1857 की क्रान्ति
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1857 की क्रान्ति

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May 5, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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चर्चा सत्र

दिंनाक: 05 May 2012 17:11:14

चर्चा सत्र

आनन्द मिश्र 'अभय'

की कुछ भ्रांतियां

अंग्रेज अपनी सत्ता के विरुद्ध 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम स्वरूप उपजे जनाक्रोश के विस्फोट को कुचल देने में सफल हो गये। इसीलिए उन्होंने उसे 'सिपाही विद्रोह' (सीपॉय म्युटिनी) कहा, परन्तु भला हो विनायक दामोदर सावरकर नामक उस स्वतन्त्रचेता युवक का, जिसने लन्दन में रहते हुए वहां के पुस्तकालयों के अभिलेखों की गहराई से छानबीन कर 'वार ऑफ इण्डिपेण्डेन्स-1857' नामक एक ऐसा कालजयी ग्रन्थ लिखा, जिसकी सूचना मात्र पाकर ब्रिटिश सत्ता थरर्ा उठी और प्रकाशन के पूर्व ही उसे जब्त कर लिया। विचित्र बात यह कि न तो अंग्रेज शासकों को उसके लेखक का पता था, न प्रकाशक का, न मुद्रक का। विश्व-इतिहास में यह पहला और अन्तिम ग्रन्थ था, जिस पर ऐसा तीखा प्रहार किया गया था। फलत: यह ग्रन्थ अनायास ही भारतीय क्रान्तिकारियों का कण्ठहार बन गया और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के 'गीता-रहस्य' जैसा सम्मान उसे स्वत: प्राप्त हो गया।

क्रांति का सूत्रपात

1857 की क्रान्ति-योजना के मुख्यत: तीन सूत्रधार थे- नाना साहब पेशवा, उनके मंत्री अजीमुल्ला खां और सतारा दरबार के रंगो बापू जी गुप्ते। जिस जहाज से अजीमुल्ला खां पेशवा की पेंशन बहाली की पैरवी करने लन्दन जा रहे थे, उसी से सतारा के भोंसले दरबार के रंगो बापू जी गुप्ते भी उसी प्रकार के प्रकरण की पैरवी हेतु जा रहे थे। दोनों की यह संयोगवशात् भेंट क्रान्ति-योजना को छिद्ररहित बनाने में परम उपयोगी सिद्ध हुई और बहुत सोच-समझकर 31 मई, 1857 की तिथि पूरे भारत में अंग्रेजी-सत्ता के विरुद्ध क्रान्ति के श्रीगणेश हेतु निर्धारित की गयी, लेकिन अंग्रेजों के विरुद्ध बढ़ते जनाक्रोश के कारण मेरठ में  क्रांति का सूत्रपात 10 मई को ही कर दिया गया। परन्तु ऐसी क्रान्ति-योजना की पूर्ण सफलता के लिए जिन निम्नलिखित प्रमुख बातों को सुनिश्चित करना होता है, उनका कठोरता से अनुपालन नहीं किया गया-

1. धैर्यपूर्वक निश्चित तिथि, समय की प्रतीक्षा; 2. पूर्ण अनुशासन; 3. क्रान्ति के मुख्य नेतृत्व के प्रति एकनिष्ठता; और 4. मुख्य नेतृत्व के न रहने पर नेतृत्व की द्वितीय व तृतीय पंक्ति के बारे में निर्णय।

नाना साहब का इस क्रान्ति का एकमात्र नेता होना सर्वस्वीकार्य था; पर उनके बाद कौन, यह अनिर्णीत रहा। फलत: उनके नेपाल की ओर निकल जाने के बाद एक सर्वमान्य नेता की स्वीकार्यता विवादों में फंसी रही। रानी झांसी महिला, अत: उनका नेतृत्व स्वीकार नहीं; तात्या टोपे पेशवा के मुंशी रहे, अत: स्वीकार्य नहीं; गौस खां रानी झांसी का तोपची, इसलिए वह भी अस्वीकार्य और नाना साहब के अनुज राव साहब में नेतृत्व की क्षमता का ऐसा अभाव कि ग्वालियर पर कब्जे के बाद वह एक महीने तक जश्न ही मनाते रहे। रानी के घोड़े की मृत्यु के बाद उन्हें जो घोड़ा चुनकर दिया, उसके स्वभाव तक की जानकारी नहीं की गयी और उसके अड़ियल स्वभाव के कारण रानी को प्राण ही गंवाने पड़े। उधर, अंग्रेजी फौज का अत्याचार देखकर मंगल पाण्डेय ने जैसे ही नियत समय से पूर्व विद्रोह का बिगुल बजाया, अंग्रेज सतर्क हो गए। बाद में मेरठ के ढाई सौ मुस्लिम सिपाहियों ने विद्रोह कर सीधे दिल्ली-कूच का आह्वान कर दिया और दिल्ली पर कब्जा कर उस बहादुर शाह 'जफर' को 'बादशाह' घोषित कर दिया, जो तलवार उठा सकने तक में असमर्थ था, भले ही उनकी शायरी 'तख्ते लन्दन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की' जोशोखरोश से भरी थी। पंजाब के सिख दिल्ली पर मुगलसत्ता की पुनर्प्रतिष्ठा से चौंक गये कि उन्हें फिर वही पुराने दिन देखने पड़ेंगे, जो उन्हें उनके पूज्य गुरुओं, उनकी सन्तानों और पूरे पंजाब को बाबर काल से लेकर अब तक देखने पड़े थे, जब तक महाराजा रणजीत सिंह की सत्ता स्थापित नहीं हो गयी थी। बाद में 31 मई को भी अन्य जगहों पर एक साथ क्रान्ति नहीं हुई। विश्वासघात ने भी अपने रंग दिखाये। फलत: सारी योजना बिखरकर ध्वस्त हो गयी और मात्र असफलता ही हाथ लगी। हां, एक बात यह जरूर हुई कि 'कम्पनी बहादुर' के बजाय इंग्लैण्ड की रानी विक्टोरिया सीधे भारत की साम्राज्ञी बन गयी। इस सबके बावजूद 1857 के इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए जो बल प्रयोग की बजाय कूटनीतिक तरीकों से भारत पर पराधीनता की बेड़ियां जकड़ने की तैयारी में जुट गए।

तथ्यों की तोड़–मरोड़

उपर्युक्त पृष्ठभूमि में इस क्रान्ति की 150वीं वर्षगांठ के सन्दर्भ में जो सामग्री पुस्तकों और लेखों के रूप में प्रकाशित हुई, उसने क्रान्ति के कुछ तथ्यों के साथ ऐसी तोड़-मरोड़ कर डाली कि उसे देखकर विज्ञजन को दंग रह जाना पड़ा। यथा-

10 मई के मेरठ-काण्ड का नेता मंगल पाण्डेय को बना दिया, जबकि मंगल पाण्डेय को तो मार्च में ही फांसी पर चढ़ा दिया गया था।  मौलवी अहमदुल्लाह शाह उर्फ अहमदशाह उर्फ डंका शाह को फैजाबाद का एक 'जमींदार' लिखा गया, जबकि वह हैदराबाद (दक्षिण) से आया हुआ वहाबी था, जो अमेठी (जनपद लखनऊ) के तथाकथित सूफी फकीर अमीर अली के रामजन्मभूमि अयोध्या पर विफल आक्रमण के बाद उसके अधूरे काम को पूरा करने आया था, जिसे अंग्रेजों ने पकड़कर जेल में बन्द कर दिया था। क्रान्ति होने पर जेल टूटी और यह मौलवी क्रान्ति का एक नेता बना अंग्रेजों से युद्ध करता रहा। उसके आगे-आगे ऊंट पर डंका (नगाड़ा) बजता चलता था। अत: उसका नाम 'डंकाशाह' पड़ गया था। इसका विद्रोही बनने का उद्देश्य क्रान्ति नहीं, दिल्ली के लाल किले पर इस्लामी ध्वज फहराना था। पुवायां (सभी विद्वान लेखकों ने इसे 'पोवेन' लिखा, अंग्रेजी की महिमा) के राजा जगन्नाथ सिंह ने इसे पकड़कर अंग्रेजों के हवाले न कर दिया होता तो इसकी तलवार बाद में हिन्दुओं पर चलनी निश्चित थी। बेगम हजरतमहल का सेनापति मम्मू खां अंग्रेजों से मिला हुआ था। फलत: लखनऊ रेजीडेन्सी पर क्रान्तिवीर कब्जा न कर पाये। इस तथ्य का कहीं उल्लेख नहीं आया। अवध के अन्तिम नवाब वाजिद अली शाह की इस 'बेगम' का इतिहास क्या था? वह क्यों वाजिद अली शाह के साथ मटियाबुर्ज (कलकत्ता) नहीं गयी? वह फैजाबाद के एक प्रतिष्ठित हिन्दू परिवार की कन्या थी, जिसे नवाब की कुटनियां अम्मन और अमामन बहला-फुसलाकर भगा लायी थीं और नवाब के हरम में दाखिल कर दिया था। वाजिद अली के हरम में ऐसी 'बेगम' बनाकर रखी गयीं लड़कियों की भरमार थी। उसकी कुटनियां पूरी नवाबी में इसी 'शिकार' हेतु घूमती रहती थीं। स्पष्ट है कि बेगम हजरतमहल ने अय्याश नवाब के लिए नहीं, अपने पुत्र के लिए राज्य वापसी हेतु क्रान्ति का नेतृत्व किया था। तात्या टोपे को अंग्रेजों ने कोर्ट मार्शल कर शिवपुरी में 'फांसी' दी थी, यह झूठ भी अब तक लिखा-पढ़ा जाता रहा और टोपे के संरक्षक मित्र मानसिंह को 'विश्वासघाती' कहा गया, जबकि अंग्रेजों के भारी दबाव से बाध्य होकर मानसिंह ने तात्या टोपे को बचाने के लिए उनसे मिलती-जुलती शक्ल-सूरत के नारायण राव भागवत को 'तात्या टोपे' बनकर अपना बलिदान देने को सिद्ध किया था। नारायण राव भागवत का बलिदान तात्या टोपे को बचाने में सफल रहा। अंग्रेज बाद में भी अनेक वर्षों तक तात्या की खोज में लगे रहे, पर वह संन्यासी वेष में रहने के कारण उनके हत्थे नहीं चढ़े और 1909 में दिवंगत हुए। यह तथ्य अज्ञात नहीं रहा था। फिर भी लोग तात्या टोपे की 'फांसी' और मानसिंह को 'देशद्रोही' लिखते रहे।

विधि का विधान

इस बीच अन्य जो अनेक अभिलेखीय साक्ष्य अन्वेषक इतिहासज्ञों ने खोज निकाले, उनसे यह परिस्थितिजन्य साक्ष्य स्पष्ट होता है कि इस संग्राम में शामिल मुस्लिम सिपाही वहाबी विचारधारा के थे, मौलवी अहमदशाह वहाबी था और उसका ध्येय दिल्ली पर फिर से इस्लामी हुकूमत कायम करना था। उसके जैसे अन्य मुस्लिम विद्रोही भी कहीं न कहीं इस लक्ष्य के प्रति सजग थे। केवल बेगम हजरतमहल और रानी लक्ष्मीबाई का तोपखाना नायक गौस खां समर्पित भाव से क्रान्ति में सहभागी थे। मौलवी अहमदशाह व अन्य विद्रोही मुसलमानों को यह भान था कि कहीं नानासाहब पेशवा दिल्ली की गद्दी पर समासीन न हो जायें, अत: उन जैसे लोगों ने समय पूर्व ही विद्रोह कर दिल्ली पर कब्जा करके बहादुर शाह 'जफर' को पहले ही गद्दी पर बिठा दिया और क्रान्ति की सफल परिणति पर नाना साहब पेशवा के दिल्ली की गद्दी हथिया लेने के 'खतरे' का दरवाजा बन्द कर दिया।

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