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'विकास' की अंधी गली-देवेन्द्र स्वरूप-

by
Oct 13, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 13 Oct 2012 15:13:43

 

हर हाथ में मोबाइल फोन, हर घर में कम्प्यूटर, टेलीविजन, फ्रिज और गैस का चूल्हा, हर व्यक्ति को शौचालय की सुविधा-यह है आज के विकास का न्यूनतम पैमाना। आधुनिक सभ्यता की इन सब नियामतों का उपयोग बिजली के बिना नहीं हो सकता इसलिए प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने वायदा किया है कि आगामी पांच वर्षों में प्रत्येक घर में चौबीसों घंटे बिजली की सुविधा पहुंचाकर रहेंगे। केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने वर्धा (महाराष्ट्र) से बेतिया (बिहार) तक 2000 मील लम्बी 'निर्मल भारत यात्रा' का श्रीगणेश करते हुए वर्धा में कह डाला, 'मंदिर से भी अधिक पवित्र हैं शौचालय।' उनकी यह ऊल-जलूल तुलना जन आस्थाओं पर आघात बनकर राजनीतिक विवाद का विषय बन गयी। संचार मंत्री कपिल सिब्बल गर्जना कर रहे हैं कि वे प्रत्येक विद्यार्थी के हाथ में आकाश (छोटा लैपटाप) थमा देंगे। वित्तमंत्री और उद्योग मंत्री विकास के इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए तीव्र गति से औद्योगिकीकरण की दिशा में दौड़ना चाहते हैं और उसके लिए वे विदेशी पूंजी निवेश को हर क्षेत्र में निमंत्रण दे रहे हैं। पर औद्योगिकीकरण का अर्थ है- प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, वन सम्पदा का उच्छेदन, खनिज पदार्थों का उत्खनन, किसानों और जनजातियों की जमीन का अंधाधुंध अधिग्रहण, उनका बड़े पैमाने पर विस्थापन। इस विस्थापन के विरुद्ध जगह-जगह जन आंदोलन हो रहे हैं। स्वयंभू समाज सुधारक व पर्यावरण रक्षक, जो अधिकांशत: बड़े नगरों में रहकर सब आधुनिक सुविधाओं का उपयोग कर रहे हैं, इन पीड़ित विस्थापितों को टकराव के रास्ते पर धकेल रहे हैं। कभी वे उन्हें नदी के पानी में बैठाकर टी.वी.कैमरों पर उनके चित्र दिखाते हैं तो कभी उन्हें दिल्ली तक पद यात्रा करवाते हैं।

क्या जरूरत है पर्यावरण मंत्रालय की?

विदेशी पूंजी निवेश के लालच में औद्योगिकीकरण की गति तेज करने के लिए, उद्योग लगाने को आतुर देशी-विदेशी पूंजीपतियों के मार्ग में अनेक रोड़ों को हटाने के लिए निजी क्षेत्र की, विशेषकर ढांचागत परियोजनाओं को झटपट स्वीकृति देने के इरादे से प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय निवेश बोर्ड बनाने की योजना काफी आगे बढ़ चुकी है। इस बोर्ड को अधिकार होगा कि वह एक हजार करोड़ रुपए या उससे बड़ी राशि के निवेशों पर मंत्रालयों की सहमति की प्रतीक्षा किये बिना स्वयं तुरंत निर्णय ले सकेगा। स्पष्ट है कि, विकास के नाम पर यह बोर्ड पर्यावरण संरक्षण और जनहितों के ऊपर पूंजीपति-औद्योगिक घरानों के स्वार्थ को प्राथमिकता देगा। पर्यावरणविदों एवं भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय को इस पर आपत्ति होना स्वाभाविक है, क्योंकि यह उच्चस्तरीय बोर्ड उनकी चिंताओं की उपेक्षा होगा। इसलिए वर्तमान पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने इस बोर्ड के गठन पर कड़ी आपत्ति उठायी है। नटराजन ने सही प्रश्न उठाये हैं कि क्या किसी परियोजना को स्वीकृति देते समय यह नहीं देखा जाना चाहिए कि उसका स्थानीय जनजीवन व पर्यावरण पर क्या प्रभाव होगा? क्या पूंजी निवेश ही हमारे लिए सब कुछ बन गया है? यदि ऐसा है तो पर्यावरण संरक्षण कानूनों का क्या औचित्य रह जाता है? पर्यावरण मंत्रालय को बनाने की आवश्यकता ही क्या है?

जयंती नटराजन के प्रश्न अपनी जगह हैं, पर प्रश्न यह भी है कि क्या प्रधानमंत्री ने घोषणा करने के पूर्व यह सोचा कि पांच साल में प्रत्येक घर में चौबीसों घंटे बिजली पहुंचाने के निर्णय को क्रियान्वित करने के निहितार्थ क्या हैं? 125 करोड़ जनसंख्या के इस विशाल देश के प्रत्येक घर में पहुंचाने के लिए बिजली का उत्पादन कैसे होगा? क्या उस प्रक्रिया में छोटे किसानों और जनजातियों की जमीन का अधिग्रहण और उनका विस्थापन अनिवार्य नहीं होगा? अधिग्रहण और विस्थापन का विरोध करने वाले समाजसेवी भी चाहते हैं कि घर-घर में बिजली पहुंचे, पर कैसे-इसका कोई उपाय नहीं बताते! सभी राजनीतिक दल विकास के इस एजेंडे पर एकमत है, विकास का कोई वैकल्पिक मॉडल किसी भी दल ने अब तक प्रस्तुत नहीं किया है। जो दल जिस समय सत्ता में होता है उस पर क्रियान्वयन की जिम्मेदारी आ जाती है और विपक्षी दल उसके विरोध में उतर आते हैं। वस्तुत: पूरा देश क्या, पूरा विश्व ही विकास की इस अंधी गली में कैद हो गया है। बिजली उत्पादन के चार ही आधार सामने हैं-पानी, कोयला, अणुशक्ति या सौर व वायु ऊर्जा। पानी से बिजली पैदा करने के लिए बड़े बांधों का बनाना आवश्यक हो जाता है। कोयले से बिजली बनाने के लिए बड़े पैमाने पर खनन करना ही पड़ेगा। अणुशक्ति से बिजली प्राप्त करने की बात होते ही जापान का हाल का अनुभव सामने आकर कंपकपी पैदा करा जाता है। सौर या वायु ऊर्जा का प्रयोग अभी तक बड़े पैमाने पर सफल नहीं हुआ है। कुछ छोटे-छोटे यूरोपीय देशों में ऐसे प्रयोग जरूर चल रहे हैं, पर क्या भारत जैसे विशाल और आर्थिक विषमता में फंसे देश में भी उन्हें सफल बनाया जा सकता है, इसका किसी चुने हुए क्षेत्र में स्थानीय परीक्षण अवश्य किया जाना चाहिए। तमिलनाडु में कुडनकुलम अणुशक्ति संयंत्र के विरुद्ध जो जन आंदोलन लम्बे समय से चल रहा है और उसकी देखा-देखी महाराष्ट्र के जैतापुर संयंत्र व हरियाणा में प्रस्तावित संयंत्र के विरुद्ध भी जनांदोलन आरंभ हो गया है, उससे स्पष्ट है कि अणुशक्ति से बिजली प्राप्त करने का मार्ग सरल और निरापद नहीं है।

ग्रामाधारित प्राचीन व्यवस्था

जल से बिजली बनाने के प्रयासों का परिणाम देश के नदी प्रवाहों पर हो रहा है। बिजली उत्पादन के अतिरिक्त शहरीकरण और प्रत्येक घर में शौचालय का लक्ष्य भी नदी प्रवाहों के लिए घातक बन गया है। हम अपने अनेक संकल्पों के बीच जारी अन्तर्विरोध नहीं देख पा रहे हैं। एक ओर तो हम चाहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को शौचालय की सुविधा प्राप्त हो। खुले में शौच जाने की प्रथा पूरी तरह समाप्त हो। आधुनिक सभ्यता की आंखों में यह प्रथा गंदगी और बीमारियों का घर है। हमें आंकड़े दिए जाते हैं कि खुले में शौच जाने वाली समूचे विश्व की जनसंख्या का 64 प्रतिशत भाग भारत में रहता है। भारत में भी झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ के जनजातीय बहुल क्षेत्र और बिहार व उत्तर प्रदेश के ग्रामबहुल क्षेत्रों में खुले में शौच जाने वाली जनसंख्या का अनुपात बहुत ज्यादा है। पर हम यह भूल जाते हैं कि ग्राम और कृषि प्रधान सभ्यता खुले में शौच जाने को गंदगी नहीं, खेती के लिए खाद का साधन समझती है। मुझे स्मरण आता है कि जब मैं छोटा था और कस्बेनुमा गांव में रहता था तो वहां के धनी परिवारों के पुरुष, जिनके पास अपने पक्के विशाल मकान थे, रोज प्रात: जंगल में शौच के लिए जाया करते थे। हमारे पड़ोस में एक वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी रहते थे। एक दिन हमने उनसे पूछा कि चाचा जी, इस आयु में भी आप इतने स्वस्थ हैं, इसका रहस्य क्या है? उन्होंने जो तीन-चार कारण बताये उनमें पहला कारण उन्होंने यह बताया कि मैं कभी घर में शौच नहीं गया। रोज प्रात: दो-ढाई मील टहलकर जंगल में शौच जाता हूं। शहरीकरण के विस्तार की गति तेज होने के कारण खुले में शौच जाने की प्रथा लगभग समाप्त होती जा रही है। शहरों में समस्या यह है कि शौच का निस्तारण कैसे हो? हमारा राष्ट्रीय संकल्प है कि हम मनुष्यों द्वारा मैला हटाने और मैले को सर पर ढोने की प्रथा को पूरी तरह समाप्त करेंगे। यह एक उत्तम संकल्प है। किन्तु इस संकल्प को पूरा करने का अर्थ होगा कि हम प्रत्येक शौचालय में 'फ्लश प्रणाली' को अपनाएं।

नदियों का दर्द

इस प्रणाली में अधिक मात्रा में साफ पानी चाहिए और मल सहित गंदे पानी को कहीं फेंकने का स्थान चाहिए। नदी प्रवाहों का दुरुपयोग हम इस काम के लिए कर रहे हैं। प्राणदायिनी गंगा की पवित्रता की रक्षा के लिए जो बैचेनी हम दिखाते हैं, वह अधिकांशत: सरकारी नीतियों की आलोचना पर जाकर रुक जाती है। हम मांग करते हैं कि गंगा नदी पर बांध न बनाये जाए, जो बन गये हैं उन्हें समाप्त किया जाए, हमारी मांग है कि गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया जाए। अभी कल ही राजेन्द्र सिंह, ने जो 'पानी बाबा' के नाम से जाने जाते हैं, श्री नरेन्द्र मोहन स्मृति व्याख्यान में यह दु:ख प्रगट किया कि गंगा को तीसरे दर्जे की नदी का व्यवहार मिल रहा है। इधर सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को फटकार लगायी है कि यदि केन्द्र सरकार ने यमुना को प्रदूषण से मुक्ति दिलाने के लिए अब तक 1062 करोड़ रुपये और उत्तर प्रदेश सरकार ने 219 करोड़ 58 लाख रुपये खर्च किये हैं, उनके अतिरिक्त दिल्ली और हरियाणा सरकार ने भी भारी धन खर्च किया है तो यमुना इतनी प्रदूषित कैसे है कि उसका जल पीना तो दूर उसमें स्नान करना भी खतरे से खाली नहीं है? सच तो यह है कि देश की लगभग सभी नदियां ऐसी ही 'शोचनीय' स्थिति में पहुंच चुकी हैं। वे आधुनिक होती सभ्यता का कचरा ढो रही हैं। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का अभिशाप भुगत रही हैं। गांधी जी ने अपने आश्रम में नियम बनाया था कि प्रत्येक आश्रमवासी को अपना मल स्वयं साफ करना चाहिए। उनका तर्क था कि यदि मल की सफाई हमारे जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है तो हम मल साफ करने वाले व्यक्ति के प्रति छुआछूत का भाव क्यों अपनाते हैं। क्यों नहीं स्वयं अपना मल साफ करके उसकी स्थिति का अनुभव करते हैं? उनका कहना था कि दो ही मार्ग हैं- या तो हम सफाईकर्मी को गले लगाएं, बराबरी का दर्जा दें, या स्वयं उस कर्म को अपनायें। किन्तु तब से अब तक औद्योगिकीकरण और शहरीकरण बहुत आगे बढ़ गया है और हम स्वयं को एक विषम चक्र में फंसा पा रहे हैं।

विषम चक्र में फंसने की छटपटाहट

पर्यावरण के खतरे के कारण 'सभ्यता के अंत' की चेतावनियों से हम बहुत भयभीत हैं और सभ्यता तथा मानवजाति की दीर्घायु की कामना करते रहते हैं। दूसरी ओर इस सभ्यता द्वारा प्रदत्त जीवन शैली के हम दास बन चुके हैं। उससे बाहर निकल पाना हमारे लिए असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य हो गया है। सभ्यता की विलासिता का त्याग करके संन्यास पर जाने के उदाहरण अतीत में भी होते रहे हैं पर वे व्यक्तिगत संकल्प में से प्रगट हुए, भारी आत्मबल से सम्पन्न बिरले महापुरुष ही ऐसा संकल्प ले पाएंगे, सामान्य जन नहीं। जीवन शैली परिवर्तन को कोई सरकार पूरे समाज पर कदापि नहीं थोप सकती। चीन में माओत्से तुंग ने ऐसा प्रयास किया था और उसका परिणाम हमारे सामने है। क्या पवित्र गंगा नदी के प्रति हमारी श्रद्धा-भावना सभ्यता के इस संकट से बाहर निकलने का आत्मबल प्रदान कर सकती है?

मानव सभ्यता एक दोराहे पर खड़ी है। वह देख रही है कि आधुनिक तकनालॉजी देश, काल व प्रकृति पर विजय पाने और सुख के जो अनेक साधन प्रदान कर रही है, उनकी उत्पादन प्रक्रिया स्वयं में ही प्रकृति नाशक है और मानवजाति के विनाश को निकट ला रही है। क्या हममें इतना आत्मबल है कि उससे बाहर निकल सकें? इस प्रश्न का उत्तर हमें भीतर ही खोजना होगा। मैं जब अपने भीतर झांकता हूं तो मुझे स्वीकार करना पड़ता है कि शायद मुझमें वह आत्मबल नहीं है। मैं बौद्धिक धरातल पर उसकी विवेचना तो कर सकता हूं पर उस जीवनशैली का त्याग नहीं कर सकता।

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