हाथ, हुनर और चूनर
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हाथ, हुनर और चूनर
अपनी ही दो पंक्तियों से प्रारंभ करती हूं –
'जब आया हाथों में हुनर, हुलसा हिया, रंग गई चूनर।'
एक और पंक्ति है-
'हाथों में हुनर आया री सखि, परिवार हुआ संपन्न सखि।'
ऐसा कोई हाथ नहीं होगा जिसमें कोई न कोई हुनर न हो। कई तो न जाने कितने हुनर सीखे होते हैं। कभी एक तो कभी दूसरे से आमदनी करते हैं। इन दिनों इन हुनरों को सिखाने के लिए विशेष प्रशिक्षण व्यवस्थाएं हैं। ग्रामीण जीवन में अपने माता-पिता के साथ रहते-रहते बच्चे काम सीख जाते थे। उन्हें सीखने के बोझ का अहसास भी नहीं होता था। कुम्हार का बेटा-बेटी मिट्टी खोदना, मिट्टी गूंथना, चाक पर बर्तन बनाना ऐसे सीखते थे मानो चलना, उठना-बैठना, बोलना और अपने हाथों से खाना खाना सीखा हो। सहज होता आया है हुनर विकास। औपचारिक पढ़ाई नहीं करने वाला वर्ग भी हुनर सीखता था। जीवन जीने के लिए बहुत बड़े सहयोगी बनते थे उनके हुनर। एक नहीं कई-कई।
मेरे बाबूजी और मेरे एक चाचा मंगल सिंह के जीवन की भिन्नताएं मुझे स्मरण रहती है। मेरे पिताजी ने पढ़ाई की थी। वे पढ़े-लिखे, मेरे मंगल चाचा अनपढ़। कभी विद्यालय का मुंह नहीं देखा। बाबूजी की अंगुलियों में कलम होती थी। वे दफ्तर में काम करते थे। पर मंगल चाचा के हाथों में कभी खुरपी, कुदाल, कभी रस्सी बांटने के लिए मूज, कभी टोकरी बुनने के लिए बेंत या बांस की खपच्चियां, कभी गोबर, कभी पेड़ पर चढ़ने के लिए रस्सियां। क्या नहीं देखा उनके हाथों में। वे पेड़-पौधों और पशुओं के लिए वैद्य भी थे, उनके पालक भी। इसलिए सर्दी, गर्मी, बरसात उनके हाथ चलते रहते थे।
वे सारे हुनर मात्र उनके जीविकोपार्जन के साधन नहीं थे। जीवन जीने के साधन थे। लकड़ियां काटना, पेड़ पर चढ़ना, मछली मारने से लेकर सभी काम वे जानते थे। इसलिए तो समाज में उनकी पहचान भी थी और पूछ भी। मेरे पढ़े-लिखे बाबूजी दफ्तर जाने के अलावा कुछ भी काम नहीं कर सकते थे। अपने हर काम के लिए उन्हें मंगल चाचा को पुकारना पड़ता था- “मंगल!”
मंगल हाजिर हो जाते। उन्हें पता होता था कि उनके बड़े भाई ने किसी काम के लिए ही प्रेम से बुलाया होगा, वही काम जो स्कूल जाने के कारण उनके भैया नहीं सीख सके और उन्होंने स्कूल से बाहर रहकर भी सीख लिया। काम होता था, पेड़ पर चढ़कर आम, लीची तोड़ना, धान की पौध के पीले पड़ जाने पर उसकी दवा या झूला के लिए मोटी रस्सी बंटना। पता नहीं कितने काम मेरे बाबूजी नहीं कर पाते थे, जिनमें उन्हें मंगल चाचा की जरूरत पड़ती थी। इसलिए मंगल चाचा का सम्मान भी था। हर मौके पर उनकी जरूरत।
दरअसल हुनर से मात्र आय नहीं, मान प्रतिष्ठा भी मिलती थी। दादी और मां के साथ-साथ रहते हुए बेटियां घर-गृहस्थी के सारे काम सीख जाती हैं। मजदूर महिलाओं को अपने बच्चों को काम सिखाने के लिए विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता। पैसा कमाने वाले हुनरों से कई गुणा अधिक संख्या उन हुनरों की है जो जीवन जीने में काम आती हैं या यों कहें कि जीवन को सुखद, सहज और सरल बनाते हैं। हुनर व्यक्ति में आत्मविश्वास बढ़ाता है। चटाई बुनने और बाल काटने में मेंहदी लगाने जैसे सैकड़ों छोटे काम सीख लेने पर भी खुशी होती है। समाज में सीखने वालों की पूछ बढ़ती है।
गांवों में कभी कोई खाली नहीं बैठता। मौसम के अनुसार काम निकल ही आते थे। उन लोगों के लिए 'बेरोजगार' शब्द का इस्तेमाल नहीं होता था। हर मौसम में किसी न किसी हुनर का इस्तेमाल होता था। जिनके हाथों में अधिक हुनर होते हैं वे आनंदित भी रहते है।' जब आया हाथों में हुनर, हुलसा हिया, रंग गई चूनर। हृदय का हुलसना जहां काम से प्रसन्नता मिलने का प्रतीक है, वहीं चूनर का रंगीन होना, आर्थिक संपन्नता का प्रतीक।
मेरे बचपन की एक सहेली थी चम्पा। उनके माता-पिता ने उसे स्कूल नहीं भेजा। मैं पढ़ने जाती। वह घर में कुछ-कुछ सीखती रहती। मुझे पढ़ना-लिखना बोझ भी लगता था। वह तो हंसती-खेलती बहुत कुछ सीखती थी। गांव में अम्बरचरखा सिखाने वाले आए। चम्पा अम्बरचरखा चलाना सीख गई। उसका विवाह हुआ। उसके साथ अम्बरचरखा भी गया। वह ससुराल में रहकर अम्बरचरखा चलाकर घर बैठे आमदनी करती थी। उसे उसकी ससुराल में विशेष पहचान भी मिली। शिक्षा तो जरूरी है। पाठशाला से लेकर ऊंची-ऊंची संस्थाओं में प्रशिक्षण लेना भी। लेकिन जीवन को सहज, सुगम बनाने की शिक्षा भी आवश्यक है। हाथों में आए हुनर जीवन का हिस्सा बन जाते हैं। उनके द्वारा काम करने में परेशानियां नहीं होतीं।
व्यक्ति के हाथों में विशेष हुनर के कारण समाज में परस्पर निर्भरता भी बढ़ती थी। बाबूजी के बहुत से काम मंगल चाचा के बिना संपन्न नहीं होते थे तो बाबूजी के बिना भी मंगल चाचा के कोर्ट-कचहरी के काम हो ही नहीं सकते थे। दोनों एक दूसरे के पूरक थे। गांवों में कुछ लोग ही कुछ कामों में सिद्धहस्त होते थे। कई लोग ऐसे जिनके सिवाय कोई विशेष काम दूसरों को नहीं आता था। समय पड़ने पर ऐसे हुनर वाले विशेष व्यक्तियों को सब खोजते थे। वे सबके पास हाजिर होते थे। वह हुनर उन्हें विशिष्ट जन होने की सुखद अनुभूतियों से भर देता था। कई लोगों की तो दूसरे गांवों से भी बुलाहट आती थी। गांवों में परस्पर निर्भरता रहती थी। इसलिए एकता भी।
दादी, मां, चाचियों के बीच तो गजब की परस्पर निर्भरता थी। कोई लाई बनाने में विशेषज्ञ तो कोई ठेकुआ का आटा गूंथने की। मेरी दादी के बिना तो घर क्या मुहल्ले में लाई नहीं बंध पाती थी। वे ही घर-घर जाकर गुड़ या चीनी के पाग की परिपक्वता मांपती थीं। नई बहुओं को सिखाती भी थीं। अपने हुनर के कारण सम्मानित थीं दादी।
हाथ ही बड़ी चीज है। ग्रामीण जीवन में यह सनातन मान्यता है कि ईश्वर ने पेट दिया हैं तो दो हाथ भी दिए हैं। दो हाथों वाला व्यक्ति कभी भूखा नहीं मरता। कोई न कोई हुनर होता है हाथों में। जीवन में कामों की ढेर सारी विभिन्नताएं हैं। जितनी विभिन्नताएं हैं, उतने ही हुनर भी। हाथों में कोई न कोई हुनर अवश्य होना चाहिए।
'हुनर हो हर हाथ में,
दिल में प्रेम का भाव
भेद मिटे हर द्वार से,
जग में आए समभाव।'
विभिन्न क्षेत्रों में ऊंची 'डिग्रियां'ं लेने वाली बेटियों के हाथों में भी घर चलाने और बच्चा पालन करने के हुनर की मैं पक्षधर रही हूं। मैं हमेशा कहती रही हूं कि लड़कियों को इंजीनियर, डॉक्टर या अंतरिक्ष पर जाने के लिए पढ़ाई कराते हुए यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि उन्हें मां भी बनना है, गृहिणी भी। इसलिए उन्हें घर चलाने का विशेष हुनर आना चाहिए। अभी हाल ही में मुझे पता चला कि ऊटी में एक ऐसी प्रशिक्षण संस्था प्रारंभ हुई है जो घर चलाने के सारे हुनर सिखाती है। किसी भी व्यवसाय की ऊंची 'डिग्री' लेने के बाद लड़कियां विवाह के पूर्व वह प्रशिक्षण करने उस संस्था में जाती हैं। नौ महीने का कोर्स है। अच्छी बात है। कहते हैं न – 'आवश्यकता आविष्कार की जननी है।' दादी और मां के साथ काम करते-करते सीखने का मजा ही कुछ और होता है। दादी नहीं सही, कोई तो सिखाए हुनर।
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