मौसम विज्ञानी करें विचारसच से दूर क्यों अटकलें?
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सच से दूर क्यों अटकलें?
प्रमोद भार्गव
हर साल मई-जून के महीनों में मानसून की अटकलों का दौर शुरू हो जाता है। यदि औसत मानसून आये तो देश में हरियाली और समृद्धि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आये तो पपड़ाई धरती और अकाल की क्रूर परछाइयां देखने में आती हैं। इस बार मौसम विज्ञानियों की भविष्यवाणियों से ऐसा लग रहा है कि मानसून समय पर आएगा और वर्षा भी सामान्य होगी। पर यह जरूरी नहीं कि मानसून का अनुमान सटीक बैठे? हो सकता है मानसून ऐसा आए कि तबाही मचा दे, नहीं तो ऐसा आए कि सूखा पड़ जाए। सोचने की बात है कि मानसून की इस आंखमिचौनी की पड़ताल आधुनिक तकनीक से समृद्ध मौसम विभाग आखिर ठीक समय पर क्यों नहीं कर पाता और क्यों तबाही के मंजर में सैकड़ों लोगों की जान और अरबों-खरबों का नुकसान देश को उठाना पड़ता है? गौरतलब है कि मौसम विभाग ने मानसून के 1 जून को केरल पहुंचने की भविष्यवाणी दो सप्ताह पहले ही की थी, लेकिन वह झूठी पड़ गई। अब वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि अरब सागर में मानसून एक सप्ताह की देरी से अंगड़ाई लेगा। मौसम विभाग ने इस साल मानसून के सामान्य रहने का अनुमान लगाया है, जिसमें 88 से.मी. बारिश होने की उम्मीद की गई है।
करवटें लेता मौसम
आखिर हमारे मौसम वैज्ञानिकों के पूर्वानुमान आसन्न संकटों की सटीक जानकारी देने में खरे क्यों नहीं उतरते? क्या हमारे पास तकनीकी ज्ञान अथवा साधन कम हैं अथवा हम उनके संकेत समझने में अक्षम हैं? मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो जब उत्तर-पश्चिमी भारत में मई-जून तपते हैं और भीषण गर्मी पड़ती है तब कम दबाव का क्षेत्र बनता है। इस कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर दक्षिणी गोलार्द्ध से भूमध्य रेखा के निकट से हवाएं दौड़ती हैं। दूसरी तरफ सूरज के गिर्द धरती की परिक्रमा अपनी धुरी पर जारी रहती है। निरंतर चक्कर लगाने की इस प्रक्रिया से हवाओं में मंथन होता है और उन्हें नई दिशा मिलती है। इस तरह दक्षिणी गोलार्द्ध से आ रहीं दक्षिण-पूर्वी हवाएं भूमध्य रेखा को पार करते ही पलटकर कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर गतिमान हो जाती हैं। ये हवाएं भारत में प्रवेश करने के बाद हिमालय से टकराकर दो हिस्सों में विभाजित होती हैं। इनमें से एक हिस्सा अरब सागर की ओर से केरल के तट में प्रवेश करता है और दूसरा बंगाल की खाड़ी की ओर से प्रवेश कर उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर-प्रदेश, उत्तराखण्ड, हिमाचल, हरियाणा और पंजाब तक बारिश करता है। अरब सागर से दक्षिण भारत में प्रवेश करने वाली हवाएं आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बरसात लाती हैं। इन मानसूनी हवाओं पर भूमध्य और कश्यप सागर के ऊपर बहने वाली हवाओं के मिजाज का प्रभाव भी पड़ता है। प्रशांत महासागर के ऊपर प्रवाहमान हवाएं भी हमारे मानसून पर असर डालती हैं। वायुमण्डल के इन क्षेत्रों में जब विपरीत परिस्थिति निर्मित होती है तो मानसून के रुख में परिवर्तन होता है जिससे भारतीय भू-भाग पर कम या ज्यादा बरसात होती है।
पर्याप्त हैं संसाधन
मौसम विज्ञानियों को महासागरों की सतह पर प्रवाहित वायुमण्डल की हरेक हलचल पर और इसके भिन्न-भिन्न ऊंचाइयों पर निर्मित तापमान और हवा के दबाव, गति और दिशा पर निगाह रखनी होती है। जो आंकड़े इकट्ठे होते हैं उनका विश्लेषण कर मौसम का पूर्वानुमान लगाया जाता है। हमारे देश में 1875 में मौसम विभाग की बुनियाद रखी गई थी। आजादी के बाद से मौसम विभाग में आधुनिक संसाधनों का निरंतर विस्तार होता चला आ रहा है। विभाग के पास 550 भू-वेधशालायंे, 63 गुब्बारा केन्द्र, 32 रेडियो पवन वेधशालायें, 11 तूफान संवेदी और 8 तूफान सचेतक रडार केन्द्र हैं, 8 उपग्रह चित्र प्रेषण और ग्राही केन्द्र हैं। इसके अलावा पानी के भाप बनकर हवा होने पर निगाह रखने वाले 5 हजार केन्द्र, 214 पेड़-पौधों की पत्तियों से होने वाले वाष्पीकरण को मापने वाले, 35-38 विकिरणमापी एवं 48 भूकंपमापी वेधशालाएं हैं। अब तो अंतरिक्ष में छोड़े गये उपग्रहों के माध्यम से सीधे मौसम की जानकारी कम्प्यूटरों में दर्ज होती रहती है।
बरसने वाले बादल बनने के लिये गरम हवाओं में नमी का समन्वय जरूरी होता है। हवाएं जैसे-जैसे ऊंची उठती हैं, तापमान गिरता जाता है। अनुमान के मुताबिक, प्रति एक हजार मीटर की ऊंचाई पर पारा 6 डिग्री नीचे आ जाता है। यह अनुपात वायुमण्डल की सबसे ऊपरी परत 'ट्रोपोपॉज' तक चलता है। इस परत की ऊंचाई यदि भूमध्य रेखा पर नापें तो करीब 15 हजार मीटर बैठती है। यहां इसका तापमान शून्य से लगभग 85 डिग्री सेन्टीग्रेड नीचे पाया गया। यही परत ध्रुव प्रदेशों के ऊपर कुल 6 हजार मीटर की ऊंचाई पर भी बन जाती है। वहां तापमान शून्य से 50 डिग्री सेन्टीग्रेड नीचे होता है। इसी परत के नीचे मौसम का गोला या 'ट्रोपोस्फियर' होता है, जिसमें बड़ी मात्रा में भाप होती है। यह भाप ऊपर उठने पर 'ट्रोपोपॉज' के संपर्क में आती है। ठंडी होने पर भाप द्रवित होकर पानी की नन्ही-नन्ही बूंदें बनाती है। पृथ्वी से 5-10 किलोमीटर ऊपर तक जो बादल बनते हैं उनमें बर्फ के बेहद बारीक कण भी होते हैं। पानी की बूंदें और बर्फ के कण मिलकर बड़ी बूंदों में तब्दील होते हैं और वर्षा के रूप में धरती पर टपकना शुरू होते हैं।
देशी भाषा हितकारी
दुनिया के किसी अन्य देश में मौसम इतना विविध, दिलचस्प, हलचल भरा और प्रभावकारी नहीं है जितना कि भारत में है। इसका मुख्य कारण है भारतीय प्राय:दीप की विलक्षण भौगोलिक स्थिति। हमारे यहां एक ओर अरब सागर है तो दूसरी ओर बंगाल की खाड़ी। ऊपर हिमालय के शिखर हैं। इस कारण हमारे देश की जलवायु विविधतापूर्ण होने के साथ-साथ प्राणियों के लिये बेहद हितकारी है। इतने अनूठे मौसम का प्रभाव देश की धरती पर क्या पड़ेगा, इसकी भविष्यवाणी करने में हमारे वैज्ञानिक अक्षम क्यों रहते हैं, इस बारे में प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. राम श्रीवास्तव का कहना है कि सुपर कम्प्यूटरों का बड़ा जखीरा हमारे मौसम विभाग के पास होने के बावजूद हम सटीक भविष्यवाणियां इसलिये नहीं कर पाते क्योंकि हम कम्प्यूटरों की भाषा 'अलगोरिथम' नहीं पढ़ पाते। वास्तव में हमें सटीक भविष्यवाणी के लिये दो सुपर कम्प्यूटरों की जरूरत है, लेकिन हमने करोड़ों रुपये खर्च करके एक्स.एम.जी. के-14 कम्प्यूटर आयात किये हैं। अब इनके 108 टर्मिनल काम नहीं कर रहे हैं, क्योंकि इनमें दर्ज आयातित भाषा 'अलगोरिथम' पढ़ने में हम अक्षम हैं। कम्प्यूटर भले ही आयातित हों, लेकिन इनमें मानसून के डाटा स्मरण में डालने के लिये जो भाषा हो, वह देशी हो। हमें सटीक भविष्यवाणी के लिये कम्प्यूटर की देशी भाषा विकसित करनी होगी, क्योंकि अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और हिमालय भारत में हैं, अमरीका अथवा ब्रिटेन में नहीं। जब हम वर्षा के आधारस्रोत की भाषा पढ़ने व संकेत परखने में सक्षम हो जाएंगे तो मौसम की भविष्यवाणी सही बैठेगी।
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