कांग्रेस को अपनेसांचे में नहीं ढाल पाए
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कांग्रेस को अपने
सांचे में नहीं ढाल पाए
देवेन्द्र स्वरूप
जुलाई, 1933 में पूना सम्मेलन में गांधी जी यह देखकर स्तब्ध रह गये कि कांग्रेसजन अब न तो जेल जाने को तैयार हैं और नही रचनात्मक कार्यक्रम में जुटने के लिए। उनके मन अब केवल चुनाव लड़कर विधान परिषदों में जाने को व्याकुल हैं। गांधी जी दु:खी थे कि कांग्रेस को लकवा मार गया है और उसकी मूर्छित चेतना को वापस लाने के लिए उसे 'काउंसिल प्रवेश' का इंजेक्शन देना आवश्यक हो गया है। जब वे इस मन:स्थिति से गुजर रहे थे तभी अगस्त में उनका उदारवादी नेता वी.एस.श्रीनिवास शास्त्री के साथ पत्राचार हुआ, जिसमें शास्त्री जी ने उन्हें कांग्रेस को अपनी तानाशाही से मुक्त करने की सलाह दी और गांधी जी ने इस सलाह पर गंभीरता से विचार करने व उपयुक्त समय आने पर कांग्रेस को मुक्त करने का वचन दिया। यद्यपि गांधी जी के बाद के पत्रों एवं वक्तव्यों में इस महत्वपूर्ण पत्राचार का कहीं कोई उल्लेख नहीं है, किंतु यह सत्य है कि शास्त्री जी का यह सुझाव गांधी जी के मन में गहरा बैठ गया था और उन्होंने उस दिशा में प्रयास प्रारंभ कर दिया था।
संघर्ष नहीं, सत्ता की चाह
पहला कदम उन्होंने उठाया मूर्छित कांग्रेस की चेतना को वापस लाने के लिए उसे 'काउंसिल प्रवेश' के मार्ग पर बढ़ाना। इसके लिए एक ओर तो उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन को सामूहिक के स्थान पर व्यक्तिगत रूप दिया। फिर उसे छह सप्ताह के लिए स्थगित किया और अंतत: पटना से एक वक्तव्य देकर वापस ले लिया। दूसरे कदम के रूप में उन्होंने आसफ अली, सत्यमूर्ति एवं रंगास्वामी अयंगर आदि से कहा कि यदि वे काउंसिल प्रवेश के लिए उत्सुक हैं तो उन्हें उस दिशा में प्रयास करना चाहिए और ऐसे कांग्रेसजनों का मंच तैयार करना चाहिए। 8 जनवरी, 1934 को गांधी जी ने क.मा.मुंशी को पत्र लिखा कि, 'काउंसिल प्रवेश के लिए किसी दल के गठन में मुझे कोई हानि नहीं दिखायी देती। नि:संदेह सविनय अवज्ञा आंदोलन में भ्रष्टाचार प्रवेश कर गया है किंतु उसका हमें उल्लेख भी नहीं करना चाहिए क्योंकि हमारे विरोधी इसका लाभ उठाने से नहीं चूकेंगे।' गांधी जी की हरी झंडी पाकर कांग्रेस अध्यक्ष डा.एम.ए.अंसारी भी सक्रिय हो गये। उन्होंने 5 अप्रैल, 1934 के हिन्दुस्तान टाइम्स में गांधी जी का अपने नाम पत्र छपवा दिया, जिसमें गांधी जी ने लिखा था, 'मेरा दृढ़ मत है कि बुद्धिजीवी वर्ग की मूछर्ा को दूर करना ही चाहिए। अत: 'काउंसिल प्रवेश' कार्यक्रम से मैं चाहे जितना भी असहमत होऊं, मैं इस कार्यक्रम को अपनाने वाले कांग्रेसजनों के दल का स्वागत करूंगा, बजाय इसके कि वे मुरझाये, अंसतुष्ट और पूरी तरह निष्क्रिय पड़ें रहें।' 9 अप्रैल को उन्होंने क.मा. मुंशी को पत्र लिखा कि वे फिलहाल इस समय कांग्रेस को बचाने के लिए 'काउंसिल प्रवेश' कार्यक्रम पर निर्भर कर रहे हैं। मार्च, 1934 में दिल्ली में डा.अंसारी के घर पर एक अनौपचारिक बैठक में आगामी चुनाव लड़ने के लिए स्वराज पार्टी के पुनरुज्जीवन का निर्णय हो गया और उसका पहला सम्मेलन 30 अप्रैल से 4 मई तक रांची में बुलाया गया। भूला भाई देसाई को महासचिव बनाया गया। 4 मई को रांची में ही भूला भाई ने पहली बार संविधान सभा बनाने की मांग उठायी।
'काउंसिल प्रवेश' कार्यक्रम को गांधी जी का खुला समर्थन मिलने के कारण नरीमन जैसे कांग्रेसजनों के नेतृत्व में उभरे विरोध के स्वर भी ठंडे पड़ गये। अभी तक तो इस कार्यक्रम को क्रियान्वित करने के लिए स्वराज पार्टी को खड़ा करने की बात चल रही थी, किंतु गांधी जी का मस्तिष्क अब पूरी तरह कांग्रेस पार्टी को ही चुनाव पार्टी का रूप देने की सोचने लगा था। 6 अप्रैल को गांधी जी ने डा.अंसारी को पत्र लिखा था कि 'मुझे स्वराज पार्टी के पुनरूज्जीवन का स्वागत करने में कोई झिझक नहीं है, यद्यपि विधान मंडलों के वर्तमान रूप की उपयोगिता के बारे में मेरे विचार वही हैं जो 1920 में थे।' इस कालखंड में गांधी-मुंशी पत्राचार कांग्रेस के आंतरिक पतन पर व्यापक प्रकाश डालता है।
गांधीजी की निराशा
11 अप्रैल्, 1934 के पत्र में मुंशी जी गांधी जी को लिखते हैं, 'क्या आप अपने दुर्बलमना अनुयायियों से उसी आध्यात्मिक शक्ति की अपेक्षा करते हैं जो आपके अंदर है, तो वे बेचारे उसे कहां से लायें? वर्तमान स्थिति के कारण आपने संवैधानिक गतिविधि का मार्ग अनिच्छा से अपनाया है।' मुंशी ने आगे लिखा कि संसार के लोकतंत्रों में राजनीतिक दलों का पतन हो रहा है। क्या आप उन्हें कोई आदर्श दे सकते हैं? 16 अप्रैल को गांधी जी ने उत्तर दिया 'विधान मंडलों के प्रवेश के जो खतरे तुम देख रहे हो, वही मैं भी देख रहा हूं। मुझे कुछ और भी डर लग रहा है।'
स्पष्ट है कि कांग्रेस के मूर्छित प्राणों में चेतना संचार के लिए गांधी जी ने 'काउंसिल प्रवेश' कार्यक्रम को आपातकालीन उपाय के रूप में अपनाया था। किंतु गांधी जी की इससे बड़ी चिंता यह थी कि जिस कांग्रेस संगठन को उन्होंने हिन्द स्वराज में वर्णित सभ्यतामूलक समाज पर नमूना खड़ा करने के लिए 1920 से सत्य, अहिंसा और स्वदेशी के अधिष्ठान पर खड़ा करने की 14 वर्ष तक कठोर साधना की थी, उसे दो दो सत्याग्रहों की अग्नि परीक्षा से गुजारा था, रचनात्मक कार्यक्रम की भट्टी में तपाया था, वह 14 वर्ष बाद भी अंदर से खोखला सिद्ध हुआ था। उसमें सत्ता का लोभ, गुटबंदी और भ्रष्टाचार व्याप्त था।
कांग्रेस के आंतरिक पतन का पर्दाफाश 12 जून, 1934 को तब हुआ जब कांग्रेस कार्य समिति ने अगस्त, 1934 तक कांग्रेस की सब इकाइयों के चुनाव सम्पन्न कराने का आदेश दिया। पिछले चार वर्ष तक सरकारी प्रतिबंध के कारण कांग्रेस संगठन पूरी तरह बिखर चुका था। अब दो मास की अल्पावधि में संगठन के चुनाव कराने की हड़बड़ी में अनेक स्थानों पर सत्ताकांक्षी कांग्रेसजनों ने अपनी जेब से पैसा खर्च कर नकली (बोगस) सदस्य बनाये, इन नकली सदस्यों को खद्दर के कपड़े पहनाकर खड़ा किया, क्योंकि कांग्रेस संविधान के अनुसार खद्दरधारी व्यक्ति ही कांग्रेस का सदस्य बन सकता था। स्थिति इतनी खराब थी कि जुलाई के अंत में कार्य समिति ने अपने एक प्रस्ताव में यह सब उल्लेख किया। गांधी जी ने भी सात दिन का आत्मशुद्धि उपवास आरंभ करने के एक दिन पूर्व 6 अगस्त को एक वक्तव्य जारी करके कांग्रेसजनों के इस पतन पर घोर चिंता प्रगट की। 6 सितम्बर, 1934 को क.मा.मुंशी ने सरदार पटेल के हाथों गांधी जी को पत्र भेजा कि कांग्रेस में सत्ता के लिए जो छल-फरेब, गंदगी और झगड़े हो रहे हैं उन्हें देखकर मेरे जैसा व्यक्ति भी लम्बे समय से यह सोचता रहा है कि इस स्थिति को बर्दाश्त क्यों किया जा रहा है। साफ-साफ कहूं तो बम्बई में इस समय मैं षड्यंत्रों की जिस राजनीति को देख रहा हूं यदि उसी से स्वराज्य मिलता है तो ऐसे स्वराज्य को लेकर हम क्या करेंगे? मुंशी ने आगे लिखा कि कांग्रेस के समूचे ढांचे को घुन लग गया है और इसे आमूल चूल बदले बिना कुछ भला नहीं होगा। आपका सर्वोच्च नेतृत्व न रहा तो कांग्रेस की भयंकर दुर्गति होगी। रोगी को मरने के पहले आप ही बचा सकते हैं।
कांग्रेस छोड़ने की तैयारी
समाजवादी नेता मधु लिमये ने अपनी पुस्तक 'महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू' के दूसरे खंड में इस काल का वर्णन करते हुए लिखा है कि 'भारतीय समाज की भीरू और उदासीन प्रवृत्ति से वे बहुत चिंतित रहते थे। उन्होंने पूरा जीवन पिलपिले समाज में वीर भाव भरने में लगा दिया, पर वे भी इस समाज को नहीं बदल पाये। कांग्रेस का उस समय का चरित्र गांधी का नहीं, हमारे समाजजीवन का प्रतिबिम्ब था। धीरे-धीरे गांधी जी इस निष्कर्ष पर पहुंच गये कि कांग्रेस को एक सामान्य राजनीतिक दल के समान संवैधानिक राजनीति के रास्ते पर बढ़ाने की स्थिति पैदा करके वे अब कांग्रेस से अलग होकर अपने लिए नई भूमिका खोज सकते हैं।
शास्त्री जी का एक वर्ष पुराना पत्र उनके मन में हर समय घूमता रहता था, यद्यपि वे उसकी चर्चा दूसरों से नहीं करते थे। अपनी नौ मास लम्बा देशव्यापी 'हरिजन यात्रा' पूरी कर गांधी जी 5 अगस्त, 1934 को वर्धा वापस लौटे। 7 से 14 अगस्त तक उन्होंने आत्मशुद्धि उपवास रखा और कांग्रेस से अलग होने की दिशा में भूमिका तैयार करना शुरू कर दिया। इस बारे में पहला पत्र उन्होंने मीरा बहन को लिखा कि, 'इस समय मेरे मन में अनेक परिवर्तन घुमड़ रहे हैं। कांग्रेस में व्याप्त भ्रष्टाचार इस कदर पीड़ा दे रहा है जैसा पहले कभी नहीं हुआ। मैं मित्रों से कांग्रेस छोड़ने के बारे में सलाह कर रहा हूं और उसके बाहर रहकर आदर्शों की साधना करूंगा। यह अच्छा हुआ कि भ्रष्टाचार मुझे उद्वेलित कर रहा है।' उन्हीं दिनों गांधी जी की जानकारी में आश्रम में घटित झूठ-फरेब और ब्रह्मचर्य के उल्लंघन के प्रसंग भी आये। 19 अगस्त को गांधी जी ने सरदार पटेल को पत्र लिखा कि, 'तुम्हारी अनुमति के बिना मैं कांग्रेस कैसे छोड़ सकता हूं, किंतु व्यक्तिश: मुझे लगता है कि इसके सिवा दूसरा रास्ता नहीं है। मैं कांग्रेस के विकास में बाधक बना हुआ हूं। सामान्य कांग्रेसजन के लिए सत्य और असत्य, हिंसा और अहिंसा, खादी और मलमल में कोई अंतर नहीं रह गया है। उसे अपने ढंग से रहने देना चाहिए, पर वह मेरे रहते संभव नहीं हो पायेगा।…'
आत्ममंथन के इस दौर में गांधी जी ने परामर्श के लिए राजगोपालाचारी को 26/27 अगस्त को वर्धा बुलाया। सितम्बर के पहले सप्ताह में उन्होंने एक प्रेस वक्तव्य की रूपरेखा भी तैयार की और यह मसौदा सरदार पटेल की प्रतिक्रिया पाने के लिए भेज दिया। अभी तक गांधी जी इस बारे में सब विचार-विमर्श गोपनीय ढंग से चला रहे थे। पर मद्रास के दैनिक हिन्दू को कहीं से इसकी भनक लग गयी और उसने एक कहानी बनाकर छाप दी, जिसमें गांधी जी के कांग्रेस से अलग होने का कारण मालवीय जी एवं एम.एस.अणे से 'साम्प्रदायिक निर्णय' पर मतभेद को बताया गया। 9-10 सितम्बर को वर्धा में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई। उसमें गांधी जी के कांग्रेस से अलग होने के प्रश्न पर चर्चा हुई । गांधी जी ने विस्तार से अपने निर्णय के कारणों पर प्रकाश डाला। ये कारण थे- कांग्रेसजनों का अहिंसा में अविश्वास, सूत कातने और खद्दर पहनने के प्रति वितृष्णा, साध्य-साधन विवेक का अभाव, संसदीय गतिविधि, समाजवादी गुट का गठन, हरिजन समस्या की उपेक्षा आदि-आदि। उन्होंने कांग्रेस के संविधान में भारी परिवर्तन भी सुझाये। 17 सितम्बर को गांधी जी ने इस विषय पर एक लम्बा प्रेस वक्तव्य जारी किया।
अंतत: कांग्रेस से अलग हो गए
कार्यसमिति के बहुत मनाने पर भी जब गांधी जी अपने निर्णय पर अड़े रहे तो कार्यसमिति ने उनसे प्रार्थना की कि वे 22-23 अक्तूबर को बम्बई में डा.राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में होने वाले अधिवेशन के बाद ही कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से त्यागपत्र दें। गांधी जी ने यह अनुरोध मान लिया। 23 अक्तूबर को कांग्रेस की विषय समिति में गांधी जी के त्यागपत्र का विषय उठा। गांधी जी ने कहा कि 'मैं कांग्रेस को छोड़कर वह वजन हटा रहा हूं जो अब तक इसे दबाये हुए था। इससे कांग्रेस के विकास का रास्ता साफ होगा।' क्या गांधी जी उसी भाषा का प्रयोग नहीं कर रहे हैं जो श्रीनिवास शास्त्री ने सवा साल पहले 11 अगस्त, 1933 के पत्र में लिखी थी। त्यागपत्र के गांधी जी के आग्रह को मानकर भी विषय समिति ने कांग्रेस संविधान हेतु सुझाये गये गांधी जी के संशोधनों को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया। अधिवेशन समाप्त होते ही 30 अक्तूबर को गांधी जी ने कांग्रेस अध्यक्ष डा.राजेन्द्र प्रसाद को अ.भा.कांग्रेस महासमिति से अपना त्यागपत्र भेज दिया और गुजरात प्रदेश कांग्रेस को प्राथमिक सदस्यता से भी।
गांधी जी अंतिम श्वास तक कांग्रेस के मार्गदर्शक की भूमिका निभाते रहे। हिन्दू समाज पर उनकी पकड़ अंत तक बनी रही, जैसा कि 1937 के चुनाव परिणामों से स्पष्ट हो गया। वस्तुत: श्रीनिवास शास्त्री ने 1932 में ही सात हिन्दू प्रांतों और चार मुस्लिम प्रांतों की भविष्यवाणी कर दी थी। कांग्रेस छोड़ने के बाद कांग्रेस पर गांधी जी का प्रभाव पहले से अधिक बढ़ गया। यह वे भी जानते थे, जैसा कि 12 अक्तूबर, 1934 को मीरा बहन के नाम उनके पत्र से स्पष्ट है। इस पत्र में गांधी जी लिखते हैं, 'मेरा मन कांग्रेस से निकल जाने पर तुला हुआ है। मुझे पूरा यकीन है इससे कांग्रेस का और मेरा दोनों का भला होगा। बाहर जाकर मैं कांग्रेस पर अधिक अच्छा प्रभाव डाल सकूंगा। अभी मैं जो भार बना हुआ हूं, सो नहीं रहूंगा। फिर भी जब-जब जरूरत होगी अपने विचार कांग्रेस को देता रहूंगा।'
गांधी जी के त्यागपत्र का यह प्रकरण हमारे लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे पता चलता है कि गांधी जी जैसा आध्यात्मिक शक्तिपुंज भी कांग्रेस को अपने आदर्शों के सांचे में नहीं ढाल पाया। यह गांधी जी की नहीं, हमारे समाज की असफलता है। गांधी जी की आलोचना या उनकी असफलताओं का विवेचन करते समय हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दू समाज गांधी जी से अधिक प्रभावी कोई दूसरा नेता नहीं खोज पाया, द्वितीय गोलमेज सम्मेलन से लौटने के बाद डा.मुंजे ने भी गांधी जी को ही 'शताब्दी पुरुष' कहा था। स्वतंत्रता के 65 वर्ष बाद हमारी राजनीति और समाज का चरित्र 1934 से कहीं ज्यादा गिरा हुआ है। कथनी और करनी में भेद बहुत बढ़ गया है। यह प्रकरण हमें समाज के नाते आत्मालोचन को बाध्य करता है। (समाप्त)
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