…तो गांधी जीइंटरनेट पर बैठे होते!-देवेन्द्र स्वरूप-
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इंटरनेट पर बैठे होते!
देवेन्द्र स्वरूप
'चरखे का संगीत : इंटरनेट युग के लिए महात्मा गांधी का घोषणा पत्र' अनेक दृष्टियों से अनूठी रचना है-साढ़े सात सौ पृष्ठों के विशाल शरीर के कारण ही नहीं तो इसलिए भी कि यह पुस्तक महात्मा गांधी और वर्तमान युग के चमत्कारिक यंत्र इंटरनेट के बीच घनिष्ठ संबंध स्थापित कराती है। 1957 में उत्तरी कर्नाटक के अरुनी नामक ग्राम में जन्मे और बम्बई आआईटी के स्नातक सुधीन्द्र कुलकर्णी की बौद्धिक यात्रा महात्मा गांधी से आरंभ होकर मार्क्स पर पहुंच गयी, और फिर मार्क्सवाद से मोहभंग होने पर महात्मा गांधी पर वापस आ गयी। महात्मा गांधी ने उन्हें भारतीय जनसंघ के सिद्धांतकार दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवदर्शन की समझ प्रदान की और वे जनसंघ के नये अवतार भारतीय जनता पार्टी के चिंतक बन गये। अंग्रेजी में लिखी गई पुस्तक-म्यूजिक आफ द स्पिनिंग व्हील- महात्मा गांधी मैनीफैस्टो फार दी इंटरनेट एज, (आई.एस.बी.एन.- 9381506167, मूल्य: रु. 595, पृष्ठ : 763, प्रकाशक-अमैरीलिस) के लेखक सुधीन्द्र कुलकर्णी अपनी पुस्तक के प्रारंभ में ही घोषणा करते हैं कि इस पुस्तक का लेखन केवल बौद्धिक उत्सुकता में से नहीं हुआ है अपितु गांधी जी के अधूरे स्वप्न को पूरा करने के लिए सक्रिय साधना की छटपटाहट में से हुआ है और इसके लिए वे अपनी पुस्तक का समापन पाठकों को 'इंटरनेट सत्याग्रही' बनने के आह्वान के साथ करते हैं।
लेखक की धारणा है कि गांधी जी आधुनिक विज्ञान और तकनीकी के विरुद्ध नहीं थे बल्कि उनका समूचा जीवन वैज्ञानिक दृष्टि और अन्वेषण का प्रमाण है। यह संयोग है कि इंटरनेट का अवतार गांधी जी के जन्म से एक शताब्दी बाद हुआ। यदि गांधी जी 2 अक्तूबर, 1869 को जन्मे तो इंटरनेट का जन्म 29 अक्तूबर, 1969 को कैलीफोनिर्या में हुआ। यदि उस समय गांधी जी ने चरखे को वैकल्पिक सभ्यता के निर्माण का केन्द्रीय उपकरण बनाया तो अब इंटरनेट चरखे की जगह वह उपकरण बन रहा है, क्योंकि चरखा कालबाह्य होकर अपनी उपयोगिता खो चुका है। लेखक की दृष्टि में गांधी जी भविष्य दृष्टा थे, वे इंटरनेट के अवतार की प्रतीक्षा कर रहे थे और यदि आज वे सशरीर हमारे बीच होते तो शायद इंटरनेट पर ही बैठे दिखाई देते क्योंकि इंटरनेट में ही उनके सपनों का भारत और विश्व गढ़ने की क्षमता विद्यमान है। लेखक की दृष्टि में इंटरनेट विश्वव्यापी सम्पर्क और जानकारी संग्रह का तीव्रतम उपकरण मात्र नहीं है बल्कि एक उच्चतर अतिमानव के अवतरण की भूमिका तैयार करता है, अर्थात इंटरनेट केवल साधन नहीं, स्वयं में साध्य है।
गांधीजी के प्रयोग
अपनी इन मान्यताओं के प्रतिपादन के लिए लेखक ने गंभीर शोध किया है। एक ओर उन्होंने गांधी जी के सम्पूर्ण वाङ्मय के 98 या 100 खंडों का आलोड़न किया है, गांधी जी के बारे में लिखे गए विपुल साहित्य का अवगाहन किया है तो दूसरी ओर आधुनिक विज्ञान और तकनीकी, विशेषकर सूचना क्रांति को लेकर पश्चिम के वैज्ञानिकों एवं चिंतकों द्वारा जो अधुनातन साहित्य सृजन हो रहा है, उसका भी गहरा अध्ययन किया है। पश्चिम में तकनीकी निर्मित सभ्यता के भविष्य के बारे में जो बौद्धिक बहस चल रही है, उसमें भी गोता लगाया है। इस पुस्तक के लेखन में कितना परिश्रम और विचार मंथन हुआ है इसकी झलक भूमिका और उपसंहार सहित 38 अध्यायों के 40 पृष्ठ लम्बे संदर्भों में मिल जाती है। इसके अतिरिक्त पुस्तक के भीतर भी सैकड़ों लेखकों और पुस्तकों के उल्लेख बिखरे पड़े हैं। सचमुच यह बौद्धिक पराक्रम आश्चर्यचकित करने वाला है। इस पराक्रम के पीछे एक उदार लोकतांत्रिक और विकेन्द्रित वैश्विक सभ्यता के निर्माण की गांधी जी की छटपटाहट और साधना के प्रति गहरी आस्था विद्यमान है। किन्तु इसके लिए गांधी जी ने सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के शाश्वत, उदात्त जीवन मूल्यों की साधना पहले स्वयं अपने जीवन में की। वे जीवन भर इस साधना में लगे रहे, इसीलिए अपनी आत्मकथा को 'सत्य के प्रयोग' जैसा नाम दिया। स्वयं से आगे बढ़कर उन्होंने द.अफ्रीका में फोनिक्स व तालस्ताय और भारत में साबरमती व सेवाग्राम नामक आश्रमों की स्थापना करके इन जीवन मूल्यों को प्रतिबिम्बित करने वाले सामूहिक जीवन के प्रयोग प्रारंभ किये। 1920 में कांग्रेस का कायाकल्प करने के लिये नया संविधान बनाया, उसकी प्राथमिक सदस्यता के लिए कठोर नियम लागू किये, इन नियमों में नित्य चरखा कातना, हाथ के बने हुए सूत के वस्त्रों को धारण करना, अस्पृश्यता का उन्मूलन करना आदि व्यावहारिक प्रयोग अपनाए थे। गांधी जी मानते थे कि समाज को बदलने के लिए व्यक्ति का बदलना आवश्यक है, अत: उनकी दृष्टि व्यक्ति निर्माण और लोक संग्रह पर केन्द्रित थी। इस दृष्टि से उन्होंने साधनों की खोज की, उनका उपयोग किया। साध्य और साधन अभिन्नता पर उनका अटूट विश्वास था। अत: साधनों के चयन में वे बहुत सावधान थे। उन्होंने मौन और उपवास का साधन और साध्य दोनों रूप में उपयोग किया। 'सत्याग्रह' शब्द का आविष्कार स्वतंत्रता एवं मानवाधिकारों की प्राप्ति के लिए अहिंसक शस्त्र के रूप में किया। छापेखाने, टाइप राइटर, टेलीफोन और रेलवे का उपयोग उनकी दृष्टि में अपने संदेश को, अपनी भावनाओं को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने से अधिक कुछ नहीं था।
गांधी जी और आधुनिक तकनीकी का विरोध
मशीनी सभ्यता को उन्होंने अस्वीकार किया, क्योंकि वे श्रम प्रधान प्रवृत्ति पोषक संयमी जीवन को मानव का आदर्श मानते थे, इसलिए 1909 में लिखित 'हिन्द स्वराज' के अंत में उन्होंने जो बीस सूत्री कार्यक्रम दिया, उसमें वकील, डाक्टर और रेल (ट्रेन) के बहिष्कार की बात भी सम्मिलित थी। मशीन और जीवन शैली उनकी जीवन पर्यन्त चिंता का विषय रही। इस विषय पर नेहरू जी के साथ 1928 से 1946 तक का उनका पत्राचार साक्षी है। अक्तूबर, 1945 के पत्र में भी उन्होंने नेहरू जी को सूचित किया कि 36 वर्ष लम्बे अनुभव के बाद भी वे 'हिन्द स्वराज' में प्रस्तुत सभ्यता के चित्र पर अडिग हैं। वे मानते हैं कि स्वाधीन भारत शहरों में नहीं गांवों में रहेगा। महलों में नहीं, कुटियों में रहेगा। उन्होंने लिखा था कि, 'भारत पश्चिम का अंधानुकरण नहीं करेगा, मैं अकेला रह जाऊं तो भी अपनी बात कहता रहूंगा।' इंटरनेट जिस सभ्यता की देन है क्या वह गांधी जी की कल्पना की सभ्यता है। नेहरू जी ने तकनीकी के प्रति गांधी जी की दृष्टि को कभी स्वीकार नहीं किया। अपनी आत्मकथा में उन्होंने एक अध्याय इसी विषय पर दिया कि क्या गांधी जी हमें बैलगाड़ी युग में वापस ले जाना चाहते हैं। स्पष्ट है कि गांधी जी के निकटतम सहयोगी भी यह नहीं मानते थे कि गांधी जी आधुनिक तकनीकी के प्रशंसक हैं।
इंटरनेट के दुष्परिणाम भी हैं
इंटरनेट एक साधन है, जिसने पूरे विश्व को सम्पर्क सूत्र में बांध दिया है। इंटरनेट जानकारी का अगाध सागर है। वहां बटन दबाते ही चाहे जिस विषय पर चाहे जितनी जानकारी मिल सकती है। इंटरनेट पलक झपकते ही आपका संदेश विश्व के किसी भी कोने में पहुंचा सकता है। किन्तु इंटरनेट का उपयोग जो व्यक्ति करता है, उस व्यक्ति की जीवन दृष्टि, जीवन शैली और मानसिकता जैसी है वैसी ही इंटरनेट प्रसारित कर सकता है। यही कारण है कि इंटरनेट अश्लीलता के प्रसारण का माध्यम बन गया है। किशोर बच्चे इंटरनेट के गुलाम बनकर अपने कमरों में बंद हो गये हैं। समाज से उनका प्रत्यक्ष सम्पर्क लगभग समाप्त हो गया है। विश्व चेतना की बजाय वे व्यक्तिवादी चेतना के बंदी होते जा रहे हैं इसलिए साइबर अपराध आज पूरे विश्व की चिंता का विषय बन गया है।
गांधी जी की मुख्य चिंता मानव जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएं-रोटी, कपड़ा और मकान पूरी करने की दिशा में थी। चरखे को उन्होंने उसी के साधन के रूप में महत्व दिया। क्या इंटरनेट ये आवश्यकताएं पूरी कर सकता है? क्या इंटरनेट गेंहू उगा सकता है? क्या इंटरनेट कपड़ा बुन सकता है, क्या इंटरनेट मकान बना सकता है? क्या इंटरनेट पर्यावरण के क्षरण को रोक सकता है? इंटरनेट की स्वयं की उत्पादन प्रक्रिया प्रकृति पोषक है या पर्यावरण नाशक? विद्युत का उत्पादन स्वयं में प्रकृति नाशक सिद्ध हो रहा है। नदियों पर बांधों के निर्माण और कोयला खनन और जंगल कटाई को लेकर जो आंदोलन हो रहे हैं उनकी जड़ में अधिकाधिक विद्युत उत्पादन की भूख नहीं तो और क्या है? वस्तुत: इंटरनेट का संसार केवल शब्दों का संसार है, जिसका श्रम और सार्थक उत्पादन से कोई रिश्ता नहीं दिखाई देता। इसीलिए मीडिया में आये दिन हम इंटरनेट के दुष्परिणामों के बारे में चेतावनी भरे लेख पढ़ते रहते हैं।
इंटरनेट ने भौतिक धरातल पर दुनिया को जोड़ा तो है, पर दुनिया को भावनात्मक धरातल पर ऊंचा नहीं उठाया। इंटरनेट से हमारी जानकारी तो बढ़ी है, पर दिल बड़े होने की बजाय छोटे हुए हैं। अश्लीलता और कामुकता घटने की बजाय बढ़ी है। 'सोशल मीडिया' का उपयोग सद्भाव पैदा करने के बजाय सामाजिक विद्वेष और कटुता पैदा करने के लिए किया जा रहा है। आये दिन समाचार पढ़ते हैं कि जिहादी आतंकवादी इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं। पिछले दिनों दक्षिण भारत में शिक्षा एवं जीविकोपार्जन के लिए आए हजारों पूर्वोत्तर भारतवासियों को वहां से भगाने के लिए भय का वातावरण पैदा करने में 'सोशल मीडिया' यानी इंटरनेट का ही दुरुपयोग किया गया।
इंटरनेट साधन है, साध्य नहीं
इसका अर्थ यह नहीं है कि इंटरनेट नामक साधना का कोई भावनात्मक उपयोग हो ही नहीं सकता। आखिर, अण्णा आंदोलन को जो लोकप्रियता और शक्ति प्राप्त हुई उसमें प्रमुख योगदान 'सोशल मीडिया' का ही रहा। संक्षेप में कहना हो तो इंटरनेट को विचार और भावना के प्रसारण के एक माध्यम से अधिक महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। उसका सार्थक उपयोग करने के लिए पहले व्यक्ति को बदलना होगा। व्यक्ति का वह भाव परिवर्तन या तो उसकी अन्तश्चेतना में से आया था और समाज में यह परिवर्तन लाने के लिए आश्रम प्रणाली, सत्याग्रह एवं रचनात्मक कार्यक्रमों की संस्कार प्रक्रिया को अपनाया था। इंटरनेट जिस सभ्यता की देन है वह सभ्यता मानव को उपभोक्तावाद की ओर ले जाती है, श्रम विमुख करती है, पर्यावरण नाशक है। इसलिए मानव सभ्यता के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर रही है। आज विश्व भर में सभ्यता के इस संकट पर बहस चल रही है। एक ओर तकनीकी रोज-रोज नए चमत्कारिक आविष्कार हमारे सामने फेंककर हमें लुभा रही है दूसरी ओर मानव जाति पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। यदि गांधी जी को हम अपने प्रेरणा पुरुष के रूप में स्वीकार करते हैं तो हमें उनके स्वेच्छा से गरीबी के वरण के आदर्श को ध्यान में रखना होगा और सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के जीवन मूल्यों को अपने जीवन में लाने की कठोर साधना करनी होगी। इस दृष्टि से देखें तो इंटरनेट चरखे का पर्यायवाची बन ही नहीं सकता। अभी पिछले सप्ताह चैनल 24X7 पर एक सर्वेक्षण दिखाया गया, जिसमें पूछा गया कि आप मोबाइल और टेलीविजन में से किसे चुनना चाहेंगे, तो 64 प्रतिशत ने मोबाइल के पक्ष में वोट दिया और केवल 36 प्रतिशत ने टेलीविजन के। यदि वे पूछते कि मोबाइल, टेलीविजन और इंटरनेट में से किसे चुनेंगे तो शायद इंटरनेट के पक्ष में सबसे कम मत आते, क्योंकि इंटरनेट का उपयोग केवल शिक्षित लोग कर सकते हैं, जबकि शेष दोनों के लिए शिक्षित होना आवश्यक नहीं है।
फिर भी, इस पुस्तक के लेखक की प्रेरणा और भावना बहुत उदात्त है, जो हम सबके लिए अनुकरणीय है। यह पुस्तक हमें गांधी जी के अंतरतम में प्रवेश दिलाती है और विश्व के श्रेष्ठतम वैज्ञानिकों व चिंतकों से हमारा संवाद स्थापित करती है। पुस्तक के अंतिम अध्याय में 'इंटरनेट सत्याग्रही' बनने के जो पन्द्रह सूत्र दिये गये हैं उन सूत्रों को हम गांधी जी एवं इन श्रेष्ठ मस्तिष्कों से सीधे जुड़कर अंशत: प्राप्त कर सकते हैं।
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