अपराधियों को न चुनें
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दल-बदलुओं और
राजनाथ सिंह “सूर्य”
निर्वाचन आयोग निरन्तर प्रयत्नशील है कि देश में चुनाव निष्पक्ष, भ्रष्टाचार और हिंसा मुक्त हों। मतदाता बिना किसी दबाव, प्रभाव या प्रलोभन के मतदान कर सकें। इसके लिए चुनाव प्रक्रिया में अनेक सुधार किए गए तथा मतदाताओं को दबाव रहित होकर मतदान करने व इसके लिए प्रोत्साहित करने के भी प्रयास किए गए। मतदाता पहचान पत्र के कारण अब फर्जी मतदान की संभावना भी कम होती जा रही है। लेकिन सुयोग्य लोगों के संसद या विधानसभाओं के लिए चुने जाने की नितांत आवश्यकता के मार्ग में जो सबसे बड़ी बाधा है- यानी अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को चुना जाना-उस दिशा में अभी तक अधिक सफलता नहीं मिल पायी है। क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल इसके लिए कानूनी प्रावधान करने पर शब्दाचार और दूसरे दलों पर दोषारोपण करने से अधिक और कुछ नहीं कर रहा है। संसद या विधानसभाओं के लिए चुने जाने से पूर्व नामांकन दाखिल करते समय प्रतिनिधि को उन पर लंबित मुकदमों के बारे में लिखित जानकारी देनी पड़ती है। इससे यह पता चलता है कि प्रत्येक निर्वाचन में अपराधी और दागी तत्वों की संख्या बढ़ती जा रही है।
राजनीति में शुचिता का अभाव
अपराध और अपराधी के संदर्भ में यह धारणा प्रचलित है कि जब तक अंतिम रूप से कोई व्यक्ति न्यायालय द्वारा दंडित नहीं किया गया हो तब तक उसे अपराधी की संज्ञा प्रदान नहीं की जा सकती। इस परिदृश्य में अनेक विधायक और सांसद ऐसे हैं जिन्हें निचली अदालत से मिला दण्ड ऊपरी अदालत में स्थगित हो गया है और वे जमानत पर हैं, इसलिए वे स्वयं को अपराधी नहीं मानते और विभिन्न सदनों के सदस्य हैं। निर्वाचन आयोग ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया है कि जिस अपराध में पांच वर्ष या उससे अधिक का कारावास दिया जा सकता है, उसमें अरोपित व्यक्ति को चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया जाए। अभी यह कहना कठिन है कि विभिन्न राजनीतिक दल इसे कानूनी स्वरूप देने पर सहमत होंगे या नहीं। क्योंकि सत्ता में बने रहने या सत्ता पाने की प्राथमिकता सर्वोपरि होने के कारण राजनीतिक क्षेत्र से शुचिता जैसा शब्द भी लुप्त प्राय: हो चुका है। मृत्यु दण्ड की सजा पाए तथा कारावास में वर्षों से बंद रहने वाले भी इस समय सांसद या विधायक हैं।
चुनाव में धन का बढ़ता प्रभाव
जिन पांच राज्यों में इस वर्ष विधानसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी हैं, उनमें उम्मीदवारों के चयन में केवल और केवल विजय की संभावना का आकलन कर ही उम्मीदवारों के चयन को प्राथमिकता दी जा रही है। भारतीय जनता पार्टी के सांसदों ने उनके विदेशों में बैंक खाता न होने तथा काला धन न होने के बारे में एक शपथपत्र राज्यसभा के सभापति और लोकसभा अध्यक्ष को दे दिया है। यह एक अच्छी पहल कही जा सकती है। यदि इसका अनुकरण अन्य दलों के सांसद तथा विधायक भी करें तो कम से कम इतना तो संतोष हो सकता है कि “अपराध” की इस श्रेणी को राजनीति से दूर रखा जा सकता है। क्योंकि चुनाव अभियान में प्रचार संबंधी अनेक प्रतिबंधों के बावजूद धन का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है। अब तो निर्वाचन आयोग ने विधानसभा चुनाव में खर्च की सीमा पंद्रह लाख रुपए से बढ़ाकर पच्चीस लाख रुपए कर दी है। चुनाव में प्रत्यक्ष खर्च भले ही कम दिखाई पड़ता हो लेकिन मतदाताओं को सीधे रुपए देने का चलन बढ़ता ही जा रहा है। पिछले चुनावों में ऐसा करते पकड़े जाने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई न होने से चुनाव में धन का प्रभाव कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है।
दल-बदलुओं को महत्व क्यों?
धनबल और बाहुबल बढ़ते जाने का एक बड़ा कारण है राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का समाप्त होते जाना और “”सुप्रीमो”” के रूप में व्यक्तिगत आधार पर राजनीतिक प्रभाव का बढ़ना। ऐसी स्थिति के कारण ही परिवारवाद को बढ़ावा मिल रहा है तथा चाटुकारिता से महत्वपूर्ण बनने के सरल मार्ग से राजनीति में पद पाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस स्थिति ने सिद्धांतवादी राजनीति का अंत कर दिया है और चारित्रिक शुचिता को बीते जमाने की बात बना दिया है। इसका घातक परिणाम हुआ है दल-बदल। दल-बदल कानून को सख्त बनाया गया है, पर वह केवल विधानसभा या संसद का चुनाव जीतने के बाद लागू होता है। चुनाव के पूर्व का दल-बदल उससे अप्रभावित है। कोई भी दल ऐसा नहीं है जो दल-बदलुओं को प्रश्रय न देता हो। उत्तर प्रदेश में ऐसे कई विधायक और मंत्री हैं जो “चारों धाम” अर्थात्-कांग्रेस-भाजपा-सपा और बसपा-की परिक्रमा कर चुके हैं। और अब उनको सर्वाधिक अनुकूल नई नवेली “पीस पार्टी” मालूम पड़ रही है। जिस बसपा ने सपा के अन्याय और अत्याचारी शासन के खिलाफ जनता को 2007 में आकर्षित किया था, उस पार्टी में इस प्रकार के सर्वाधिक तत्व विद्यमान हैं। लोकायुक्त के निर्देश पर बसपा को करीब एक दर्जन मंत्रियों को निकालना पड़ा है, कुछ को टिकट से वंचित करने की घोषणा करनी पड़ी है, लेकिन मायावती ने शपथ ग्रहण करने के दिन ही हत्या के मामले में जेल में निरुद्ध व्यक्ति को मंत्री बनाकर यह स्पष्ट कर दिया था कि उनकी प्राथमिकता क्या है। बसपा या सपा का इन तत्वों के प्रति लगाव के बारे में तो कोई भ्रम नहीं रह गया है। लेकिन आश्चर्य तो यह है कि कांग्रेस ने भी अब तक उम्मीदवारों की जो सूची जारी की है उसमें एक तिहाई के लगभग ऐसे उम्मीदवार हैं जो टिकट पाने के समय ही कांग्रेस में शामिल हुए हैं। ऐसे अवसरवादी तत्वों के खिलाफ कांग्रेसियों में रोष जरूर है, उसकी कहीं न कहीं अभिव्यक्ति भी हो रही है, लेकिन नेतृत्व पर उसका कोई प्रभाव नहीं है। भाजपा ने एक सूची जारी की है, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या वह ऐसे तत्वों से बची रहेगी, क्योंकि उसके लिए भी जीत ही प्राथमिकता है।
जगें और जगाएं, तब बनेगी बात
एक के बाद दूसरे निर्वाचन में अधिवक्ता, अध्यापक, चिकित्सक आदि क्षेत्रों के प्रतिनिधियों की संख्या घटती जा रही है, क्योंकि उनके लिए माहौल प्रतिकूल होता जा रहा है। प्रत्याशी चयन में प्राथमिकता उसी को मिल रही है जो अधिक धन खर्च कर सकता है। एक दल के बारे में तो यह आम धारणा है कि बिना कुछ दिए उसका टिकट ही नहीं मिलता, लेकिन बाकी के दल भी कमोबेश इस चर्चा से पूर्णत: मुक्त नहीं हैं। ऐसे में क्या यह मान लिया जाए कि कोई भी उपाय स्वच्छ छवि और निष्ठा की राजनीति करने वालों के लिए अब राजनीतिक क्षेत्र निषिद्ध होता जा रहा है। अण्णा हजारे एक प्रकार का अभियान चला रहे हैं। वे केवल लोकपाल तक सीमित हैं, लोकतंत्र के लिए अभी मुखरित नहीं हुए हैं, फिर भी उनके अभियान से जनचेतना जगी है। स्वामी रामदेव का अभियान काला धन के साथ-साथ काली राजनीति के भी खिलाफ है। उन्होंने आपराधिक तत्वों को, चाहे वे किसी भी दल के उम्मीदवार हों, वोट न देने का अभियान गांव-गांव चलाया है। धन व जाति के प्रभाव, सिद्धांतविहीन और आस्थाविहीन राजनीतिक चलन को वे प्रभावित अवश्य कर रहे हैं, लेकिन क्या इस सीमा तक कर सकेंगे कि ऐसे तत्वों को मतदाता नकार दें?
राजनीति में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण है दलों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव। निर्वाचन आयोग इस संदर्भ में पूरी तरह असफल है। इसके लिए जहां राजनीतिक दलों में चुनाव संबंधी प्रक्रिया के सत्यापन का ठोस उपाय आवश्यक है, वहीं किसी दल का उम्मीदवार बनने के लिए कम से कम पांच वर्ष तक उसमें सक्रिय भूमिका की अपरिहार्यता होना आवश्यक है। किसी भी व्यक्ति की विचारधारा में बदलाव पद और लोभ पर आधारित न हो, यह सुनिश्चित करना चाहिए। ऐसा न होने के कारण राजनीति से वे लोग बाहर होते जा रहे हैं जिनका वैचारिक निष्ठा, सैद्धांतिक प्रतिबद्धता और चारित्रिक शुचिता में विश्वास है। इसलिए राजनीति एक व्यवसाय बनती जा रही है। वह जुए का ऐसा अड्डा हो गयी है, जिसमें उसी मोहरे पर दांव लगाने वाले बढ़ते जा रहे हैं जिससे ज्यादा लाभ हो सके। कई संस्थाएं इस सबके विरुद्ध मतदाताओं को जाग्रत करने के अभियान में लगी हैं, लेकिन समाज का जो प्रबुद्ध वर्ग माना जाता है, वह उदासीन है। उसको सक्रिय होना होगा। गांव-गांव यह संकल्प कराना होगा कि चुनाव के ठीक पूर्व दल-बदल करने और वंशवाद का प्रतिनिधित्व करने वाले को किसी भी कीमत पर जीतने नहीं देंगे। द
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