लोकरंग में रंगा सावन
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लोकरंग में रंगा सावन

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Jun 30, 2012, 12:00 am IST
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सरोकार

दिंनाक: 30 Jun 2012 14:26:59

सरोकार

मृदुला सिन्हा

'सावन पछुआ, भादव पूरबा, आश्विन बहे इशान

कार्तिक कंता शीश न डोले,

कहां के रखवा धान'

सावन (4 जुलाई से प्रारंभ) का इंतजार तो सबको है। किसान को, बहन को, शिव के भक्त को। चार सोमवार आएंगे। सोमवार शिव का दिन है। नदियों से जल भरकर कांवड़ों में ले जाकर शिव पर चढ़ाया जाएगा। लाखों कांवड़िए देश भर के विभिन्न शिव मंदिरों में जाएंगे। फुहारों, रिमझिम बारिश और कड़ी धूप की परवाह किए वगैर। शिव में आस्था जो अटूट है।

कृषि प्रधान देश में सावन के मौसम की एक अलग पहचान है। वर्षा पर ही खेती निर्भर करती है। सावन माह में इतनी बारिश होती है कि नदी-नाले, गड्ढे, खेत सब भर जाते हैं। बाढ़ भी आ जाती है। जीवन दूभर हो जाता है। इससे क्या? 'आया सावन झूम के', इस भाव से मानव मन भी खिल जाता है। भीगते हुए झूला झूलने का अपना मजा है। झूला लगा हो, जेठानी-देवरानियां बैठी गीत गा रही हों, हाथों में मेंहदी रचाई जा रही हो, फिर तो मायके जाने का ही मन मचल उठता है। भैया को आना चाहिए। उसे मायके जाना है। सखियों के साथ झूले झूलने निकल पड़ती है। ससुराल में रह रही बेटियां अपने पिता से आग्रह करती हैं-

'अबकी बरस भेज भैया को बाबुल,

 सावन में लीजो बुलाय रे।'

सावन में तो मायके की ही निश्चिंतता, आजादी और आनंद चाहिए। पर ऐसा भी नहीं है। एक गीत के अनुसार बहन कहती है-

'नाहक भैया आयो अनवैया रे, सावनमा में ना जइवो ननदी

सोने की थाली में भोजन परोसल, चाहे भैया खावत चहे जात रे

सावनमा में ना जइवो ननदी।'

स्त्री स्वभाव की विपरीत स्थितियां हैं। सावन में मायके जाना सुखद लगता है। भाई न आए तो आसमान से बरसती बूंदों की झड़ी के साथ आंखें भी बरसने लगती हैं। फिर कौन सी वह स्थिति है कि सावन में भाई का आना भी 'नाहक' लगता है, स्त्री का दो घर होना। दोनों घरों की प्रीत में पलना, ससुराल का 'गेंदा फूल' जैसा लगना, पिया का घर में होना, पिया के प्रेम का सावन की फुहार के सदृश्य मन को भिगोना। फिर काहेका मायका। काहेका भैया। सबकुछ ससुराल में ही मिल गया। तभी तो भैया का आना भी 'नाहक' लगा।

मन की स्थिति का ऐसा होना, सच होते हुए भी अपवाद  ही होता है। सावन तो सावन है। रिमझिम बरसात में सहेलियों के साथ झूला झूलने का मजा ही कुछ और होता है। सारे संजोए दु:ख धुल जाते हैं। मन आह्लादित हो गया, साफ-स्वच्छ, सावन के आकाश की तरह।

स्त्री जीवन की एक दूसरी भी स्थिति रहती है। जब उसका पति साथ नहीं होता। वह पैसा कमाने के लिए परदेश चला जाता रहा है। फिर तो पूछिए मत। न ससुराल, न मायका, न झूला, न बारिश। संपूर्ण सावन का अस्तित्व ही बेकार। वर्ष की बूंदें आग की लपट के समान लगती हैं। लोक साहित्य में इस मन:स्थिति का वर्णन बड़ा सटीक है-

'जाओ जाओ री सखि गृहि अपना, पिया परदेश

झुलन कइसना

सखि मैं ना रे जइहों,

झूलने तुम जाओ री सभे सखि

मैं ना रे जइहों।'

सखियां भी नहीं सुहा रहीं। झूला और फुहार तो वैरी लग ही रही है। प्रकृति के सावन से मन के सावन का मेल होना चाहिए। 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' बाहर सावन तो मन में सावन। ससुराल में ननद भी सखि ही हो जाती है। हमउम्र होने के कारण भाभी उससे अपने मन की बात कहती है। सावन के एक गीत में भाभी कह रही है-

'नही अइले बिरना (भैया) तोहर हो,

सावनमा आइ गइली ननदी

रसे रसे छलकेला रस के गगरिया,

रिमझिम बरसे फुहार हो।'

ननद भी अपनी भाभी की व्यथा को समझती है। सावन की ये वानगियां पारिवारिक जीवन में मिलन और विरह का रूप दिखाती हैं। सच बात यह है कि सावन में वर्षा होती है और बारिश जीवन का पर्याय है। लोकजीवन में इतिहास, भूगोल और विज्ञान की पढ़ाई भले ही न हो, लोग तो प्रकृति के हर रूप-रंग को पहचानते हैं। उन्हीं के साथ रोते बिसूरते हैं। बादल का रूप रंग देखकर उसके बरसने और बिन बरसे चले जाने का अनुमान लगा लेते हैं। बारिश तो भादों और आश्विन में भी होती है। सावन की फुहार के क्या कहने। जेठ, अषाढ़ की गर्मी से राहत मिलती है। धरती की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है। जेठ-अषाढ़ में लोकजीवन में घर-घर जाकर 'पानी मांगने' का खेल खेला जाता था। उसका  एक गीत है-

'हाली हुली बरसु हे इन्द्र देवता,

 पानी बिनू पड़ल अकाले हो रामा

चौर सूखल, चांचर सूखल,

सूखी गेल बाबा के बथाने हो रामा।'

हे इन्द्र देवता, जल्दी बरसिए। खेत खलिहान सब सूख गया। खेत में हल नहीं चल रहा । कुदाल भी नहीं। दादी कहती थीं कि इस खेल के खेलने के बाद पानी अवश्य बरसता था। किसान आकाश की ओर टकटकी लगाए रहता है। पानी चाहिए। तभी तो बीज बोए जाएंगे। अन्न उपजेगा। मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों के भोजन के लिए भी भोज्य पदार्थ प्रकृति देगी।

सावन की पहचान प्रीत उपजाने की है। वह प्रीत रिश्ते नातों के बीच हो या धरती और आकाश के बीच। प्रीत की बारिश ही होती है। धरती और आकाश (बादल) न मिलें तो सृजन ही न हो। स्त्री और पुरुष ही नहीं, सारी सृष्टि में नर और मादा न मिलें तो भी सृजन नहीं। सावन सृजन का प्रतीक है। यूं तो हर मास और मौसम का अपना महत्त्व है, पर सावन तो सावन है। इस मास में भीषण गर्मी से राहत मिलती है, वहीं मन में आस जगती है। सब सुहावना लगता है-

'सावन हे सीख सर्व सुहावन,

 रिमझिम बरसले मेघ हे।'

दरअसल मन की यह स्थिति इसलिए भी है कि इसी महीने में मन में आस जगती है। खेत में बीज  के बाद फसल, फसल से पेट भरना और सब दु:खों का निपटारा होना।

शिव का अर्थ ही है कल्याण। शिव का यह महीना है। शिव तो संहारक माने गए हैं। ब्रह्मा सृजन करते हैं। विष्णु पालनहार हैं। और शिव हैं संहारक। सच तो यह है कि शिव ही पालनहार और रुद्र रूप हैं। सावन, शिव का महीना है। सावन में मौसम की गर्मी, जमीन का बांझपन (सूखा) और मनुष्य मन के दु:ख का संहार करने की शक्ति है। इसीलिए तो शिव का यह माह सावन, दुष्ट स्थितियों का संहार कर सुख का संचार करता है।

लोकमन में सावन पूजनीय महीना है। अनेक व्रत-त्योहार हैं। शिव (जन-जन के देव) के मंदिरों में भीड़ उमड़ती है। लोकमन में शिव, विशेषकर सावन के शिव, बड़े गहरे बैठे हैं। स्त्री-पुरुष बच्चे कांवड़ लेकर दूर-दूर तक चलते हैं। थकान, भूख-प्यास सब भूल जाते हैं। समाज की ओर से इन कांवड़ियों के लिए अच्छी व्यवस्था होती है।

सावन का संबंध वायु से भी है। पूरबा, पछुआ के साथ अन्य दिशाओं से आई हवा पर ही वर्ष की स्थिति निर्भर करती है।

'सावन मास बेहे पूरबैया,

बेचो वरदा कीनो गैया।'

सावन मास में यदि पूरबैया बहने लगे तो बारिश बिल्कुल नहीं होगी, फिर तो बैल को बेचकर गाय खरीद लो।  लोकोक्तियों, लोकगीतों, कहावतों में बसा सावन, सावन ही है।

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