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लोकतंत्र के अंगने में हत्यारे!

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Jun 16, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Jun 2012 15:04:08

इसी 4 मई की रात में टी.पी.चन्द्रशेखरन, उत्तरी केरल के कोझीकोड जिले में ओनचियम गांव के अपने घर की ओर मोटर साइकिल पर अकेले जा रहे थे कि कार में सवार कुछ हत्यारों ने उन्हें घेर लिया और उन पर तेज धार वाले हथियारों से ताबड़तोड़ हमला बोल दिया। लहुलूहान चन्द्रशेखरन जमीन पर गिर गये। उनके चेहरे और सिर पर 51 घाव गिने गये। वे मृत घोषित कर दिये गये। चन्द्रशेखरन का अपराध क्या था और उनके हत्यारे कौन थे? चन्द्रशेखरन कभी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के एक जांबाज कार्यकर्त्ता हुआ करते थे, किन्तु धीरे-धीरे पार्टी के अधिनायकवादी और हिंसक तौर-तरीकों से उनका मोहभंग हो गया और 2008 में माकपा छोड़कर उन्होंने रिवोल्यूशनरी मार्क्सिस्ट पार्टी का गठन किया। वे स्वयं को मार्क्सवादी ही कहते रहे। किन्तु केरल माकपा के राज्य सचिव पिनरई विजयन ने उन्हें 'कुलमकुटी' यानी 'विश्वासघाती' और 'पार्टी द्रोही' घोषित कर दिया। इसी अपराध की कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। केरल में किसी 'पार्टी द्रोही' की हत्या का यह पहला मामला नहीं है। केरल माकपा का इतिहास ऐसी अनेकानेक हत्याओं से रक्तरंजित है।

विद्रोहियों की हत्या का इतिहास

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन से आकर्षित होकर अनेक बागी माकपाईयों ने संघ के वैचारिक संगठनों में शरण ली, जिसके परिणामस्वरूप माकपा के लोगों द्वारा संघ कार्यकर्ताओं की हत्या और बागियों से प्रतिशोध का लम्बा इतिहास लिखा गया। अभी कुछ महीने पहले ही एक संघ कार्यकर्त्ता की हत्या के आरोप में कुछ माकपाई गुंडों को न्यायालय ने मृत्युदंड की सजा सुनायी। अब एक स्कूल शिक्षक व भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्त्ता के.टी.जयकृष्णन को कक्षा के छोटे छोटे बच्चों के सामने माकपाई हत्यारों ने टुकड़े-टुकड़े कर डाला। तब माकपा की सरकार थी, इसलिए सही से जांच नहीं हो पाई, अब यह मामला दोबारा खुलने की बात हो रही है। एक मुस्लिम कार्यकर्त्ता माकपा छोड़कर नवगठित 'पापुलर फ्रंट आफ इंडिया' में चला गया। 22 अक्तूबर, 2006 को तलासेरी के पास उसकी हत्या कर दी गयी। तत्कालीन माकपाई सरकार ने उस हत्या की सीबीआई द्वारा जांच की मांग ठुकरा दी थी। अब कांग्रेस और मुस्लिम लीग की नई गठबंधन सरकार ने वह जांच खुलवा दी, जिसके फलस्वरूप पिछले सप्ताह ही दो जिला स्तर के माकपाई कार्यकर्त्ताओं को उस हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया है।

अपनी पार्टी के बागियों और विपक्षी दलों के कार्यकर्त्ताओं की हत्याएं क्या कुछ स्थानीय कार्यकर्त्ताओं की अपने मन से की गई प्रतिक्रियाएं हैं या यह कम्युनिस्ट पार्टी की अधिकृत नीति और उसकी विचारधारा का अभिन्न अंग हैं? इस रहस्य पर से पर्दा उठाया केरल माकपा की इडुक्की जिला समिति के 25 साल से सचिव चले आ रहे एम.एम. मणि ने। मणि पार्टी के एक वरिष्ठ नेता हैं, प्रांतीय समिति के सदस्य हैं। केरल माकपा के राज्य सचिव पिनरई विजयन एवं पोलित ब्यूरो सदस्य कोदियारी बालाकृष्णन आदि ने उनके साथ काम किया है। एम.एम. मणि ने 26 मई को थोडुपुझा नामक स्थान पर एक जनसभा में गर्वोक्ति की कि माकपा के बागियों का वही हश्र होगा जो टी.पी. चन्द्रशेखरन का हुआ है। यह पार्टी की सुविचारित नीति है कि जो पार्टी के साथ विश्वासघात करेंगे, उन्हें जिंदा नहीं छोड़ा जाएगा। पार्टी विद्रोहियों की हत्या का आदेश जारी करती है और कार्यकर्त्ता उस आदेश को क्रियान्वित करते हैं। उन्होंने बताया कि 1982 में हमारी पार्टी ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों का सफाया करने के लिए 13 नामों की सूची बनायी। सूची के पहले नाम वाले को हमने गोली मार दी, दूसरे नाम वाले को हमने छुरा घोंपकर मार डाला, तीसरे नाम वाले को हमने पीट-पीटकर मार डाला। यद्यपि मणि ने मारे गये तीनों व्यक्तियों के नाम नहीं लिये, किन्तु स्पष्ट ही वे स्थानीय कांग्रेसी कार्यकर्त्ता थे। इनमें बेबी अंचेरी को नवम्बर, 1982 में गोली मारी गयी। मुल्लनचिरा मथाई को जनवरी, 1983 में पीट-पीटकर मार डाला गया और मुत्तुकड ननप्पन को जनवरी 1983 में छुरा घोंपकर मार डाला।

मणि की यह स्वीकारोक्ति केरल माकपा के वरिष्ठ नेता, पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में विपक्ष के नेता 89 वर्षीय वी.एस.अच्युतानंदन और राज्य माकपा के सचिव पिनरई विजयन की गुटबंदी में फंस गयी है। मणि कभी अच्युतानंदन के प्रति वफादार होते थे, पर अब पिनरई गुट में शामिल हो गये हैं। टी.पी.चन्द्रशेखन की हत्या पर भी इस गुटबंदी की छाया स्पष्ट दिख रही है। अच्युतानंदन ने हत्या के बाद चन्द्रशेखरन को 'बहादुर कम्युनिस्ट' कहा तो पिनरई ने 'गद्दार' कहा। अच्युतानंदन चन्द्रशेखरन के घर शोक प्रकट करने गए तो चन्द्रशेखरन के हजारों समर्थकों ने उनका जोरदार स्वागत किया। अच्युतानंदन ने चन्द्रशेखरन की समाधि पर पुष्प चढ़ाकर श्रद्धाञ्जलि दी।

हत्या की राजनीति

पर इस गुटबंदी से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या हत्या की राजनीति माकपा की अधिकृत कार्यशैली है? क्या उसने यह कार्यशैली अपनी विचारधारा से प्राप्त की है। एक 95 वर्षीय कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता पनोली कृष्णन, जो 1949 में पार्टी के जन्मकाल से सक्रिय हैं, ने बताया कि पार्टी की स्थापना के समय में ही पार्टी कार्यकर्त्ताओं को गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया था। पनोली ने कहा कि मैंने स्वयं वह 'ट्रेनिंग' ली थी और जब पार्टी की बैठकें होती थीं तब मुझे हथियार लेकर पहरे पर खड़ा कर दिया जाता था, ताकि कोई अवांछनीय व्यक्ति उस बैठक की बातें न सुन सके। पनोली ने बताया कि 1964 में माकपा के गठन के बाद गोपाल सेना के नाम से यह ट्रेनिंग चलती रही। राज्य पुलिस से निष्कासित एक पुलिस अधिकारी बी.के.बालन इस सेना के प्रमुख बनाये गये। 1970 से एम.वी.राघवन उसके प्रमुख रहे। पिनरई विजयन, कोदियारी बालाकृष्णन आदि कन्नूर के सभी प्रमुख नेता राघवन के द्वारा प्रशिक्षित किए गए हैं। 1986 में राघवन भी पार्टी से निष्कासित कर दिये गये।

माकपा विपक्षी दलों की ही नहीं, अपने कार्यकर्त्ताओं की असहमति को दबाने के लिए कितनी क्रूरता बरतती है, इसका उदाहरण कन्नूर के कायलेडु नामक गांव के एक 32 वर्षीय युवक पी.टी.नित्यानंद की दर्दनाक कहानी है। नित्यानंद पार्टी के युवा संगठन में सक्रिय था। उसका विवाह हुआ। पारिवारिक जिम्मेदारियां बढ़ गयीं। उसने लकड़ी का छोटा-सा व्यापार शुरू किया। पार्टी ने उस पर निष्क्रियता का आरोप लगाया। उससे उसकी आय का बड़ा हिस्सा पार्टी को देने को कहा। वह अपने पारिवारिक दायित्वों के कारण यह मांग पूरी करने में असमर्थ था। फलत: 24 सितम्बर, 2011 को उस पर प्राणघातक हमला किया गया, पर वह बाल-बाल बच गया। वह इस समय अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा मौत से जूझ रहा है। उसके छह आपरेशन किये जा चुके हैं।

पार्टी ने इन हत्यारों (कार्यकर्ताओं) को बचाने का एक पूरा शास्त्र विकसित कर रखा है। यदि वे सरकार में होते हैं तो हत्या की जांच को टालते रहते हैं। टालना संभव न होने पर कुछ झूठे नामों के आरोपियों की सूची देते हैं। हत्यारों को कानूनी मदद देते हैं, उनके परिवार की देखभाल करते हैं और केस को लम्बे समय तक लटका कर उन्हें निरपराध घोषित कर दिया जाता है। कभी-कभी वे उनसे अपने संबंध को छिपाते भी नहीं हैं। अन्दियेरी सुरा नामक एक माकपाई 2001 में मुस्लिम लीग के किसी कार्यकर्त्ता की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास भुगत रहा है, किन्तु उसकी पुत्री के विवाह में पोलित ब्यूरो के सदस्य कोदियारी बालाकृष्णन कई कार्यकर्त्ताओं को साथ लेकर सम्मिलित हुए।

केरल में गुटबाजी

पार्टी के कुछ कार्यकर्त्ता अब स्वीकार करने लगे हैं कि पार्टी में भय का वातावरण छाया हुआ है। हत्या के डर से अनेक कार्यकर्त्ता अपना मतभेद प्रकट नहीं कर पा रहे हैं। कन्नूर जिले में पुचायिल नानू नामक एक माकपाई नेता के दो भतीजे माकपा छोड़कर भाजपा में चले गये थे, इसलिए उनकी हत्या कर दी गयी। उनकी हत्या से छटपटाया पुचायिल नानू फिर भी अपनी जान बचाने के लिए पार्टी में बना रह गया। कायलोड के शिनोज के. ने पार्टी से रिश्ता तोड़ लिया है। उसका कहना है कि पार्टी में असंतुष्ट कार्यकर्त्ताओं की संख्या बहुत बड़ी है पर उन्हें गांव से निष्कासन और जान जाने का खतरा सताता है। कायलोड गांव को माकपा का गढ़ कहा जाता है वहां हर चौराहे और घर पर लाल झंडे फहराते हैं। पार्टी में गुटबंदी ऊपर से नीचे तक व्याप्त है। कहा तो यह भी जा रहा है कि एम.एम. मणि का 26 मई का भाषण अपने पुराने नेता अच्युतानंदन को फंसाने के इरादे से पिनरई विजयन की शह पर दिया गया था, क्योंकि 1982-83 में अच्युतानंदन ही केरल के राज्य सचिव थे। पर अच्युतानंदन की लोकप्रियता से डरे केन्द्रीय नेतृत्व में उनके खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं है। इसलिए षड्यंत्रकारी तरीकों से उनके पर काटने की कोशिशें चल रही है, जैसा कि 2008 में कोट्टायम में पार्टी कांग्रेस के गुप्त दस्तावेजों को मीडिया तक पहुंचाने के लिए अच्युतानंदन के तीन अति विश्वस्त सहयोगियों को दोषी ठहराया गया है, और ऐसे में शायद उन्हें पार्टी से निकाल दिया जाएगा। प्रकाश कारत केरल और बंगाल की पराजय के बाद भी महासचिव बने रह सके, इसका श्रेय पिनरई विजयन गुट के समर्थन को दिया जा रहा है। कारत ने दिल्ली में केन्द्रीय बैठक के बाद दोनों गुटों के नेताओं से कोई सार्वजनिक वक्तव्य न देने की अपील की है। किन्तु अपने वक्तव्य में अच्युतानंदन का नामोल्लेख करके उन्होंने पिनरई के प्रति अपना झुकाव स्पष्ट कर दिया।

लबादा लोकतंत्र का, विचारधारा हिंसक

अपने बागियों और विपक्षियों के दमन का जो वातावरण केरल की माकपा में व्याप्त है, वही वातावरण प.बंगाल और कुछ अंशों में त्रिपुरा में भी पाया गया है। त्रिपुरा में वरिष्ठतम कम्युनिस्ट नेता नृपेन चक्रवर्ती के असहमति के स्वर को जिस प्रकार दबाया गया, वह सर्वज्ञात है। प.बंगाल में वरिष्ठ मंत्री विजय कृष्ण चौधरी की जो दुर्गति हुई, वह किसी से छिपी नहीं है। 1998 से 2004 के मध्य कई बार मुझे कोलकाता जाने का अवसर मिला। एक बार वहां प्रोफेसरों एवं पत्रकारों के साथ बैठना हुआ। वे वहां के दमघोंटू वातावरण से त्रस्त थे, किन्तु मुंह खोलने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। उनका कहना था कि यहां विश्वविद्यालयों, विद्यालयों, पत्रकार क्षेत्रों, यहां तक कि पुलिस बलों में भी पार्टी नियंत्रित ट्रेड यूनियनिज्म इतना व्यापक हो गया है कि असहमति का स्वर दबाने के लिए ट्रेड यूनियन का हमला शुरू हो जाता है और बोलने वाले का उत्पीड़न होता है। एक कालेज छात्र ने बताया कि हमारे कालेज में माकपाई छात्र गुंडागर्दी को तैयार रहते हैं, अध्यापक भी उनसे डरते हैं। ऐसे भय के वातावरण को भेदकर ममता बनर्जी माकपा के 35-36 वर्ष लम्बे आतंक राज्य को समाप्त कर सकीं, यह आश्चर्य की ही बात है। अपने अल्प कार्यकाल में उन्हें जिस प्रकार के बौद्धिक षड्यंत्रों का सामना करना पड़ रहा है, उसे मीडिया की आंखों से देखने की बजाय अपनी आंखों से देखना व समझना चाहिए।

हिंसा की राजनीति कम्युनिस्ट विचारधारा में शुरू से विद्यमान है। लेनिन ने प्रोलीतेरियन डिक्टेटरशिप (सर्वहारा तानाशाही) को जो विकृत रूप प्रदान किया, वह शायद मार्क्स की कल्पना नहीं थी। लेनिन का विरोध करने के कारण जर्मनी की प्रखर मार्क्सवादी विचारक रोजा लक्जमबर्ग की हत्या करवाई गयी। स्तालिन ने रूस में सत्ता परिवर्तन के एक प्रमुख सेनापति लियो ट्राटस्की को पहले तो देश छोड़ने के लिए विवश किया और फिर दूरस्थ मैक्सिको में उसकी हत्या करवा दी। 1956 में निकिता खुश्चेव ने स्तालिन युग की क्रूरताओं का जो हृदय विदारक वर्णन प्रस्तुत किया, उसे सुनकर सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस का वह गुप्त सत्र सिसकियों से भर गया था। भारत में भी कम्युनिस्ट पार्टी की परम्परा इससे भिन्न नहीं रही है। इसके लिए मोहित सेन जैसे पुराने कम्युनिस्ट नेताओं के संस्मरणों को पढ़ना बहुत जरूरी है। यह सच है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 1957 में अपनी अमृतसर कांग्रेस में भारतीय संविधान के अंतर्गत चुनाव प्रकिया में भाग लेने का प्रस्ताव पारित किया था, किन्तु वह प्रस्ताव आंतरिक विचार मंथन में से पैदा न होकर रूस के तानाशाह स्तालिन द्वारा भारतीय कम्युनिस्टों के एक उच्चस्तरीय गुप्त प्रतिनिधिमंडल को दी गयी फटकार का परिणाम था। उस समय अमरीका के विरुद्ध शीतयुद्ध में उलझे सोवियत संघ से भारत सरकार की मित्रता आवश्यक लग रही थी, इसलिए स्तालिन ने खूनी संघर्ष का रास्ता छोड़कर भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सहभागी बनाने का आदेश दिया था। किन्तु लोकतंत्र उनका मानस नहीं है, हिंसा उनकी चेतना में गहरे तक समायी हुई है।

 

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