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आत्मकेन्द्रित होते जा रहे इस दौर में जहां व्यक्ति को 'अहो अहं नमो मह्यम्' का मन्त्र जपने से अवकाश ही नहीं मिलता, युवा पीढ़ी के उन सचेत और सहृदय साहित्यिकों का ऐसा हर प्रयास अभिनन्दनीय है जो अपने क्षेत्र की तमाम वरिष्ठ और कनिष्ठ प्रतिभाओं के साहित्यिक अवदान को समन्वित रूप में प्रस्तुत करता है। अपनी पौराणिकता तथा ऐतिहासिकता के लिये समग्र देश में प्रख्यात कन्नौज (उ.प्र.) से श्री अजित कुमार राय के मुख्य सम्पादन और सर्वश्री अनिल कुमार तिवारी 'मदन', आदित्य मिश्र, अनिल द्विवेदी 'तपन' तथा सुलभ अग्निहोत्री के सम्पादकीय सहयोग से सामने आई 'सर्जना की गंध-लिपि' (प्रकाशक – अखिल भारतीय लोक साहित्य परिषद् कन्नौज, मूल्य 200 रु. मात्र) इस जनपद की अविराम साहित्य-साधना की एक अभिराम उपलब्धि है, जो भावोच्छल स्वागत-प्राप्ति की हक़दार है। 'अपनी बात' के अन्तर्गत सम्पादक-मण्डल ने संकलन में समाहित रचनाकारों के श्रेणी-विभाजन का औचित्य प्रतिपादित किया है –
1. नमन :- इस श्रेणी में हमसे एक पीढ़ी पूर्व के वे रचनाकार हैं जो अपने स्थूल शरीर से आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु जो आधार वे हमें दे गये हैं उन पर हिन्दी काव्य का भव्य प्रासाद गढ़ने के लिये हम कृत संकल्प हैं।
2. शिलालेख :- इस खण्ड में वे महिमामय हस्ताक्षर हैं जो समय के शिलालेख पर बहुत गहरे खुदे हुए हैं। इनकी रचनात्मकता से सम्बद्धता में निरन्तरता है। किसी भी व्यवसाय या जीविकोपार्जन से जुड़े होने के बावजूद इन्होंने कविता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को द्वितीय नागरिकता का दर्जा नहीं दिया है।
3. हस्ताक्षर :- इस खण्ड में ऐसे रचनाकार हैं जिनकी रचनाओं से हमें रश्क हुआ है।
4. संभावनाएं:- ये ऐसे नाम हैं जिन्हें भविष्य में कविता की पालकी उठानी है। इनके कन्धों में इस हेतु सामर्थ्य, जज्बात में संवेदना के प्रति जुनून और मां वाणी की आराधना के लिए एकात्म समर्पण पैदा करना हमारा दायित्व है।
5. समिधा :- इस खण्ड में साहित्यिक संचेतना के इस यज्ञ में सम्पादक – मण्डल के सदस्यों की समिधाएं हैं।
कविता को आत्म-सत्य की लयाभिव्यक्ति मानने वाले विद्वान सम्पादक श्री अजित कुमार राय का सम्पादकीय हमारे रचना-समय में कन्नौज की भूमिका को रेखांकित करता है। संस्कृत साहित्य के उद्भट हस्ताक्षरों से लेकर समकालीन काव्य-प्रतिभाओं तक की समीक्षात्मक चर्चा करते हुए राय साहब ने सात्विक अभिमान के साथ उद्घोषित किया है – 'आस्था की संकल्पना अन्तत: संकल्प में परिणत हुई और संकलन आपके हाथों में है। एक समावेष्ठी संकलन, जिसमें सामाजिक संरचना का पुनर्पाठ अपेक्षित है, कविता के संरक्षण के साथ ही नई प्रतिभाओं के अभिषेक की अन्त: प्रेरणा से परिस्फूर्त यह अनुष्ठान कविता के आम जन या आम कवियों की खोज यात्रा है…………'
'नमन' के अन्तर्गत सात दिवंगत रचनाकारों की रचनाएं हैं, 'शिलालेख' के अन्तर्गत सोलह रचनाकार संकलित हैं, 'हस्ताक्षर' में बाईस तथा 'संभावनाएं' में सोलह प्रतिभाएं समाहित हैं, 'समिधा' में पांच रचनाकार जैसे पंचतत्वों के प्रतिनिधि हैं। इस प्रकार कुल छियासठ रचनाकारों के अन्तर्जगत का परिचय देने वाले इस काव्य-संकलन में समकालीन कविता की लगभग सभी विधाओं का प्रतिनिधित्व भी हुआ है। सर्वाधिक पुरातन छन्द दोहे से लेकर आज की चर्चित विधा हिन्दी गज़ल तक की बानगी इस सजग संकलन में प्राप्त होती है, गीत-नवगीत-नई कविता अपनी-अपनी आभा-विभा के साथ समुपस्थित हैं। एक साथ कई पीढ़ियां इस संकलन के माध्यम से एक मंच पर आकर संवाद करने की चेष्टा कर रही हैं।
एक लघु लेख में चाहकर भी अधिकांश रचनाकारों की पंक्तियां उद्धृत नहीं की जा सकतीं, फिर भी कुछ वरिष्ठ और कुछ युवा रचनाकारों की कुछ पंक्तियों के माध्यम से सहृदय भावकों को कन्नौज की साहित्यिक संचेतना का थोड़ा-सा आस्वाद प्राप्त हो ही जायेगा। कविवर जीवन शुक्ल की गीतव्रता लेखनी अधूरी रहने को अभिशप्त पत्रिका की नियति इस प्रकार शब्दायित करती है-
थपथपाया द्वार को ऋतु के अतिथि ने
संवरण स्वागत स्वयं करने चला है,
दोष मत देना लुटी जो धैर्य–थाती
खुल गई लाचारियों की अर्गला है
गिर पड़ी स्याही धरम की भागवत पर
सत्य से आधार की दूरी रहेगी,
भर न पाऊंगा हृदय की वेणु के स्वर
पल्लवी! पाती अधूरी ही रहेगी।
गीत के व्यक्तित्व को निरूपित करने वाला रामेन्द्र त्रिपाठी का बहुचर्चित गीत उनका व्यक्ति-चित्र भी है –
गाता है तो सूरज शीश झुकाता है
चांद उतरकर नदिया को नहलाता है,
हवा की थिरकन बांस का जंगल गाता है
गाते–गाते बादल पर चढ़ जाता है
अपनी धुन का इकलौता ध्रुवतारा है
बहुत विलक्षण लेकिन सबका प्यारा है
गीत नाम का इक लड़का आवारा है।
श्रीरामकथा के कतिपय पात्रों के चरित्रों के माध्यम से 'महाप्रयाण' में अद्भुत भाषा-सौष्ठव, अर्न्तदृष्टि और प्रस्तुति भंगिमा के साथ चिन्तन का एक अभिनव आयाम उद्घाटित करने वाले कविवर विश्वनाथ द्विवेदी के बिम्ब-विधान की एक झलक द्रष्टव्य है –
जैसे उद्भ्रान्त पथिक कानन में पथ भूले,
जैसे बच्चा हंसते–हंसते पावक छू ले।
जैसे अन्धे को दिन में सूर्य दिखाई दे
ज्यों किसी बधिर को रण का तूर्य सुनाई दे
विद्युत–तन्त्री का हो प्रवाह ज्यों खम्भे में
यों इन्द्रजीत की जननी पड़ी अचम्भे में।
अपनी प्रतिभा के पारस-स्पर्श से किसी भी विषय को स्वर्णिम बना देने वाले कविवर विराम की यह अभिव्यक्ति हिन्दुस्थान के विराट मध्य वर्ग की त्रासदी-गाथा है –
जाल! तुम आखिर पकड़ते किसे हो ?
छोटी–छोटी मछलियां
तुम्हारे भीतर से होकर गुजर जाती हैं
और बड़ी मछलियां इतनी बड़ी हैं
कि उनके लिये तुम ख़ुद छोटे पड़ जाते हो
जाल! तुम क्या सिर्फ मध्यम वर्ग के लिये ही बने हो?
कविवर उमाशंकर वर्मा 'साहिल' के एक गीत का यह मुखड़ा उम्र के किसी न किसी पड़ाव पर हर व्यक्ति को अपना ही दु:खड़ा महसूस होगा –
उमर सभी दर्दों के गांव कटी
अपनी संघर्षों से खूब पटी,
एक मीत आज और रूठ गया
लो सपना एक और टूट गया।
युवा पीढ़ी के स्वरों में कहीं उल्लास, कहीं अवसाद और कहीं कुछ बेहतर कर दिखाने का संकल्प जगह-जगह अभिव्यक्त हुआ है। प्रणय के परिक्षेत्र में नमो नारायण मिश्र एक नि:श्वास को छन्दोबद्ध करते हैं तो सन्यासी उपनाम रखने वाले गोविन्द कुमार दुबे उन्मद उच्छ्वास को –
हमने मांगा फूल लेकिन आपने पत्थर दिया,
एक सीधे प्रश्न का कितना कठिन उत्तर दिया। (नमो नारायण मिश्र)
तथा –
तुम्हें देखेंगे जितने भी वो दर्पण भूल जायेंगे
भुला बैठेंगे सुध–बुध और जीवन भूल जायेंगे,
उठी पलकें तो प्रात:काल का क्षण भूल जायेंगे
खुले जो केश तो बादल भी वर्षण भूल जायेंगे। (गोविन्द कुमार दुबे 'सन्यासी')
इस अभिनन्द्य सत्प्रयास को हार्दिक साधुवाद देते हुए कामना है कि हर जनपद में इस तरह के अनुष्ठान सम्पन्न हों।
अभिव्यक्ति मुद्राएं
बनी शहादत नींव का पत्थर आज़ादी के मन्दिर में,
कलश–कंगूरों तक जा पहुंचे कुछ बेहद बचकाने लोग
– ओम प्रकाश शुक्ल 'अज्ञात'
और उच्छृंखल हुए हैं और दहके हैं पलायन,
बूढ़े बरगद ने कही जब वर्जनाओं की ग़ज़ल।
– आदित्य मिश्र
राजपथ पर रक्त के छींटे गवाही दे रहे,
फिर गुलामी के बढ़े हैं पांव, बोलो क्या करें ?
– अनिल कुमार तिवारी 'मदन'
मित्रता की नींव को बरसात सहने दीजिये,
मत अभी इस पर इमारत डालने की सोचिये।
– सुलभ अग्निहोत्री
एक अच्छी ख़बर छपी थी कभी,
हम वो अख़बार ढूंढ लाये हैं।
– सत्यम् रवीन्द्र
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