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Jul 28, 2012, 12:00 am IST
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काकी के आंगन की पोतियां

दिंनाक: 28 Jul 2012 18:47:27

 के आंगन

 की पोतियां

मृदुला सिन्हा

काकी का बड़ा आंगन था। चौफेर घर। आठ कोठरियां। चौड़े-चौड़े ओसारे। उस आंगन में सात बहुएं थीं। एक अवधि थी, जब हर वर्ष एक या दो बहुएं बच्चा जनतीं। साल में एक पोती अवश्य आ जाती। काकी पोती के जन्म पर झंखती-'लक्ष्मी आई है।' उनका स्वर सुनकर तो ऐसा ही लगता कि वे पोती जन्म पर दु:खी होती थीं, पर ऐसा उनके व्यवहार से नहीं दिखता। वे सुबह से लेकर रात्रि के शयन पट पर जाने तक पोतियों से घिरी रहतीं। रात्रि को एक दो पोतियां उनसे चिपक कर सोने की कोशिश करतीं। शाम से ही कई पोती पोते उनकी खटिया पर कहानी सुनने के लोभ में इकट्ठे हो जाते। एक दो कहानियां सुनते-सुनते एक दो बच्चे भी वहीं नींद में सपने देखने लगते। काकी बहुओं को आवाज लगातीं-'ले जा अपने बच्चे।'

दो तीन पोतियां रह हीं जातीं। काकी से चिपक कर सोतीं। सुबह होकर काकी आंगन में अपनी खाट पर  बैठी विसूरती-'रातभर पैर मार-मार कर मेरी हड्डियां तोड़ दी तुम्हारी बेटियां ने।'

उन बहुओं को मालूम था कि दिन में दो बार काकी को शरीर की मालिश कराने की आदत थीं। कहीं मेला-ठेला जाना हो, गांव के शादी ब्याह में या नई बहू देखने, काकी अकेली नहीं चलती थीं। दो-तीन या कभी-कभी चार – पांच पोतियों के साथ जातीं। लोगों के पूछने पर कहतीं-हां हां! ये सब मेरी ही पोतियां हैं। मेरे घर की तिजोरी में रखे रुपए में काई लग रही है। तभी तो पूरा टिड्डी दल उतर आई हैं।'

उनकी एक हमउम्र महिला ने स्मरण दिलाया- 'आपके आंगन में छ: पोते हो गए थे। आपने ही तो पोती के लिए मनौती मांगी थी। याद ना है?'

'हां, हां याद है न! तभी तो कहूं- 'सूरती–मूरती दैव के देल, एक मांगी सात भेल'। ये पोतियां देव की ही दी हुईं हैं। एक मांगी थी, अब तो सात-सात हो गईं। अभी आगे भी होंगी। काकी के साथ रह-रहकर बात समझ में आई थी कि उन्हें पोतियां चाहिए भी थीं और नहीं भी। वे पोतियों को प्यार भी बहुत करती थीं और उनके लिए चिंतित भी रहतीं। हमें हमेशा हिदायतें देतीं-'इधर मत जा, उधर मत जा। ऐसे उठ, वैसे बैठ, कपड़े ठीक से पहन। आंचल ठीक से रख।' पूछिए मत। हमलोग काकी से शिकायत करतीं-'काकी आप पोतों को तो कुछ नहीं कहतीं, हमारे पीछे क्यों पड़ी रहती हैं। काकी कहतीं-'सुन, एक कहावत है-' घी के लड्डू टेढ़ों भली।'

'क्या मतलब! पोते घी के लड्डू हैं, और पोतियां तेल के?' हम एक साथ प्रश्न करतीं काकी पकड़ी जातीं। वे मजाक में कहतीं-'तेल में लड्डू तो बंधता ही नहीं।' और स्वयं हंसने लगतीं। हम नाराज हो जातीं। फिर वे हमें बहलाने फुसलाने के लिए बहुत कुछ करतीं। एक दिन हमने कहा-'आप हमें प्यार तो करतीं हैं, पर पोता-पोती में भेदभाव भी खूब करतीं है।

काकी गंभीर हो गई। थोड़ी देर चुप रहीं। मानो शब्द साध कर बोलीं- 'बेटा-बेटी में भेदभाव तो भगवान ने ही कर दिया है। अब देखो न, लड़का किसी लड़की के साथ कुछ भी करे उसका कुछ नहीं बिगड़ता। लड़की स्वतंत्र नहीं है। वह इधर-उधर करे तो मां बन जाए। अब सोचो, लड़की को तो अधिक डांट पड़ेगी न। तुम लोग समझते हो कि हम बेटा बेटी में भेदभाव करते हैं। ऐसा नहीं है। बेटी का जीवन बड़ा कठिन होता है। हमें तुम लोगों को देखकर दया भी आती है। तुम्हारा जीवन लड़कों से अधिक कठिन होगा। पता नहीं कैसा घर और वर मिले। ससुराल वाले तुम्हें प्यार करें न करें। पति मान करे न करे। इन  सब बातों की चिंता रहतीं है, बस!

बेटियों के प्रति काकी के खट्टे मीठे भावों में हम डूबते उतराते रहते थे। विवाह के बाद हमारी विदाई के समय काकी खूब रोतीं। नये दामाद के कानों में कहना नहीं भूलतीं-'लक्ष्मी है लक्ष्मी मेरी पोती। अपने घर में इसकी इज्जत करोगे तो धनधान्य से भरे रहोगे। घर में खुशियां आएंगीं।'

विदा हो रही पोती के कानों में कहतीं-' सास ननद की सेवा करना। बेटी हो तो मत घबराना। बेटी तो लक्ष्मी होती है। अंत में कहती- 'दूधों नहाओ, पूतों फलो।'

काकी के संग साथ रहकर बेटी के प्रति मन में विरोध भाव नहीं बना था। बेटी का जीवन कठिन है, यह भी एहसास हो गया था। इसलिए अपने घर में बेटी जन्म पर दु:ख नहीं हुआ। बेटा भी चाहिए , पर बेटी नहीं चाहिए, ऐसा नहीं सोचा। समाज में बेटियों के प्रति विरोधी वातावरण की जानकारी मिलने पर मैंने बच्चे के जन्म पर होने वाले भेदभाव का पता लगाया। भेद की गांठें ही हाथ लगीं। बिहार में बेटी के जन्म पर बधावा नहीं गाया जाता। बच्चे के जन्म पर गाए जाने वाले सोहरों में बेटी की चर्चा नहीं है। मिथिला (सीता) की धरती पर बेटियां जन्मती ही नहीं। उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में बेटी के जन्म पर थाली नहीं बजाई जाती। महाराष्ट्र में बेटा जन्म पर लड्डू और बेटी जन्म पर पेड़ा बंटता है। दक्षिण के रस्म में भी अंतर है। 15 वर्ष पूर्व मैंने संस्थाओं को कन्या जन्मोत्सव मनाने का कार्यक्रम दिया था। बेटी के जन्म पर भी बधावा गाने का आवाह्न किया था-

'खिलाओ भाभी हलुआ, बेटी हुई है

पहनाओ भाभी कंगना बेटी हुई है।'

बेटा-बेटी के बीच भेद मिटाने के लिए शुरुआत तो उनके जन्म के समय के रस्मों में भेद मिटाकर ही करना होगा। बेटियों की सुरक्षा के सख्त उपाय भी करने होंगे। दहेज समाप्त करना होगा। बहुओं का सम्मान करना होगा, बेटियों को दुलार। फिर तो बेटी बोझ नहीं रहेगी। आश्चर्य तो यह है कि बेटी के प्रति यह भाव मेरी काकी ने मेरे अंदर डाला था, जिन्हें हम बदनाम करते हैं। आज काकी होतीं तो कहतीं- 'बेटी के लिए समाज में सुरक्षा का वातावरण बनाओ, फिर बेटी पैदा करो।' बेटियां तो विशेष हैं। इसलिए बेटी के लिए विशेष शिक्षा, विशेष स्वास्थ्य, सुविधाएं, विशेष सुरक्षा और रोजगार की विशेष स्थितियां निर्मित करनी हैं। तभी बेटियां जन्मेंगीं, बढ़ेंगीं, जननियां बनेंगीं। बेटियों को स्नेह-दुलार और सुरक्षा घर से ही प्रारंभ करेंगे। फिर बाहर भी सुरक्षा चाहिए। काकी कहतीं थीं-'बेटी तो गांव की बेटी होती है, इसलिए गांव वालों का काम है उसकी सुरक्षा करना।'

देश भी तो गांव ही है। देश के कोने कोने में बेटियों की सुरक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए- 'देश की बेटी, सबकी बेटी' ऐसा माहौल बनना चाहिए, जिससे कि किसी कोने में एक भी बेटी के साथ दुष्कर्म न हो। देश का सिर शर्म से न झुके। काकी तो इसी स्थिति के लिए चिंतित रहती थीं। काकी और आज के जमाने में बहुत अंतर नहीं आया है। बेटी-बेटा के बीच भेद रेखाएं पूर्णरूपेण नहीं मिटी हैं।

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