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नदी की कोख

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Oct 13, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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नदी की कोख

दिंनाक: 13 Oct 2012 14:29:13

साहित्यिकी

डा. तारादत्त 'निर्विरोध'

हर नदी की कोख में है दूसरी कोई नदी,

इस जरूरत को न प्यासे उम्र भर समझे कभी।

 

जब चले जल खोजने को उस खुले आकाश में,

भूल बैठे हैं बहुत जल आंख से उस आंख तक।

सब उड़ानें व्यर्थ हैं यदि मन नहीं उड़ता कभी–

इस धरा की ओर से उन पक्षियों के पांख तक।

हर सदी की बांह में है सामने आती सदी।

वक्त क्या है, कुछ मिसालें साथ में हैं जो अभी।

 

टूटना या बिखरना, फिर से संवरना रूप है,

सब सिरे मिलते नहीं हैं जिस तरह से रास्ते।

लोग नाहक हर तरफ चलते रहे, थकते रहे–

आदमी जब है नहीं हर आदमी के वास्ते।

सब सुखों के बीच में है एक कोई त्रासदी,

नाम हो कद हो, यही तो चाहते हैं हम सभी।

 

फैलकर यह देश जाने हो गया कितना बड़ा,

किन्तु नक्शे में नहीं देता दिखाई पास से।

अब प्रगति के मूल में हैं खामियां ही खामियां

अब न कोई मिल रहा सम्मान से, विश्वास से।

हर बुराई में छिपी है कौन जाने क्या बदी,

जब घटित होगा कहीं तो समझ लेंगे हम सभी।

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