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साहित्यिकी
मजबूरी के रिश्ते
n घमंडीलाल अग्रवाल
मजबूरी की गांठों से अब
रिश्ते बंधे हुए!
रोम–रोम में अपनेपन की
भाषा धुंधलाई,
स्नेह दूर तक नजर न आता
गायब सच्चाई,
रूखेपन के मंडराते हैं
दिल के पास सुए!
मुखर वेदनाओं की सरगम
कहें भावनाएं
सिमटी–सिमटी सी मानवता
हंसें कामनाएं,
बदले हुए दौर में आए
कैसे दिवस मुए!
अहसासों ने रात–रात भर
आह भरी गहरी,
कितनी बार शिकायत लाई
कसक बनी शहरी,
कौन भला मुस्कानों वाले
कंपित अधर छुए!
पिता–पुत्र, भाई–भाई में
ठनती रोजाना,
सपनों को आहत कर जाता
साथी पहचाना,
संस्कार कोने में दुबके
टप–टप दर्द चुए!
गोमांस के भ्रामक दुष्प्रचार का सच
l विभूश्री
पुस्तक का नाम – प्राचीन भारत में गोमांस
एक समीक्षा
प्रकाशक – अ.भा. इतिहास
संकलन योजना
आप्टे भवन, केशव कुञ्ज,
झण्डेवालां, नई दिल्ली -55
मूल्य – 230 रुपए, पृष्ठ – 235
वेदों, पुराणों और भारतीय संस्कृति में गाय को मां के समतुल्य माना गया है। अपने स्वभाव, दूध में उपस्थित जीवनदायक गुण और अन्य अनेक प्रकार से लोगों को लाभाविन्त करने वाली गाय को प्राचीन काल से ही पूज्य माना गया है। इसके बावजूद कुछ विधर्मी और क्षुधा अग्नि को शांत करने के लिए किसी भी तरह के पदार्थ का भक्षण करने से परहेज न करने वाले लोग गोमांस भी खा लेते हैं। हालांकि यह आज के दौर का ही कुकृत्य है, लेकिन कुछ लोग कुतर्क देकर 'प्राचीन काल में भी ऐसा किया जाता था' कहते हैं। इस दुष्प्रचार और महाझूठ का पर्दाफाश करने के लिए, प्राचीन भारत में गोहत्या, गोमांस भक्षण और गोचर्म के उपयोग के संबंध में अनेक उद्धरणों को संकलित कर एक समीक्षापरक पुस्तक 'प्राचीन भारत में गोमांस: एक समीक्षा' कुछ समय पूर्व प्रकाशित होकर आई है। इस पुस्तक की प्रथम आवृत्ति का प्रकाशन वर्ष 1970 में हो चुका था, अब इसका नवीन संस्करण बाजार में आया है। गोमांस भक्षण के दुष्प्रचार से जुड़ी अनेक तरह की भ्रांतियों और प्राचीन समय में न होने वाले इन कुकृत्यों को पुस्तकाकार में संकलित कर 'अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना' के अंतर्गत पुस्तक का प्रकाशन किया गया है।
इस पुस्तक के विस्तृत विवेचन और अनेक उद्धरणों से यह सिद्ध हो जाता है कि 'वैदिक काल में गोहत्या और गोमांस के भक्षण का प्रचलन था'- यह कथन मनगढ़ंत है और जानबूझकर हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा और गरिमा को क्षति पहुंचाने के लिए किया जाता रहा है। पुस्तक के पहले अध्याय में सभी प्रकार के मांस को मनुष्य के लिए स्वाभाविक खाद्य में पूर्णत: निषिद्ध बताया गया है। इसके भक्षण से उत्पन्न होने वाले पाचन सम्बंधी नुकसान और चेतनाशीलता में क्षरण को सिद्ध किया गया है।
पुस्तक के दूसरे अध्याय में पाश्चात्य देशों के विद्वानों की लेखनी और उनकी नीयत के बीच मौजूद गहन अन्तर्विरोधों को सिद्ध किया गया है। विद्वान होने के बावजूद अनेक तरह के दबावों की वजह से उन्होंने सच को उस रूप में प्रस्तुत नहीं किया जिस तरह उसे प्रस्तुत करना चाहिए था। प्रोफेसर विल्सन, रूडोल्फ रॉथ, वेबर और मैक्समूलर जैसे कई विद्वानों की पक्षपातपूर्ण और पूर्वाग्रह से ग्रसित धारणा की सच्चाई को इसमें अनावृत्त किया गया है। अगले अध्याय में अनेक श्लोकों और उद्धरणों के आलोक में यह प्रमाणित किया गया है कि प्राचीन काल में न केवल गोवंश की हत्या करना पाप कर्म समझा जाता था बल्कि धर्म शास्त्रों में अहिंसा को ही धर्म की विशेषता माना गया है।
आगे के अध्यायों में उन सभी संदेहों, भ्रामक प्रचारों और आरोपों का सप्रमाण निराकरण किया गया है जो कुछ अज्ञानी और स्वार्थी लोगों द्वारा समय-समय पर फैलाए जाते रहे हैं, जिससे हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाले लोगों की श्रद्धा को ठेस पहंुचती है। 'ब्रहदारण्यक उपनिषद में गोमांस भक्षण का प्रसंग', 'राजा रन्तिदेव द्वारा गोवध', 'वैदिक यज्ञों में गोहिंसा और मांस भक्षण' 'विवाह के अवसर पर गोहत्या और मांस भक्षण 'शवदाह के अवसर पर गोहत्या', 'विवाह एवं राज्याभिषेक के अवसर पर चर्म के लिए लाल बैल की हत्या' जैसे अनेक निराधार आक्षेपों का इस पुस्तक में अनेक प्रमाणों के द्वारा निराकरण किया गया है। 'कुत्सित बुद्धि के लोगों की विवेकशून्यता का प्रमाण इस बात से भी मिलता है कि उन्होंने याज्ञवल्क्य और अगस्त्य जैसे ऋषियों पर भी गोहिंसा का आरोप लगाया है।' दुराग्रही आरोपों का भी समाधान इस पुस्तक में किया गया है। यह पुस्तक जहां एक ओर कुत्सित बुद्धि के लोगों की मेधाहीनता को सामने लाती है वहीं हिन्दू धर्म में गोवंश की महत्ता को भीे प्रकट करती है। n
संत पुरुष की प्रेरकगाथा
पुस्तक – संत रविदास की रामकहानी
लेखक – देवेन्द्र दीपक
प्रकाशक – आर्य प्रकाशन मंडल
9/221, सरस्वती भण्डार
गांधी नगर, नई दिल्ली-31
मूल्य – 250 रु. पृष्ठ-181
मध्यकालीन संत कवियों में कबीरदास के बाद सबसे महत्वपूर्ण संत रविदास को माना जाता है। रैदास के नाम से प्रसिद्ध हुए इस महान रचनाकार ने जीवन-जगत में रहते हुए भी स्वयं को इसकी मोह-लिप्सा से दूर रखा। साथ ही जीवन के शाश्वत मूल्यों की सार्थकता और समाज के संकीर्ण दृष्टिकोण की निरर्थकता सिद्ध करने को ही अपने लेखन का आधार बनाया। उनका लेखन ही नहीं, बल्कि उनका संपूर्ण जीवन भी ऐसे प्रेरक प्रसंगों से समृद्ध रहा जिससे कोई भी चेतनाशील व्यक्ति अपने जीवन की दिशा खोज सकता है। इस महापुरुष के जीवन के प्रमुख प्रसंगों को रोचक वार्तालाप की शैली में और कई स्थानों पर स्वयं उनके कथन के द्वारा प्रस्तुत कर सुपरिचित लेखक देवेन्द्र दीपक ने इस दिशा में एक महत्वपूर्ण काम किया है। 'संत रविदास की रामकहानी' शीर्षक नामक इस कृति में लेखक ने रविदास से काल्पनिक बातचीत करते हुए उनकी रामकहानी स्वयं उनसे अभिव्यक्त करवाई है। इसी कारण यह पुस्तक रोचक बन पाई है।
पुस्तक की भूमिका में देवेन्द्र दीपक लिखते हैं, 'अनेक दृष्टियों में रविदास का व्यक्तिगत और कृतित्व महत्वपूर्ण है। कथ्य और कथन की दृष्टि से न केवल उनका काव्य विलक्षण है, वरन् उनका पूरा जीवन भी चुनौतियों और संघर्षों की गाथा है। रविदास ने अपने जीवन और काव्य में दोनों दिशाओं से आने वाली चुनौतियों का सामना किया। यह संघर्ष गाथा उनकी सहनशीलता और मानसिक दृढ़ता को तो रेखांकित करती ही है, उनके रचनात्मक सोच को भी प्रकट करती है। संत रविदास की आध्यात्मिक चेतना और सामाजिक समरसता को सर्वोपरि मानने वाली उनकी दृष्टि ने ही उन्हें महापुरुषों की पंक्ति में पहुंचाया। इसी विराट और व्यापक वैचारिक दृष्टिकोण के चलते ही सामाजिक रूप से निम्न समझे जाने वाले कुल में जन्म लेने के बावजूद वे सभी वर्गों और जातियों के लिए पूज्य बन गए। उनके जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों और जीवन दर्शन को व्यक्त करती घटनाओं के बारे में जानकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्होंने वह दिव्यता कैसे हासिल की!'
लेखक ने सरल- सहज भाषा-शैली में संत रविदास के जीवन के अनेक प्रसंगों को क्रमानुसार संकलित किया है। जैसे निम्न कहे जाने वाले कुल में जन्म लेने की उनमें किस तरह की हिचक थी? किस तरह किशोरावस्था से ही वह प्रकृति के रंगों और ईश्वर की भक्ति में खो जाते थे? किस तरह विवाह के लिए तैयार हुए? लोना के रूप में कैसे उन्हें सुघड़, बुद्धिमान और पतिव्रता पत्नी मिली? किस तरह स्वामी रामानंद ने उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर उन्हें दीक्षा प्रदान की? ऐसे अनेक प्रेरक प्रसंग इस पुस्तक को रोचक और महत्वपूर्ण बना देते हैं। कथा के साथ-साथ समानान्तर रूप से रविवास की 'साखी' और 'सबद' के रूप में शिक्षाप्रद और प्रेरक पद्य पंक्तियां इस कृति को और भी सरस बना देती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि लेखक इसे संत रविदास की जीवनी के रूप में सीधे-सरल ढंग से अर्थात् पारम्परिक रूप में लिखते तो यह कृति शायद उतनी प्रभावी न बन पाती जितनी यह बन पड़ी है। लेखक ने संत रविदास के जीवन दर्शन को समझकर सटीक शैली का चयन किया है। पुस्तक के संदर्भ में सुपरिचित विद्वान लेखक डा. बलदेव वंशी का यह कहना सर्वथा उचित है कि 'संत रविदास की वाणी में पौराणिक आख्यानों, भक्तिमय कर्म के योग विषयक विचारों, लोक में व्याप्त पारंपरिक रंग-रूपों को यथावश्यक प्रयुक्त करके देवेन्द्र दीपक ने एक बड़े अभाव की पूर्ति कर एक महत्वपूर्ण कार्य किया है।' n
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