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'ईमानदार' बताये जाने वाले प्रधानमंत्री ने आजाद भारत के सबसे बड़े घोटाले को नकारने की हठधर्मिता में संसद का कमोबेश एक पूरा सत्र ही हंगामे की भंेट चढ़ जाने दिया। वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं और घोटाला बिना नीलामी दो-चार नहीं, पूरी 142 कोयला खदानों की बंदरबांट का है, जिसके जरिये सरकारी खजाने की कीमत पर निजी कंपनियों को एक लाख 86 हजार करोड़ रुपये का लाभ पहुंचाया गया। बेशक राजनीति में भ्रष्टाचार के आरोप-प्रत्यारोप एक अशोभनीय परंपरा बन गयी है, लेकिन एक लाख 86 हजार करोड़ रुपये का कोयला घोटाला किसी राजनीतिक दल द्वारा लगाया गया आरोप नहीं है, बल्कि खुद केंद्र सरकार के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग)- जो स्वयं में एक संवैधानिक संस्था है- की रपट से उजागर सच है। 'कैग' की यह रपट साफ-साफ कहती है कि वर्ष 2004 से 2009 के बीच बिना नीलामी सिफारिश के आधार पर कोयला खदान आवंटन से देश को राजस्व से वंचित कर निजी कंपनियों को एक लाख 86 हजार करोड़ रुपये का लाभ पहुंचाया गया। स्वार्थपरता के इस दौर में जब कोई निस्वार्थ भाव से किसी को पानी तक नहीं पिलाता, घोटालों के लिए बदनाम सरकार ने कोयला खदानों की रेवड़ियां अपने चहेतों को यों ही तो नहीं बांट दी होंगी।
चहेतों को बांटीं रेवड़ियां
कोयला खदानों की यह बंदरबांट भी तब की गयी, जब खुद मनमोहन सिंह सरकार वर्ष 2006 में ही यह फैसला कर चुकी थी कि भविष्य में नीलामी की नीति अपनायी जायेगी। नयी नीति का फैसला तो सरकार ने कर लिया, पर उस पर अमल टाल दिया, ताकि चहेतों को रेवड़ियां बांटी जा सकें। रेवड़ियां भी थोक में बांटी गयीं । लगभग तीन साल की अवधि में दो-चार नहीं, 142 कोयला खदानों की बंदरबांट की गयी। इन खदानों से सरकारी खजाने को मिल सकने वाले राजस्व और कोयले की बिक्री से इन कंपनियों को हो सकने वाले भारी लाभ के आधार पर 'कैग' ने घोटाले की राशि का आकलन किया है, जो इसे आजाद भारत का सबसे बड़ा घोटाला बना देती है। वैसे इससे पहले जिस टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन को आजाद भारत का सबसे बड़ा घोटाला माना जा रहा था उसका श्रेय भी मनमोहन सिंह सरकार को जाता है। बिना नीलामी पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर की गयी टू जी स्पेक्ट्रम लाइसंेस की बंदरबांट से देश के खजाने को लगभग एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचाया गया था।
टू जी घोटाला भी मनमोहन सिंह के पहले प्रधानमंत्रित्वकाल में हुआ था, जब द्रमुक कोटे से ए. राजा संचार मंत्री थे। उस घोटाले को भी 'कैग' ने ही उजागर किया था और अंतत: उसी आधार पर राजा को संप्रग-2 में मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा था । इसलिए मुख्य विपक्षी दल भाजपा और उसके नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सीधी-सी मांग थी कि कोयला घोटाले के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस्तीफा देना चाहिए, क्योंकि जिस अवधि में कोयला खदानों की यह बंदरबांट हुई, उसमें ज्यादातर समय कोयला मंत्रालय खुद वही संभाल रहे थे। यह बेहद तार्किक मांग है, क्योंकि इसी आधार पर ए. राजा से इस्तीफा लिया गया था, लेकिन अब जब खुद मनमोहन सिंह की बारी आयी तो वह सच से मुंह चुराते नजर आये।
खुद फंसे तो चर्चा!
अपनी कुर्सी बचाने के लिए प्रधानमंत्री ने संवैधानिक संस्था 'कैग' की आलोचना में भी संकोच नहीं किया। अर्थशास्त्री बताये जाने वाले मनमोहन ने 'कैग' के आकलन को तथ्यहीन, त्रुटिपूर्ण और चुनौती दी जा सकने लायक करार दे दिया, जबकि कटु सत्य यह है कि उन्हें तो निर्णायक रपट और उसमें किये गये आकलन के लिए 'कैग' का आभारी होना चाहिए था, क्योंकि मसौदा रपट में यह आकलन दस लाख करोड़ रुपये से भी अधिक था।
राजा से 'कैग' की रपट के आधार पर ही मंत्रिमंडल से इस्तीफा ले लेने वाले प्रधानमंत्री अपनी बारी आने पर बोले कि संसद में चर्चा करिए, हमारे पास हर सवाल का जवाब है। सिद्धांतत: बात सही भी है कि संसद में चर्चा हो, विपक्ष सवाल पूछे और सरकार जवाब दे। पर उसके बाद? महंगाई, भ्रष्टाचार और काले धन पर संसद में अनगिनत बार चर्चा हो चुकी है, पर परिणाम कुछ नहीं निकला। दरअसल, सरकार संसद को अपने बचाव के लिए इस्तेमाल करने लगी है। यह चाल कामयाब रहने से उसका हौसला भी बढ़ा है। आखिर लोकसभा में बहुमत है , तभी तो सरकार बनी है, इसलिए चर्चा सबसे आसान और सुरक्षित अस्त्र है विपक्ष के किसी भी हमले को नाकाम करने का। देर से ही सही, यह बात विपक्ष को भी समझ आ गयी है इसीलिए कोयला घोटाले पर वह सरकारी चाल में नहीं फंसा। नूरा कुश्ती कर अक्सर संकटमोचक बन जाने वाली समाजवादी पार्टी और वामपंथी दल अवश्य जाने-अनजाने सरकार के इस खेल में फंसने को आतुर नजर आये, पर राजग ने चाल कामयाब नहीं होने दी। राजग में भी दरार डालने की हरसम्भव नाकाम कोशिश की गयी। भाजपा ने दो टूक कहा कि प्रधानमंत्री के इस्तीफे, कोयला खदान आवंटन रद्द करने और घोटाले की स्वतंत्र जांच के बिना संसद नहीं चल पायेगी।
आलाकमान का दंभ
कहना नहीं होगा कि ये बेहद तार्किक मांगें थीं, लेकिन सत्ता के दंभ में चूर सरकार और कांग्रेस को बेहद नागवार गुजरीं। अपनी सरकार के एक के बाद एक घोटालों पर शर्मिंदा होने के बजाय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने सांसदों और पार्टीजनों को नसीहत दी कि वे रक्षात्मक न हों, बल्कि भाजपा को करारा जवाब दें। चिदंबरम, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, पवन बंसल और दिग्विजय सिंह से लेकर खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी अपनी 'आलाकमान' के आदेश को शिरोधार्य किया, पर कोई जवाब हो तो दें। हंगामे के बीच ही संसद में बयान की औपचारिकता पूरी करने वाले प्रधानमंत्री ने कैग रपट पर ही सवालिया निशान लगाते हुए दावा किया कि कोयला खदान आवंटन में कोई अनियमितता नहीं हुई, जबकि सीबीआई और अंतर मंत्रालयी समूह ऐसी ही अनियमितताओं की जांच कर रहा है। सूत्रों की मानें तो अंतर मंत्रालयी समूह ने तो अनेक खदानों का आवंटन रद्द करने की सिफारिश भी तैयार कर ली है। उधर सीबीआई ने भी खदान पाने वाली कई कंपनियों पर छापे मारे हैं।
प्रधानमंत्री सफाई दे रहे हैं कि नीलामी नीति पर अमल में प्रक्रियागत जटिलताओं के चलते विलंब हुआ। हालांकि प्रधानमंत्री कार्यालय की इच्छा के मुताबिक, अपनी राय बदलने से पहले कानून मंत्रालय ने सलाह दी थी कि शासकीय आदेश से भी यह नीतिगत बदलाव किया जा सकता है, पर प्रधानमंत्री ने संशोधन का विकल्प चुना, जिसमें वर्ष 2010 तक का समय लगा और इस बीच सरकार ने चहेतों को कोयला खदानों की रेवड़ियां बांट दीं। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि यह बंदरबांट वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले ही पूरी कर ली गई। ऐसे में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की इस टिप्पणी को नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है कि आवंटन से राजस्व तो आया, पर वह सरकारी खजाने के बजाय कांग्रेस के कोष में गया। कांग्रेस को मोटा माल मिला।
सहाय पर मेहरबानी क्यों?
वैसे तो सरकार की नीयत और नीति की कलई खोलने वाले उदाहरण अनगिनत हैं, पर एक ही उदाहरण सब कुछ बयान कर देता है। मनमोहन सिंह सरकार में फिलहाल पर्यटन मंत्री हैं सुबोध कांत सहाय। उन्होंने 5 फरवरी, 2006 को प्रधानमंत्री को सिफारिशी पत्र लिखा कि एसकेएस इस्पात एंड पॉवर को अमुक दो कोयला खदानें आवंटित कर दी जायें। किसी को भी यह जान कर हैरत होगी कि आठ साल में महंगाई, भ्रष्टाचार और काले धन पर नियंत्रण के लिए एक भी कारगर कदम न उठा सकने वाली मनमोहन सिंह सरकार ने सहाय की सिफारिश के अगले ही दिन एसकेएस को खदानें आवंटित कर दीं।
संसद का मानसून सत्र तो अपने दामन पर लगी कोयले की दलाली की कालिख छिपाने की सरकार की हठधर्मी की भेंट चढ़ गया, पर इसके बावजूद उसे राहत नहीं मिलने वाली। भाजपा और उसके नेतृत्व वाले राजग ने सड़क पर भी सरकार के विरुद्ध जोरदार अभियान चलाने का ऐलान कर दिया है। संसद सत्र के दौरान भी तीन दिन तक चला यह अभियान अब संसद सत्र समाप्ति के बाद और गति पकड़ेगा तथा इस वर्ष के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनावों में अहम मुद्दा भी बनेगा। इसलिए अब सोनिया के आक्रामक तेवर और मनमोहन की मासूम सूरत से बात नहीं बनेगी, अब तो देश को लूट की खुली छूट का हिसाब और लुटेरों के विरुद्ध कार्रवाई चाहिए। अब तो मनमोहन सिंह पर मेहरबान रहने वाले अमरीका के बड़े अंग्रेजी दैनिक 'वाशिंगटन पोस्ट' ने भी उन्हें भ्रष्ट सरकार का मुखिया करार दे दिया है।
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