मंथन
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मंथन
देवेन्द्र स्वरूप
भारत कैसे बना रहे भारत-9
क्या रहस्य हो सकता है कि जो गांधी जी 17 फरवरी, 1931 को वायसराय लार्ड इर्विन से अपना वार्तालाप आरंभ होते ही लाहौर कांग्रेस के संकल्पों के विरुद्ध जाकर लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस के सहभाग का वचन दे बैठे और उससे भी आगे जाकर पूर्ण स्वराज्य के संकल्प को त्यागकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडानल्ड द्वारा प्रथम गोलमेज सम्मेलन की समाप्ति पर 19 जनवरी, 1931 को घोषित शर्तों एवं बंधनों के भीतर औपनिवेशिक स्वराज्य का लक्ष्य अपनाने को तैयार हो गये? जिन गांधी जी ने 15-20 सदस्यों का एक बड़ा प्रतिनिधिमंडल लंदन ले जाने की बजाय स्वयं को अकेले ही गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस का प्रतिनिधि नामित करवा लिया, वही गांधी जी ज्यों-ज्यों गोलमेज सम्मेलन की तिथि निकट आती गयी, उसमें जाने को टालते रहे? बार-बार कहते रहे कि अपने मित्र लार्ड इर्विन की प्रतिष्ठा को बचाने के लिए मैं लंदन जा रहा हूं, यद्यपि इस सम्मेलन में से कुछ निकलने वाला नहीं है। दौड़ते-भागते यदि वे वहां गये भी तो बी.एस.श्रीनिवास शास्त्री की साक्षी के अनुसार, 'पहले दिन से ही गोलमेज सम्मेलन को ध्वस्त करने का निश्चय अपने मन में लेकर वहां आए थे।'
विलिंग्डन का विरोध
गोलमेज सम्मेलन के प्रति गांधी जी के इस रुख परिवर्तन के रहस्य तक पहुंचना उस समय के भारत को समझने के लिए बहुत आवश्यक है। दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार में एक फाइल है, जिसमें 12 अगस्त से 20 अगस्त, 1931 तक वायसराय विलिंग्डन और लंदन स्थित भारत सचिव के बीच हुए गोपनीय तारों के आदान-प्रदान तथा वायसराय की काउंसिल के भीतर हुए विचार-विमर्श की गाथा निबद्ध है। इस फाइल को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि वायसराय और उनकी काउंसिल गांधी जी की नई-नई मांगों के सामने झुकने को तैयार नहीं थी, उसके सामने सरकार की प्रतिष्ठा को बचाने का प्रश्न सर्वोपरि बन गया था। जबकि भारत सचिव किसी भी कीमत पर गांधी जी को द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में लाने के लिए व्याकुल थे, इसलिए वे वायसराय पर दबाव बना रहे थे कि गांधी जी की अनुचित मांगों को मानकर भी किसी न किसी प्रकार उनके लंदन पहुंचने की स्थिति पैदा कर दी जाए। एक बार तो स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि विलिंग्डन ने गांधी जी के 14 अगस्त के पत्र के अपने जवाब को मीडिया को प्रकाशनार्थ भेज दिया, जिसका अर्थ था गांधी जी के साथ अपने संवाद के टूटने की सार्वजनिक घोषणा करना और गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी के सहभागी बनने के अध्याय को पूरी तरह बंद कर देना। पर भारत सचिव ने तार भेजा कि वायसराय अपना जवाब मीडिया को कदापि न भेजें, भेजा गया है तो उसके प्रकाशन पर अविलम्ब रोक लगा दें। वायसराय की काउंसिल में भारत सचिव के इस आग्रह पर बहुत बहस हुई।
17 अगस्त के एक तार में कहा गया है कि 'हम गांधी के लंदन जाने और उनके न जाने के परिणामों के महत्व को भली-भांति समझते हुए भी यह नहीं सोच पा रहे हैं कि सरकार के सिद्धांतों व प्रतिष्ठा की रक्षा कैसे करें। यदि यह नहीं हो सका तो क्या सम्मेलन में कांग्रेस के भाग न ले पाने से अधिक गंभीर परिणाम नहीं होंगे?' वायसराय पर न झुकने के लिए एक ओर बम्बई आदि प्रांतीय गर्वनरों का दबाब पड़ रहा था, दूसरी ओर काउंसिल के मुस्लिम सदस्य मियां फजले हसन गांधी जी को मनाने की कोशिशों से मुस्लिम समाज में बढ़े रहे गुस्से का डर दिखा रहे थे। 20 अगस्त को वायसराय काउंसिल की बैठक में मियां फजले हसन स्वयं उपस्थित नहीं हुए, लेकिन उन्होंने एक लिखित नोट काउंसिल के विचारार्थ भेज दिया। फजले हसन ने अपने नोट में लिखा कि 'मुस्लिम समाज में यह सोच दृढ़ हो रही है कि यदि ब्रिटेन और भारत की ब्रिटिश सरकार गोलमेज सम्मेलन में गांधी की उपस्थिति पाने के लिए उनकी सब अनुचित मांगों के सामने झुकने को तैयार है तो हम उस सम्मेलन में हमारे हितों की रक्षा होने की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? वहां जो भी निर्णय होगा वह गांधी की इच्छा से ही होगा। गांधी को लंदन ले जाने से बड़ी समस्या उन्हें वहां आखिर तक टिकाये रखने की है, क्योंकि यदि वहां उनकी मनमर्जी का निर्णय नहीं हुआ तो वे किसी भी क्षण सम्मेलन का बहिष्कार कर वापस लौट आएंगे।'
तुष्टिकरण की शुरुआत
मुसलमानों को नाराज करने का खतरा न भारत की विलिंग्डन सरकार उठाने को तैयार थी और न ही ब्रिटेन का कनजर्वेटिव और लिबरल नेतृत्व। वस्तुत: गोलमेज सम्मेलन नामक चक्रव्यूह की सफलता का मुख्य दारोमदार भारत के मुस्लिम नेतृत्व के सहयोग पर ही निर्भर करता था। और गोलमेज सम्मेलन में पहुंचते-पहुंचते गांधी जी ने मुस्लिम प्रश्न को हल करने में अपनी असफलता को स्वीकार कर लिया था। 5 मार्च, 1931 को इर्विन के साथ अपने समझौते के क्षण से ही गांधी जी मुस्लिम प्रश्न का हल खोजने में जुट गये थे। उन दिनों बनारस, कानपुर, मिर्जापुर आदि अनेक नगरों में भयानक हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। कानपुर के मुसलमानों ने भगत सिंह की फांसी के विरोध में प्रदर्शन में शामिल होने से मना कर दिया, जिससे दंगा भड़क उठा। हिन्दू मुस्लिम एकता के बड़े प्रचारक और कांग्रेस के अध्यक्ष गणेश शंकर विद्यार्थी की एक मुस्लिम मुहल्ले में हत्या कर दी गयी। इस प्रक्षोभक वातावरण में गांधी जी की प्रेरणा से कराची के कांग्रेस अधिवेशन के अंत में 1 अप्रैल को कराची में ही जमीयत उल उलेमा का अधिवेशन रखा गया, जिसमें गांधी जी ने कानपुर के दंगों के लिए हिन्दुओं को दोषी ठहराया, उसके लिए शर्मिंदगी प्रगट की, उनकी ओर से मुसलमानों से क्षमायाचना की, उलेमा से मुस्लिम समस्या को हल करने की प्रार्थना की गई। महादेव देसाई ने अपनी डायरी के 12वें खंड में गांधी जी के उस भाषण को विस्तार से दिया है। गांधी जी ने कहा, 'इस बारे में मैं उलेमा की कदमबोसी (चरण चूमकर) करके उनकी मदद चाहता हूं। अगर हम इसमें कामयाब नहीं हुए तो गोलमेज सम्मेलन में जाना लगभग बेकार-सा होगा। मैं नहीं चाहता कि यह हुकूमत पंच बनकर हमारी आपसी लड़ाई का फैसला करे। उलेमा से मैं नम्रता से कहूंगा कि वे इस बारे में बहुत कुछ मदद कर सकते हैं। कांग्रेस और हिन्दू की हैसियत से मैं कहता हूं कि मुसलमान जो चाहें, मैं देने को तैयार हूं। मैं बनियापन नहीं करना चाहता हूं कि आप जिस चीज की ख्वाहिश करते हों, उसे एक कोरे कागज पर लिख दीजिए और मैं उसे कबूल कर लूंगा। जवाहर लाल ने भी जेल से यही बात कही थी। यहां से हम दिल्ली जाएंगे। मोहम्मद शौकत अली का तार हमें मिला है कि दिल्ली में मुसलमानों की परिषद् हो रही है, उसमें कांग्रेस की तरफ से एक समिति भेजो। सरदार पटेल (कांग्रेस अध्यक्ष) ने समिति के सदस्यों के नाम भी भेज दिये हैं। 4-5 अप्रैल को वह परिषद् होगी। उसमें पूरी कोशिश की जाएगी। मैं जानता हूं कि कानपुर बगैरह की घटनाओं से मुसलमान भाई बहुत चिढ़ गए हैं, पर इस समय हमारा फर्ज है कि किसी न किसी तरह हम इस मामले का निपटारा कर लें। कांग्रेस पर यह आरोप लगाया जाता है कि वह हिन्दुओं की है। यह आरोप झूठा है। कांग्रेस हर कौम की है। उसमें मुसलमान शामिल न हों तो कांग्रेस क्या करे? मैं तो आपसे अर्ज करता हूं कि आप कांग्रेस पर कब्जा जमा लें…मैं आपके समान विद्वानों को, उलेमाओं को एक हिन्दू यह बात निहायत अदब के साथ कहना चाहता हूं।' आगे महादेव देसाई लिखते हैं '4 अप्रैल को गांधी जी दिल्ली पहुंचे। वहां मोहम्मद शौकत अली द्वारा आहूत सभी पक्षों की मुस्लिम परिषद् हुई। उसमें कांग्रेस की ओर से डा.अंसारी और मौलाना आजाद ने पृथक मताधिकार का विरोध किया किन्तु शौकत अली उस पर अड़े रहे। तब अंसारी और आजाद ने गांधी जी को सलाह दी कि वे स्वयं शौकत अली को समझाएं। गांधी जी ने शौकत अली से कहा 'वे लोग (अंसारी और मौलाना आजाद) जो कहें वह मुझे सुनना चाहिए या आप जो कहें वह मुझे सुनना चाहिए। मुझे तो आप लोगों से यही प्रार्थना करनी है कि आप लोग एकजुट हों। एकजुट होकर मुसलमान कौम की ओर से आप जो भी मांगेंगे, मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूंगा।' महादेव देसाई ने लिखा है, 'इस रुख से शौकत अली चिढ़ गए और क्रोध में आकर जो नहीं भी बोलना चाहिए, वह भी बोले।' (पृ.244) 8 अप्रैल को लखनऊ में मुसलमानों की राष्ट्रीय परिषद हुई। लखनऊ सम्मेलन के लिए भेजे अपने संदेश में गांधी जी ने कहा, 'आप लोग अपना आग्रह छोड़ दें और शौकत अली का पक्ष जो चाहता है, वह हम उसे दे दें। इसलिए नहीं कि वे जो मांगते हैं वही न्याय है, बल्कि एक सत्याग्रही की दृष्टि से।'
उहापोह की स्थिति
शौकत अली के दिल्ली सम्मेलन का वर्णन गांधी जी की आश्रमवासी डा.सुशीला नैयर ने अपनी वृहदकाय रचना 'महात्मा गांधी' के खंड 6 में जरा विस्तार से दिया है। वे लिखती हैं कि शौकत अली ने गृह युद्ध की धमकी दी। किन्हीं जहूर अहमद ने प्रस्ताव रखा कि यदि मुसलमान आत्मरक्षार्थ हथियार उठायें तो ब्रिटिश सरकार को उनके रास्ते में नहीं आना चाहिए। मलिक फिरोजखान नून ने जिन्ना की 14 सूत्री मांगों को दोहराते हुए राजनीतिक प्रस्ताव पेश किया और कहा कि यदि रक्षा तंत्र पर नियंत्रण की कांग्रेसी मांग को मान लिया गया तो मुसलमानों की हैसियत घास-खुदों जैसी हो जाएगी।' 30 मई, 1931 को बम्बई में अ.भा.खिलाफत कांफ्रेंस का सम्मेलन हुआ। वहां मौ.अब्दुल मजीद बदायुंनी ने शौकत अली के दिल्ली सम्मेलन की मांगों से पूर्ण मतैक्य प्रगट किया। अब मुस्लिम नेतृत्व ने यह कहना शुरू कर दिया कि कांग्रेस की स्वतंत्रता की मांग भारत पर हिन्दू राज स्थापित करने का षड्यंत्र है। मुस्लिम कांफ्रेंस की कार्यसमिति की दिल्ली बैठक में मौ.हसरत मोहानी ने प्रस्ताव रखा कि 'मुस्लिम समुदाय को यह पक्का यकीन हो गया है कि हिन्दू लोग भारत में हिन्दू राज स्थापित करने पर तुले हुए हैं। इसलिए इस कमेटी का विश्वास है कि भारत में डोमीनियन स्टेट्स और प्रांतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना मुस्लिम हितों के लिए हानिकारक है और इसलिए वे उन्हें स्वीकार्य नहीं है।'
पृथक मताधिकार और द्विराष्ट्रवाद
मुस्लिम समाज की ओर से इस व्यापक विरोध से चिंतित होकर गांधी जी ने 9 से 11 जून, 1931 तक बम्बई में आयोजित कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के सामने प्रस्ताव रखा कि साम्प्रदायिक वैमनस्य की समस्या का कोई हल न निकल पाने के कारण अब मुझे लंदन जाने का विचार त्याग देना चाहिए। उन्हीं दिनों गांधी जी पंजाब के दौरे पर गए। वहां लुधियाना में गांधी जी के निवास पर 10-15 हजार लोगों की भीड़ जमा हो गई। मास्टर तारा सिंह की अध्यक्षता वाली सिख लीग ने बार-बार तार देकर गांधी जी को पंजाब बुलाया था। उसके अध्यक्ष मास्टर तारा सिंह से गांधी जी ने पूछा कि मुझे क्यों बुलाया। तारा सिंह ने कहा कि 'राष्ट्रीय स्तर पर आप जो करवाएं हम करने को तैयार हैं, पर आप तो मुसलमानों को सब कुछ देने की सलाह देते हैं। हम लोगों को यह सब मुसलमानों के कौमी दबाव के सामने झुकने जैसा लगता है, जो हम सहन नहीं कर सकते। साम्प्रदायिक दृष्टि से लिए गये इस निर्णय को हम स्वीकार नहीं कर सकते।' इसके उत्तर में गांधी जी ने कहा 'यदि एक पूरी कौम किसी वस्तु के बगैर संतुष्ट होने को तैयार न हो और हमें उनके साथ ही रहना हो तो उनकी बात मानकर ही तो उनको जीता जा सकता है न? दूसरा उपाय क्या है?' सिखों ने कहा, 'दूसरा उपाय यह है कि उनके समान दबाव डालकर वे जो भी मांगेंगे, वही हम भी मांगेंगे।' गांधी जी ने कहा, 'एक कौम को उसकी मांग के अनुसार दे देने में ही मैं राष्ट्र की एकता मानता हूं। आप राष्ट्रीय ध्वज के लिए भी आपत्ति करते हैं। आपको अपना रंग राष्ट्रीय ध्वज में चाहिए। आज का राष्ट्रीय ध्वज मेरी कल्पना के अनुरूप है। उस ध्वज में पूरे देश का त्याग सम्मिलित है। फिर भी एक कौम के संतोष के लिए, आपके लिए ही मैं उसे बदलने के लिए तैयार हुआ हूं, तो उसी प्रकार मुस्लिम कौम के लिए मैं आपको त्याग करने के लिए क्यों नहीं कह सकता? (महादेव देसाई की डायरी, खंड 12, पृ.253-254)
क्या सचमुच गांधी जी मानते थे कि मुसलमानों की पृथक मताधिकार की मांग मान लेने से भारत में राष्ट्रीय एकता स्थापित होगी? यदि ऐसा ही था तो कांग्रेस के नरमदलीय नेतृत्व ने भी 1909 के एक्ट में मुसलमानों को दिये गये पृथक मताधिकार के निर्णय को 1916 के लखनऊ समझौते तक स्वीकार क्यों नहीं किया? और 1916 में स्वीकार किया तो भी एक अल्पकालीन आपद् धर्म के रूप में? पृथक मताधिकार के विभाजनकारी दुष्परिणाम को ध्यान में रखकर लाला लाजपत राय ने 1924 नवम्बर- दिसंबर में अंग्रेजी दैनिक ट्रिब्यून में प्रकाशित अपनी लम्बी लेखमाला में भविष्यवाणी की थी कि यदि पृथक मताधिकार बना रहा और मुस्लिम राजनीति का चरित्र वही रहा जो आज है, तो भारत का विभाजन अवश्यंभावी है। तभी उन्होंने पूर्वी और पश्चिमी भारत में चार मुस्लिम राज्यों की स्थापना की चेतावनी दे दी थी। पर तब से अब तक भारतीय राजनीति का चरित्र बहुत बदल चुका था और लंदन पहुंचते ही गांधी जी ने यह कहना आरंभ कर दिया कि ऐतिहासिक कारणों से मैं मुसलमानों और सिखों के लिए पृथक मताधिकार देने को तैयार हूं। इसका अर्थ हुआ कि जाने या अनजाने उन्होंने जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया lÉÉ* 3.5.2012 ं(क्रमश:)
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