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Sep 1, 2012, 12:00 am IST
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प्रकृति के प्रति बढ़ाओं प्रीति

दिंनाक: 01 Sep 2012 14:27:36

प्रकृति के प्रति बढ़ाओं प्रीति

हृदयनारायण दीक्षित

बहुत बदल गया बिन्दास प्रकृति का रूप। पहले यही प्रकृति अषाढ़ सावन की वर्षा में इठलाती थी, नदियां हहराती थीं, तालाब, पोखर उफनाकर तलैयों से मिल जाते थे। बादल जमीन तक आकर बरसते थे। तभी तो तुलसीदास ने गाया था

'बरसहिं जलद भूमि नियराए।'

अब सब कुछ रूखा-सूखा है। बीते सप्ताह उ.प्र. के भीतर कई यात्राएं हुईं। दूर-दूर तक न महुआ, न हहराते देशी आम के वन और न गदराई जामुन के पेड़। यूकेलिप्टस तने खड़े हैं। जमीन का सारा पानी पी गये, अघाये तो भी नहीं। वैज्ञानिक बताते हैं कि सबसे ज्यादा वे ही पानी पीते हैं। हमारे बचपन में सारे गांव जंगल के भीतर थे। हरेक घर के सामने पीछे नीम, जामुन, केला। बागों में लदे फदे आम। फागुन चैत्र में इन पर बौर आते। गांव महकता था। अषाढ़, सावन की आंधी देखकर ही हम लोग बाग की ओर भाग जाते थे। आंधी में गिरे आम बीनने। लेकिन पेड़ कट गये। न आम बचे, न महुआ की मिठास और न जामुन के रसवंत पेड़। जामुन गणेश जी का प्रिय फल था। उनकी स्तुति में 'कपित्थ जम्बू फल चारु भक्षणम्' का उल्लेख है।

प्रकृति से रिश्ता

पीपल का पेड़ हमारे पूर्वजों की प्रीति रहा है। इसका उल्लेख ऋग्वेद में है- अश्वत्थ नाम से। उपनिषदों में है, गीता में भी है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि वृक्षों में पीपल का वृक्ष मैं हूं। वैज्ञानिक बताते हैं कि पीपल का पेड़ 24 घंटे आक्सीजन देता है। सो भारतीय परम्परा में पीपल काटना पाप कहा गया। मैं कोई भी वृक्ष काटने की बात सुनकर आहत होता हूं। वृक्ष हमारे परिजन हैं। मन करता है खूब वृक्ष हों, वृक्ष ही वृक्ष। वे मनुष्य की संख्या से करोड़ों गुना ज्यादा हों। वे झूमें, गायें, फले-फूलें। हम उनकी छाया में स्वस्ति और आश्वस्ति पायें।

केरल समुद्रतटीय राज्य है। 16-18 बरस पहले मैं केरल की यात्रा में था। सब तरफ हरीतिमा ही हरीतिमा। तिरुअनंतपुरम में तो केले कम थे लेकिन नगरों से सटे गांवों में हरेक घर के आगे पीछे, दाएं-बाएं केले ही केले। केले का फल प्रकृति की वैज्ञानिक बुद्धि का परिणाम जान पड़ता है। गहन मिठास और ऊर्जा से भरे केले में हलुआ की जैसी पैकिंग प्रकृति ने की वैसी पैकिंग कोई बहुराष्ट्रीय कम्पनी भी न कर पाती। नारियल का पानी, उसके चारों ओर ऊर्जा से भरी गिरी और फिर ऊपर से कड़ी लकड़ी की पैकिंग। आम के चारों ओर का खोल भी खूबसूरत पैकिंग ही तो है। प्रकृति 'इन्टेलीजेन्ट डिजाइन' की विशेषज्ञ है।

हम सब प्रकृति के हिस्से हैं। लेकिन प्रकृति से हमारे रिश्ते बिगड़ गये हैं। हम प्रकृति को नष्ट कर रहे हैं। भारत का मन, सभ्यता और संस्कृति पश्चिमी हवाओं के लपेटे में है। हम भारत के लोगों का मन अपने मूल स्वभाव से छिटक गया है। अब हम वन उपवन को अपने परिजन नहीं मानते। हम प्राचीन अनुभूति और ज्ञान से जीवन रस नहीं लेते। ऋग्वेद (1.164.2) के ऋषि बता गये हैं कि 'मधुर पत्ते और फलों वृक्षों से समस्त विश्व प्रेरणा पाता है। यह वृक्ष हमें पूर्वजों की तरह प्यार करते हैं।' वैदिक अनुभूति में वृक्ष परिजन थे। हम सबको वैसे ही प्रीति प्रेरित करते थे जैसे हमारे पिता, पितामह और पूर्वज। इसीलिए वेदों में वृक्षों के प्रति गहरी प्रीति है। स्तुति है 'हे वनस्पति आपमें नित्य नये अंकुर निकलें।' यहां ऋषि किसी देवी देवता से नहीं सीधे वनस्पति से ही सम्वाद कर रहा है। वनस्पतियां उनकी मित्र ही नहीं 'सुमित्र' भी हैं। ऋग्वेद में है 'वे वनस्पतियां हमारी सुमित्र बनी रहें।' लेकिन पीछे औद्योगिक सभ्यता की आंधी आई। हम सबने वृक्ष काटे। वन उपवन उजाड़ दिये। वर्षा उन्हीं की प्रीति में आती थी। वे बचे नहीं तो बादल ठेंगा दिखा रहे हैं।

वृक्ष भी प्राणवान हैं

जल जीवन है। गीता में खूबसूरत यज्ञ चक्र है 'मनुष्य जीवन का आधार अन्न है। अन्न का आधार वर्षा है। वर्षा का आधार यज्ञ है और यज्ञ का मूल हमारे सत्कर्म हैं।' गीता का यज्ञ चक्र साधारण हवन या सामान्य कर्मकाण्ड नहीं है। प्रकृति के प्रति आत्मीय प्रीति को ही यज्ञ कहा गया है। वृक्ष वनस्पतियां भी हमारी तरह गहन जीवन से भरी-पूरी हैं। वे यज्ञ चक्र में भाग लेती हैं। वे पृथ्वी से जल रस लेती हैं। बड़ी होती हैं। जीवनरस लेने के बदले में छाया देती हैं, फल-फूल देती हैं और आक्सीजन उलीचती हैं। वे केवल लेती ही नहीं। जितना लेती हैं उससे ज्यादा देती हैं। वे जीवन से भरी-पूरी हैं। छान्दोग्य उपनिषद् (6.11) में बताते हैं 'हरेक वृक्ष में जीवन है। जिस अंश से जीवन निकल जाता है वह सूख जाता है- 'अस्य यदेकां शाखा जीवो हजात्थ साशुष्यति।' वृहदारण्यक उपनिषद् में तो वृक्ष को सीधे मनुष्य जैसा बताया गया है। बताया है कि जैसे मनुष्य को काटे या चोट पहुंचाने पर कष्ट होता है वैसा कष्ट वृक्षों को भी होता है। वृक्ष भी प्राणवान है सो प्राणी है। हम उन्हें काटते उजाड़ते हैं, वे व्यथा में होते हैं। पृथ्वी उनकी माता है, हम सबकी माता है। माता को ज्यादा कष्ट होता है। उसके पुत्र ही अपने सगे-सम्बन्धियों को उजाड़ रहे हैं। पृथ्वी असह्य पीड़ा में है और हम सब मस्त मदहोश हैं। आधुनिक सभ्यता की पश्चिमी हवाओं के झोकों में।

लोभी वृत्ति

वैदिक ऋषि सजग थे। पृथ्वी और वनस्पति तब देवता थे। माता और परिजन थे। इतिहास के मध्यकाल में पृथ्वी पर उत्पीड़न बढ़ा। तुलसीदास ने इस उत्पीड़न के प्राचीन संदर्भ लिये। अराजकता को उन्होंने रावणराज कहा है। ऐसे खूबसूरत प्रसंग का वर्णन करते हुए तुलसी ने गाया-

अतिशय देखि धर्म की ग्लानी

परम सभीत धरा अकुलानी।

धर्म का पराभव बढ़ा। पृथ्वी भयभीत हुई, अकुला गयी। (रामचरितमानस बालकाण्ड)। यहां  'धर्म की ग्लानि' का अर्थ हम सबकी प्रकृति विरोधी लोभी वृत्ति है। गीताकार ने भी धर्म की ग्लानि के शब्द प्रयोग किया है – 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।' तुलसीदास ने पृथ्वी की व्यथा का संवेदनशील रूपक गढ़ा है-

धेनु रूप धरि हृदय विचारी

गई जहां तहां सुर मुनि झारी।

 पृथ्वी ने गाय का रूप धारण किया। जा पहुंची देवों मुनियों के पास। आगे गाते हैं 'निज संताप सुनाएसि रोई' पृथ्वी ने फफकते, रोते हुए कष्ट बताया। देवता और पृथ्वी ब्रह्मा से मिले। ब्रह्मा ने आश्वासन दिया 'धरनि धरहि मन धीर'-हे पृथ्वी धीरज रखो। सबने परमतत्व की प्रार्थना की। आकाश से ध्वनि आई-सब कुछ ठीक होगा। कथा काव्य का भाग है लेकिन इसके तथ्य अनूठे हैं। पृथ्वी का कष्ट असह्य और पीड़ादायी है। कौन सुने उसकी पीड़ा। तब गाय रूप धारण करना परम सुरक्षित था। गाय अबध्य थी। अब गौएं भी मारी-काटी जा रही हैं।

प्रकृति का परिवार बड़ा है। इस अस्तित्व में सबका हिस्सा है। पृथ्वी, जल, वायु और आकाश सिर्फ मनुष्य के ही नहीं हैं। प्रकृति में वनस्पतियों और मनुष्येतर जीवों का भी भाग है। नदियां भी प्राणवान हैं। उन्हें भी जीवन का अधिकार है। इसी तरह हरेक वृक्ष का भी। पशु-पक्षी और कीट पतंग भी जीवन का अधिकार रखते हैं। सब जियें, सब बढ़ें, सबकी सन्तति प्रवाह बढ़े, सब आनंदमग्न रहें। सबके आनंद, सुख, स्वस्ति और कुशलमंगल में ही हमारे आनंद की गारंटी है। आनंदित पृथ्वी, आनंदमग्न बहती नदियां, आनंदित वनस्पतियां, गीत गाते पक्षी, खेलते रेंगते कीट पतंग आनंद का विराट वातायन रचते रहे हैं। तभी तो पहले का मनुष्य तमाम अभावों के बावजूद आनंदित था। लेकिन आधुनिक सभ्यता सब पर हमलावर है। सबका आनंद, सबको प्रसन्नता ही लोकमंगल का अधिष्ठान है। मार्कण्डेय ऋषि ने 'सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके' गाकर दुर्गा सप्तशती में यही याचना की है।

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