|
17 जुलाई को मेरे मित्र, शिक्षक, मार्गदर्शक, सहकारी, सहचारी बाल आप्टे ने भगवान के श्रीचरणों में स्थान लिया। उनका और मेरा परिचय जून, 1964 से था। तब महाराष्ट्र प्रदेश का अभ्यास वर्ग लगा था। उसमें आप्टे जी कार्यक्रम के प्रमुख थे व मैं नियंत्रक था। उस समय तक बाल आप्टे अ.भा. विद्यार्थी परिषद, मुम्बई नगर के संगठन मंत्री थे। उस वर्ग में उनके स्थान पर बदल होकर मैं संगठन मंत्री और सुरेश साठे मंत्री, ऐसा परिवर्तन हुआ। उस समय मुम्बई में हर माह नगर परिषद हुआ करती थी, उसमें 100 से अधिक लोग रहते थे। इस काम में आप्टे जी बहुत ही उत्साह से भाग लेते थे। नगर परिषद में मुख्य भाषण भी आप्टे जी का ही हुआ करता था। इस दौरान हम किसी के घर जाते थे तथा पीठला भात बनाते थे, सबके साथ भोजन करते और हंसी मजाक में कब समय बीत जाता, पता ही नहीं चलता था।
उन दिनों आप्टे जी मुम्बई उच्च न्यायालय में जाया करते थे, एक अधिवक्ता के नाते वहां उनका प्रदर्शन बहुत अच्छा था। परंतु विद्यार्थी परिषद् के काम व कार्यक्रम के लिए दोपहर 12.30 या 1.00 बजे (न्यायालय में पहला सत्र समाप्त होने के बाद) आप्टे जी, मैं और श्रीकांत धारप तुरंत बाहर निकलते थे। उसी वर्ष पद्मनाभ आचार्य और दिलीप परांजपे पूर्वांचल में अरुण साठे से मिलने गये थे। अरुण साठे वहां संघ प्रचारक थे। आते समय वे वहां के 80 विद्यार्थियों को मुम्बई लाने की कल्पना लेकर लौटे। उसके बाद मुम्बई की बैठक में यशवंत राव व अन्य सभी कार्यकर्ताओं ने मिलकर इस योजना को स्वीकार किया। कोलाबा से लेकर ठाणे तक 80 घर खोजने का कार्य रिकार्ड समय में पूरा किया गया। योजना इतनी सफल हुई कि अपने घर उस विद्यार्थी के आने से पहले ही सभी संरक्षक अभिभावक उनको लेने स्टेशन तक पहुंचे। इस योजना को 'सील' नाम दिया गया था। ऐसे अनेक उपक्रम हुआ करते थे, जिसमें आप्टे जी प्रमुख होते थे।
वैशिष्ट्यपूर्ण व्यक्तित्व
बाल आप्टे जी का वैशिष्ट्य अत्यंत अनौपचारिक मित्रता था। वे देर रात तक बाहर रहते और पोस्टर आदि लगाने का काम करते थे। उन दिनों पोस्टर लगाने के लिए ठेका देने की पद्धति नहीं थी। 1965 में 13वें अखिल भारतीय अधिवेशन में देश भर से 400 कार्यकर्ता उपस्थित थे। अधिवेशन का केन्द्र बिन्दु रक्षा था, इसलिए उसका उद्घाटन करने के लिए जनरल थोराट आये थे तथा मलेशिया के राजदूत जेतुल बिन इब्राहिम मुख्य अतिथि थे। उस अधिवेशन में भी मैं नियंत्रक और आप्टे जी कार्यक्रम प्रमुख थे। उसी वर्ष बाल आप्टे अखिल भारतीय सचिव बने। 1966 के कानपुर अधिवेशन में जनरल करियप्पा मुख्य अतिथि थे। उसी काल में विद्यार्थी परिषद का वैचारिक अभियान शुरू हुआ- 'विद्यार्थी कल का नहीं आज का नागरिक है'- यह बात कहना प्रारंभ हुआ। केवल विश्वविद्यालय परिसर के नहीं बल्कि बाहर के प्रश्न भी विद्यार्थियों के हैं, क्योंकि विद्यार्थी उनको भोगता है- ऐसे विचार पत्र यशवंत राव के विचार-विमर्श से आप्टे जी ने लिखने को दिए। 'विद्यार्थियों की सहभागात्मक भूमिका' पर आप्टे जी धाराप्रवाह बोलते। इसी विषय पर मुम्बई के प्रांत अधिवेशन में 17 गटों में विचार-विमार्श हुआ। आप्टे जी का वैशिष्ट्य था कि किसी भी विषय को विचार के रूप में समझने के बाद लिखना शुरू कर देते तो आखिरी तक लिखते। उसी में से 'सहभागात्मक भूमिका' वाला पत्र तैयार हुआ।
1969-70 में तिरुअनंतपुरम में अ.भा. अधिवेशन हुआ, जिसमें मुझे अ.भा. संगठन मंत्री बनाया गया। मुझे संगठन मंत्री बनाने व बनाये रखने और मेरी भूमिका सही रहे, इन सभी विषयों में यशवंत राव व आप्टे जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। विद्यार्थी परिषद की विचारधारा को आगे बढ़ाने का कार्य भी आप्टे जी के मार्गदर्शन से प्रारंभ हुआ। विचार बैठकों के माध्यम से विद्यार्थी परिषद के पिछले कार्यों की समीक्षा के साथ आगामी वर्षों की कार्य योजना बनाकर कार्य किया जाये, ऐसा विचार यशवंत राव व आप्टे जी ने सभी कार्यकर्ताओं के समक्ष रखा। विचार बैठक के विषय व बैठक में चर्चा चलाने का कार्य आप्टे जी बहुत प्रभावी तरीके से करते थे, जिससे विद्यार्थी परिषद की विशिष्ट कार्य पद्धति विकसित होती गई। विचार बैठकों का क्रम निरंतर जारी रहा, जिससे विद्यार्थी परिषद ने यह मत रखा कि छात्रशक्ति-राष्ट्रशक्ति है। इसके पश्चात गुजरात व बिहार में नवनिर्माण आंदोलन के दौरान यह सिद्ध करके भी दिखाया कि देशहित से जुड़ा हर विषय छात्रों से भी जुड़ा है, चाहे वह शैक्षिक परिसर में हो या सामाजिक क्षेत्र में। आप्टे जी ने इन सभी कार्यों में अग्रणी रहकर कार्यकर्ताओं को हमेशा प्रामाणिकता से कार्य करने हेतु प्रेरित किया।
संगठन सर्वप्रथम
मेरे विधि स्नातक के कुछ विषय रुके हुए थे, परंतु प्रचारक निकलना है तो जो पढ़ाई मैं कर रहा हूं वह पूर्ण होनी ही चाहिए, इसलिए विधि के प्रश्नपत्र दिये। उस समय आपटे जी लॉ वाम्बे यूनीवर्सिटी के परीक्षक थे और मेरा उनसे प्रतिदिन ही मिलना होता था। मैं परीक्षा में बैठा हूं, यह बात भी वे जानते थे। परंतु उन्होंने कभी मेरा 'रोल नम्बर' जानने की चेष्टा नहीं की, और मैंने भी अपना नम्बर बताना अच्छा नहीं माना। परीक्षा परिणाम आने पर ही उनको मेरा नम्बर और परीक्षाफल मालूम हुआ, ऐसा था उनका व्यक्तित्व।
1975 में इंदिरा गांधी द्वारा आरोपित आपातकाल के खिलाफ भूमिगत आंदोलन शुरू किया गया। इस सत्याग्रह में बालासाहेब आप्टे की भूमिका प्रमुख रही और उन्होंने एक जत्था लेकर सत्याग्रह किया और वे आर्थर रोड जेल भेजे गये, उसके बाद नासिक रोड जेल गये। नासिक रोड जेल में यशवंत राव अनिरुद्ध देशपाण्डे, सतीश मराठे सहित एक हजार से अधिक सत्याग्रही थे। उनके साथ वे डेढ़ साल तक जेल में रहे और सभी प्रकार के कार्यक्रम किये, जिससे जेल का जीवन आनंददायी हो गया। आपातकाल हटने के आखिरी दिन तक बाल आप्टे और यशवंतराव केलकर ने एक दिन का भी पैरोल न लेकर जेल के सत्याग्रहियों के सामने आदर्श रखा। जेल में रहते हुए अनेक शोध पत्र तैयार किये, आगामी भूमिका के बारे में विचार-विमर्श किया तथा जेल से बाहर आने के बाद क्या-क्या हो सकता है, इसका भी विचार किया। उसमें से राजनीतिक दलों को एकत्र कर जनता पार्टी बनना और इंदिरा गांधी का विरोधी दल खड़ा होना ये सब होता गया, और जनता पार्टी की सरकार आयी। परंतु इसमें विद्यार्थी परिषद पर दबाव था कि वह भी जनता पार्टी का हिस्सा बने, परंतु विद्यार्थी परिषद ने स्पष्ट भूमिका अपनाई कि छात्र आंदोलन स्वतंत्र रहेगा तथा किसी भी पार्टी के अन्तर्गत काम नहीं करेगा। इसी कारण अरुण जेटली, जो उस समय डूसू (दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ) के अध्यक्ष थे, को जनता पार्टी की केन्द्रीय कार्यकारिणी में लिया गया, इसलिए उन्होंने डूसू के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर यह भूमिका स्पष्ट की कि विद्यार्थी परिषद सत्ता व राजनीतिक दलों से अलग रहेगी।
उस समय विद्यार्थी परिषद अधिकांश छात्र संघों में चुनकर आयी, परन्तु विद्यार्थी परिषद पर दबाव बढ़ता गया कि वह राजनीतिक दल से जुड़े। तब विद्यार्थी परिषद ने चुनाव लड़ना छोड़ दिया, यानी जब जीत रहे थे तब। इसका कारण विद्यार्थी परिषद की सामूहिक निर्णय करने की प्रक्रिया रही। मुझे यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि यशवंतराव केलकर तथा आप्टे जी का यह मत था कि छात्र संघ के चुनाव लड़ना व छात्र संघ में नेतृत्व देना, यह विद्यार्थी परिषद की स्वाभाविक गतिविधि है। परन्तु अन्य सभी कार्यकर्ताओं का यह आग्रह था कि चुनाव लड़ने से अलग रहना है। छात्र संघ चुनाव न लड़ने का निर्णय अधिकांश कार्यकर्ताओं का था, इसलिए आप्टे जी व यशवंतराव जी ने उस निर्णय का पालन कराने में सभी का मार्गदर्शन किया। परन्तु एक-दो वर्ष में ही चुनाव लड़ने का स्वाभाविक क्रम विद्यार्थी परिषद को हाथ में लेना पड़ा व पुन: विद्यार्थी परिषद चुनाव लड़ने लगी व जीतने लगी।
उन दिनों में भी असम में बंगलादेशी घुसपैठ का मुद्दा सामने आया। 'कल का भारत बचाने के लिए आज असम बचाओ' इस घोषणा को लेकर असम में बंगलादेशी घुसपैठ के विरुद्ध आंदोलन चला। इसमें स्पष्ट किया गया कि बंगलादेशी घुसपैठिये और वहां से आए हिन्दू शरणार्थी अलग-अलग हैं। विद्यार्थी परिषद ने बंगलादेशी घुसपैठियों के मुद्दे पर आंदोलन के समय जो नारा दिया- 'सेव असम टुडे, टू सेव इंडिया टुमोरो', आज उसकी प्रासंगिकता सबको समझ आ रही होगी। हाल ही में असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई का यह बयान देना कि बंगलादेशी घुसपैठियों को मानवीयता के आधार पर भारत की नागरिकता दे देनी चाहिए, सरकार की लाचारी को दर्शाता है और बताता है कि बंगलादेशी घुसपैठ किस हद तक विकराल रूप धारण कर चुकी है। मुम्बई में हुई घटना इसका परिचायक है।
राष्ट्रीय मोर्चे पर अग्रणी
1981 से विद्यार्थी परिषद ने डा. भीमराव अम्बेडकर की जयंती को सामाजिक समरसता दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया। उस समय यशवंतराव व आप्टे जी ने समाज के सभी वर्गो को साथ लेकर चलने का विषय कार्यकर्ताओं के समक्ष रखा, जिसे सभी कार्यकर्ताओं ने सहर्ष स्वीकार किया। विद्यार्थी परिषद के अथक प्रयत्नों के फलस्वरूप मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद (संभाजीनगर) का नामकरण डा. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय हुआ। जब कश्मीर घाटी से हिन्दुओं को विस्थापित किया गया तब 'चलो श्रीनगर' के आह्वान पर पूरे देश से विद्यार्थी परिषद के 10 हजार से अधिक कार्यकर्ता जम्मू से आगे बढ़े। तब सेना के जवानों ने विनती की कि आप वापस जाइये, आपको वहां जाने का अधिकार है, परंतु आपके जाने से आतंकवादियों के खिलाफ लड़ना व आपको बचाना, इन दोनों में हमारी शक्ति बंटेगी, जिसका वे लाभ उठाएंगे, इसलिए कृपया आप वापस जाइये। तब वह तिरंगा ध्वज, जो परिषद् कार्यकर्ता श्रीनगर में फहराने के लिये लेकर निकले थे, तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह को दिल्ली आकर दिया गया। इन सभी आन्दोलनों में आप्टे जी साथ में रहे। आप्टे जी प्रत्येक बैठक में उपस्थित रहते थे, निर्णय में भाग लेते थे। आप्टे जी जितना प्रवास परिषद के लिए करते थे वह प्रवास स्वयं के व्यय से करते थे। प्रत्येक शनिवार, रविवार को वे प्रवास करते ही थे।
अयोध्या आंदोलन में जो कुछ हुआ उसका अध्ययन करने हेतु परिषद का एक अध्ययन दल गया था, उसमें आप्टे जी भी उपस्थित थे। उसकी रपट आप्टे जी ने एक ही रात में जागकर बनाई, लगभग 90 पृष्ठों की। वे प्रतिभा के अत्यंत धनी, विचारों के स्पष्ट और ओजस्वी वक्ता थे। मित्रता व स्नेह प्रेम होने के नाते उनके सम्पर्क में जो आया, वह कभी भी उनसे दूर नहीं गया। गत 10-12 वर्षों से राज्यसभा सदस्य होने के नाते भाजपा में उनकी क्या भूमिका होनी चाहिए, इस बारे में उनकी स्पष्टता रहती थी। भारतीय जनता पार्टी में किस प्रकार की संस्कृति विकसित होनी चाहिए, कैसी कार्यपद्धति विकसित होनी चाहिए, वह नहीं है, इसके बारे में चिंतित रहते थे। परंतु उनके जैसा स्पष्ट वक्ता पार्टी में रहना बहुत आवश्यक था। वास्तव में ऐसा मित्र, ऐसा स्नेही, ऐसा विचारक मिलना कठिन है। इसलिए उनके जाने के कारण व्यक्तिगत रूप से मुझे कितनी पीड़ा और हानि हुई, इसकी चर्चा करना बहुत कठिन है। इतना भर कहूंगा- ऊँ मित्राय नम:।।
टिप्पणियाँ