्र धारण किए दिखाई जाती हैं जो असीम शक्ति की द्योतक हैं। आततायी या अत्याचार का विरोध करना, सशस्त्र विरोध करना सिखाती हैं दुर्गा। उनका वाहन सिंह है जो स्वयं शक्ति का प्रतीक है।

आज अनेक प्रकार के अपराध स्त्री जाति के प्रति हो रहे हैं। स्त्री को उनके प्रतिकार के लिए स्वयं आगे आना होगा क्योंकि अपनी सहायता स्वयं करने वाले की सहायता ही देवी शक्तियां करती हैं। फिर महिषासुर जैसे तमोगुणी अत्याचारी का वध करने में कुछ अनुचित नहीं।

नवरात्र का पर्व एक ओर व्यक्ति को साधना के लिए प्रेरित करता है तो दूसरी ओर समाज को भी मिलजुलकर हिंसक प्रवृत्ति के विरोध में खड़ा होने के लिए प्रेरित करता है। भारत में विभिन्न प्रदेशों में नवरात्र विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है। कहीं षष्ठी से लेकर नवमी तक विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है, तो कहीं अंतिम दो दिन सामूहिक पूजा की जाती है। बंगाल की दुर्गापूजा प्रसिद्ध है। गुजरात में इस अवसर पर गरबा नाच संपन्न होता है। राजस्थान में गणगौर की पूजा होती है। उत्तर भारत में इन दिनों कन्या पूजन की परंपरा भी है जब उनके चरण धोकर पूजे जाते हैं और उपहार मिष्ठान आदि देकर संतुष्ट किया जाता है।

पर्वोत्सव मनाना मानव का स्वभाव है। रोज की ऊब भरी दिनचर्या से हटकर कुछ नया करने का उल्लास जीवन में आनंद भर देता है जिसे पाना हर व्यक्ति का अधिकार है। परंतु प्राय: बहुत बार ये पर्व उत्सव केवल मात्र कर्मकांड बनकर रह जाते हैं या व्यर्थ की रूढ़ियों का पालन मात्र। उनके सार्थक उद्देश्यों की उपेक्षा कर दी जाती है तभी समाज में और व्यक्ति के जीवन में तमाम तरह के अन्तर्विरोध पैदा होते हैं। देवी पूजन करने वाले देश में क्यों स्त्रियों का शीलभंग हो? नवरात्र का मनाना सार्थक तभी होगा जब हम इन प्रश्नों का समाधान करें। स्त्री का सम्मान करें, कन्या भ्रूण हत्या बंद करें तथा शक्तिमान बनकर दुर्गति, दुर्दशा से संघर्ष कर विजय प्राप्त करें। विजयादशमी-नवरात्र के बाद ही आती है। देवी पूजन देवी जागरण सबका भाव यही है। J

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