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Aug 20, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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सन्त, सेनानी और साहित्यकार गुरु गोवन्दसिंह जी

दिंनाक: 20 Aug 2012 11:41:24

साहित्यिकी

सन्त, सेनानी और हित्यकार

गुरु गोवन्दसिंह जी

सर्वप्रथम प्रस्तुत है रा.स्व.संघ के निर्वतमान सरसंघचालक श्री कुप.सी. सुदर्शन की एक सुविचारित टिप्पणी, जो सिख पंथ के दशम् गुरु के युगान्तरकारी व्यक्तित्व को निरूपित करती है- 'भारतीय संस्कृति और राष्ट्र-चेतना के विकास क्रम में सत्य, न्याय, निर्भीकता, दृढ़ता, त्याग एवं साहस की प्रतिमूर्ति दशमेश गुरु गोविन्द सिंह के नाम का उल्लेख भारत के उन शलाका पुरुषों में किया जाता है जिन्होंने आतताइयों और अन्यायियों के कदाचार, अनीति और अन्याय के प्रति  लड़ने का बीड़ा उठाया। उन्होंने खालसा पंथ की सर्जना कर भारत में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना का अभियान चलाया तथा भारत की निरीह, आत्मबल एवं आत्मविश्वास विहीन जनता में शोषण, अधर्म और उत्पीड़न के विरुद्ध लड़ने के लिये प्राण ही नहीं फूंके बल्कि वर्ण-एकता, सर्वपंथ समभाव, निरालस्य, कर्मण्यता, आन्तरिक साहस, सतत् संघर्ष आदि मूल्यों को जागृत कर भारतीय समाज को सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता का महामन्त्र दिया। वे परम्पराओं के संरक्षक, सम्वर्धक, निष्ठावान धर्म प्रवर्त्तक, सामाजिक न्याय के संस्थापक, मानवतावादी लोकनायक और राष्ट्रनायक के रूप में युग-युगों तक विश्व-इतिहास में प्रतिष्ठित रहेंगे।'

उक्त टिप्पणी श्री सुदर्शन जी ने प्रातिभ रचनाकार श्री जीत सिंह 'जीत' की सद्य: प्रकाशित पुस्तक 'गुरु गोविन्द सिंह के काव्य में संस्कृति और राष्ट्रीयता' (प्रकाशक – अनिल प्रकाशन, 2619, न्यू मार्केट, नई सड़क, दिल्ली – 110006, मूल्य – 200 रु.) के प्रारम्भिक पृष्ठों में 'शुभाशंसा' के अन्तर्गत की है, और फिर कृति के लेखक को हार्दिक साधुवाद दिया है। गुरु गोविन्द सिंह के बहु आयामी व्यक्तित्व का विवेचन करने वाली यह शोधपूर्ण संरचना साहित्यानुरागियों के लिये एक अनुपम भेंट है। चार अध्यायों में समाहित इस पुस्तक के सभी अध्यायों के शीर्षक क्रमानुसार  इस प्रकार हैं – गुरु गोविन्द सिंह – बहु आयामी युग-परिवेश (जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व), संस्कृति-प्रमुख उपकरण, संस्कार, पर्वोत्सव एवं ललित कलाएं तथा गुरु गोविन्द सिंह – राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य। लेखकीय प्राक्कथन है कि राष्ट्र गौरव गुरु गोविन्द सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व के विविध आयाम यद्यपि विभिन्न कृतियों के माध्यम से पर्याप्त विवेचित और चर्चित हैं, तथापि समकालीन प्रासंगिकता के सन्दर्भ में उनके समग्र सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय अवदान का मूल्यांकन अभी तक अपेक्षित था। इसी दृष्टि से दशम गुरु के महान व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालने के लिये लेखक को कलम    उठानी पड़ी।

प्रस्तुत लघु परिचयात्मक टिप्पणी में साहित्य-सृष्टा गुरु गोविन्द सिंह जी के काव्य का एक उद्धरण देने से पूर्व यह कहना समीचीन होगा कि जिस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी ने संस्कृत में सन्निहित श्रीरामकथा को 'श्रीरामचरितमानस' के माध्यम से लोकभाषा में उपलब्ध कराया, उसी प्रकार का महत कार्य दशम गुरु ने भी अपने ढंग से सम्पन्न किया। वह स्वयं कवि होने के अतिरिक्त कविता और कवियों के संरक्षक भी थे और आनन्दपुर साहिब में उन्हें अक्सर आमंत्रित करते थे। उन्होंने राष्ट्रीय चेतना जगाने में समर्थ विराट् पौराणिक साहित्य और संस्कृत के नीति काव्य का लोकभाषाओं में अनुवाद करने की प्रेरणा दी और स्वयं भी इस हेतु सचेष्ट हुए। 'दुर्गा सप्तशती' से अनुप्राणित 'चण्डी चरित्र' इस स्वरूप एवं भाव का साक्ष्य देता है। अशुुभ के विध्वंस पर हर आस्तिक के हृदय से उठने वाली कृतज्ञतापूर्ण जय ध्वनि को गुरु जी ने इस प्रकार शब्दायित किया है-

देहिं असीस सबै सुरनारि, सुधारि के आरती दीप जगायो,

फूल सुगन्ध सुअच्छत दच्छन, अच्छन जीत को गीत सुनायो।

धूप जगाइ कै संख बजाइ कै, सीस नवाइ कै बैन सुनायो,

जै जगमाई सदा सुखदाई, तै सुंभ को धाइ बड़ा जसु पायो।।

विश्रुत विद्वान् जीत सिंह जीत अपनी पुस्तक को विराम-बिन्दु देते समय सन् 1897 ई. में स्वामी विवेकानन्द द्वारा लाहौर में दिये गये भाषण का एक अंश उद्धृत करते हैं – यदि तुम्हें अपने देश का भला करना है तो तुम में से प्रत्येक को गुरु गोविन्द सिंह बनना होगा। तुम्हें अपने देशवासियों में भले ही हज़ारों दोष नज़र आयें, पर हिन्दू रक्त को पहचानो, जिन्हें तुमको पूजना होगा……शक्ति पुंज सिंह सदृश गुरु गोविन्द सिंह की तरह शान्ति से मरण का वरण करो। ऐसा ही व्यक्ति हिन्दू नाम का  अधिकारी है।

स्वामी जी की यह दृष्टि हमें गुरु गोविन्द सिंह के प्रति समर्पित होने की प्रेरणा दे, इसी आकांक्षा के साथ हिन्दी साहित्य जगत् को एक अभिनव उपहार देने वाले जीत जी के राष्ट्रवादी विचार-संस्कार का पुन: पुन: वन्दन, अभिनन्दन।

अभिव्यक्ति मुद्राएं

अपनों से जो जख्म मिले, बार–बार मत उनको गिन।

दुनिया है दुनिया का क्या, इतना भी मत सोच 'विपिन'।

– विपिन जैन

इस जगत में आज फिर अवतार होना चाहिये,

तुम प्रकट होकर दिखाओ या कथाएं छीन लो।

– डा. तारा गुप्ता

दिये बनकर जो तूफानों में जलना सीख जाते हैं,

वे हर हालत में मुश्किल से निकलना सीख जाते हैं।

जहां बचपन में छिन जाता है साया मां के आंचल का,

वे बच्चे धूप की गर्मी में भी पलना सीख जाते हैं।

– तूलिका सेठ

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