उत्तर प्रदेश
|
उत्तर प्रदेश/ हरिमंगल
उत्तर प्रदेश में वाम दलों की भूमिका नदारद
उत्तर प्रदेश की राजनीति से वामपंथी दलों का बोरिया-बिस्तर बंध चुका है। चुनाव-दर-चुनाव न केवल उनके समर्थक मतदाताओं की संख्या घट रही है अपितु विधानसभा में उनका संख्या बल शून्य तक जा पहुंचा है, पर वामपंथी दल हैं कि सच्चाई से मुंह मोड़ते हुए लगातार हर चुनाव में ताल ठोंके जा रहे हैं। हालांकि उ.प्र. की राजनीति में वामपंथी दल कभी भी इस स्थिति में नहीं रहे कि वे सत्ता में आ सकें या फिर सत्ता का समीकरण बना-बिगाड़ सकें। लेकिन राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त ये दोनों वामपंथी दल-माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), उ.प्र. में हर चुनाव में बड़े दम-खम और दावे से अपने प्रत्याशी उतारते रहे हैं। वामपंथी दलों की यह असलियत बहुत दिनों तक उ.प्र. के मतदाताओं से छिपी न रह सकी, परिणाम यह हुआ कि वामपंथी दलों की लोकप्रियता का आंकड़ा हर चुनाव में एक साथ कई-कई पायदान नीचे गिरता चला गया। आज की बात करें तो उ.प्र. से लोकसभा या प्रदेश की विधानसभा में वामपंथी दलों की हिस्सेदारी शून्य है।
विधानसभा चुनावों की बात करें तो पिछले तीन चुनावों से दोनों वाम दलों की स्थिति लगातार दयनीय हुई है। 1996 के विधानसभा चुनावों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 15 और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने 11 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे थे, उनमें से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का एक तथा माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के चार प्रत्याशी निर्वाचित हुए, लेकिन इसी के साथ भाकपा के 7 तथा माकपा के एक प्रत्याशी की जमानत जब्त हो गयी। 2002 के विधानसभा चुनावों में भाकपा ने मात्र 5 प्रत्याशी ही मैदान में उतारे। इनमें से किसी को भी सफलता नहीं मिली। पार्टी को इस चुनाव में कुल मिलाकर 69,548 मत प्राप्त हुए। माकपा की स्थिति थोड़ी अच्छी रही, उसने कुल 6 प्रत्याशी उतारे थे। इनमें से उसे दो सीटों- नजीबाबाद और मेजा में सफलता मिली। हालांकि उसे भी सभी सीटों पर कुल मिलाकर 1,63,462 मत ही प्राप्त हुए थे। इस चुनाव में भाकपा के 4 तथा माकपा के 3 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गयी।
2007 का विधानसभा चुनाव दोनों वाम दलों के लिए बहुत निराशाजनक रहा। प्रदेश के मतदाताओं ने दोनों दलों की सच्चाई जानते हुए उनकी हैसियत का आभास करा दिया। भाकपा ने इस चुनाव में कुल 21 प्रत्याशी मैदान में उतारे और सभी प्रत्याशी न केवल चुनाव हारे अपितु सभी को अपनी जमानत गंवानी पड़ी। इस चुनाव में प्रदेश भर से भाकपा को कुल मिलाकर 48,226 मत ही प्राप्त हुए। माकपा ने भी 14 प्रत्याशी खड़े किये और वे सभी प्रत्याशी चुनाव हार गये, उनमें से 11 को अपनी जमानत भी गंवानी पड़ी। प्रदेश भर में इस पार्टी को कुल मिलाकर 1,59,028 मत प्राप्त हुए।
चुनाव दर चुनाव घटते समर्थकों से दोनों ही पार्टियों के रणनीतिकार परेशान हैं। दोनों वामपंथी दल तमाम प्रयासों के बाद भी पिछले पांच वर्ष में एक भी ऐसा आन्दोलन नहीं खड़ा कर सके जिसके कारण वह चर्चा में आते। जिन पिछड़ों के मसीहा बनने का दावा यह दल करते रहे हैं, वह वर्ग कब का इनसे दूर जा चुका है। छात्र राजनीति में भी इनका वर्चस्व समाप्त हो चुका है। ऐसी स्थिति में प्रदेश की राजनीति में इन्हें अपना अस्तित्व बचाने का संकट आ खड़ा हुआ है। यही कारण है कि वर्तमान विधानसभा चुनावों में दोनों दलों ने ऐसे सभी स्थानों पर अपने प्रत्याशी खड़े करने का प्रयास किया है जहां उन्हें पहले कभी थोड़ा-बहुत समर्थन मिला करता था। भाकपा ने इस बार 52 प्रत्याशियों का नाम घोषित किया है तो माकपा ने 18 का। इसी के साथ वामपंथी दलों ने अन्य दलों से सहयोग लेने की भी रणनीति बनायी है। परन्तु इन दोनों दलों में भले ही सामंजस्य बैठ जाए, लेकिन इन्हीं दलों से निकले वामपंथियों द्वारा बनायी गयी अन्य पार्टियां भी इनसे समझौता नहीं कर रही हैं और वह अपने प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतार रही हैं। इन सबका परिणाम तो चुनाव बाद ही पता चलेगा, लेकिन राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि राष्ट्रीय दल के रूप में चुनाव लड़ने वाले भाकपा और माकपा का इस बार भी वही हश्र होगा जो 2007 के विधानसभा चुनावों में हुआ था। द
टिप्पणियाँ