किसी कुंए में बहुत से मेंढक रहते थे। उनके दो दल थे। दोनों दलों के दो अलग-अलग मुखिया थे। दोनों दलों एवं मुखियाओं में बड़ा मेल था। कुछ दिन बाद उन दोनों दलों एवं दोनों दलों के मुखियाओं में किसी बात पर कहासुनी हो गई। यही कहासुनी बाद में धीरे-धीरे कटुता और फिर शत्रुता में बदल गई। उनकी अनबन का मुख्य कारण अपनी नेतागिरी चलाना था। दोनों पक्ष एक-दूसरे पर हावी होना चाहते थे।
एक दल का मुखिया गंगदत्त था। दूसरे दल का मुखिया भैरव था। दोनों मुखिया तेज थे। पर गंगदत्त ईर्ष्यालु था। वह अपने शत्रु पक्ष से बदला लेने तथा उन्हें नीचा दिखाने कुंए से निकल कर एक सांप के पास गया और बोला, 'मैं तुमसे दोस्ती करने आया हूं। मेरे अन्य बन्धु मुझे नीचा दिखाकर मेरा अपमान करना चाहते हैं। मैं तुम्हारी सहायता से उनसे बदला लेने की बात सोच रहा हूं। तुम मेरे साथ चलो। तुम्हारे भोजन की चिंता करना मेरी जिम्मेदारी है। मैं तुम्हें नित्य रुचिकर भोजन खाने को दूंगा।'
सांप बूढ़ा हो चला था। उसने सोचा, 'अच्छा प्रस्ताव है। बिना परिश्रम बैठे-बैठे भोजन मिलेगा, इसलिए अवसर हाथ से न खोते हुए, उसने हां कर दी।' वह गंगदत्त के साथ कुंए में आ गया। गंगदत्त मन ही मन खुश हो रहा था। वह सोच रहा था कि मैं शत्रुओं को मरवा कर खुद अपने दल के साथ चैन से स्वामी बन कर रहूंगा, बेचारे को क्या पता था कि यह सौदा उसे बड़ा ही महंगा पड़ेगा।
कुंए में एक बिल था। वह सांप उसी में रहने लगा। वह सांप गंगदत्त के कहे अनुसार भैरवदत्त के पक्ष के मेढकों को एक-एक कर चुन-चुन कर खाने लगा। सांप खुश था। एक दिन उसने भैरवदत्त का ही सफाया कर डाला। भैरवदत्त मोटा-ताजा था। सांप को मजा आ गया। कुछ ही दिनों में उसने शत्रु पक्ष के सभी मेंढक चट कर डाले। अब वह स्वतंत्र और स्वेच्छाचारी बन चुका था।
उसने एक दिन गंगदत्त से कहा, 'अब बताओ, मेरे खाने की क्या व्यवस्था है। तुम्हारे शत्रु पक्ष के मेंढक तो मैं खाकर समाप्त कर चुका। तुम मुझे भोजन देने का वचन देकर यहां इस कुंए में लाए हो। अत: मेरे भोजन का प्रबंध तो तुम्हीं को करना होगा।'
गंगदत्त बोला, 'भाई, अब तुम अपनी पहली वाली जगह पर चलो। मैं तुम्हें जिस काम के लिए लाया था वह तो पूरा हो गया। मैं तुम्हें तुम्हारी उसी जगह पहुंचा दूंगा। तुम तैयार हो जाओ।' पर सांप किसी भी प्रकार वहां से जाने को राजी न हुआ। उसे तो आंखों के सामने बड़ा ही स्वादिष्ट भोजन का भण्डार दिखाई दे रहा था।
सांप बोला, 'मैं अब वहां नहीं जाऊंगा। वहां अब कोई अन्य सांप आ गया होगा। वह मुझे नहीं रहने देगा। मैं यहीं सुख से हूं।' अंत में तय हुआ कि गंगदत्त उसे एक-एक मेंढक रोज खाने को देगा। अब गंगदत्त रोने और पछताने लगा। उसे अपनी भूल समझ में आ गई। वह कहने लगा, 'मैंने शत्रु को बुलाकर अच्छा नहीं किया। मैंने अपना सर्वनाश स्वयं कर डाला।'
अब धीरे-धीरे गंगदत्त के परिजनों की संख्या एक-एक करके कम होने लगी। गंगदत्त मन-ही-मन सोचने लगा कि कांटे से कांटा निकालने की नीति ने मेरा ही विनाश कर डाला। वह समझ गया कि जो कोई अपने से अधिक बलवान शत्रु से दोस्ती करता है, उसकी सच में यही दुर्दशा होती है। उसके प्रिय संबंधी भी मारे जाने लगे।
एक दिन उस सांप ने गंगदत्त के बड़े बेटे यमुनादत्त को उसी की आंखों के सामने मारकर खा डाला। बेचारा गंगदत्त रो पड़ा। वह खून का घूंट पीकर रह गया। गंगदत्त को दु:खी देखकर उसकी पत्नी कहने लगी, 'अब क्यों रोते हो! तुमने ही तुच्छ पद और झूठी शान के लिए स्वार्थवश अपने जातीय बन्धुओं का नाश करवाया है। अब तुम स्वयं भी इसी प्रकार नष्ट हो जाओगे।'
अगले दिन उस सांप ने गंगदत्त के देखते ही देखते उसकी पत्नी को मार डाला और खा लिया। कुछ दिन बाद सारे के सारे मेंढक समाप्त हो गए केवल गंगदत्त ही बाकी बचा। तब सांप बोला, दोस्त, मैंने कुंए के मेंढक सब खा लिए हैं। अब तू जल्दी ही अन्यत्र मेरे खाने का प्रबंध कर। मैं मित्र होने के कारण तुझे नहीं खाऊंगा।'
गंगदत्त रातभर अकेला बैठा रोता रहा। उसे अंत में एक युक्ति सूझी। उसने प्रात: सांप से कहा, 'मुझे दो दिन का समय दो। मैं बाहर जाकर अन्य मेंढकों को यहां इस कुंए में बुला लाता हूं। फिर तुम उन्हें आनन्द से खाते रहना।' सांप खुशी से भर उठा। गंगदत्त बाहर निकल आया। सांप उसकी प्रतीक्षा ही करता रहा। सच है- 'आपस में वैर अच्छा नहीं होता।'
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