आग से मत खेलो
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मुस्लिम आरक्षण के बाद अब पृथक निर्वाचन क्षेत्र की मांग
मुजफ्फर हुसैन
बात 1983 की है। एक बार जमीयतुल उलेमा के नेता मदनी के नेतृत्व में समस्त मुस्लिम सांसद मुस्लिमों की मांगों पर एकजुट होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने गए थे। उस समय इंदिरा जी ने प्रश्न किया था कि आप अपने राजनीतिक दल की हैसियत से मिलने आए हैं अथवा मुस्लिम होने के नाते? मदनी का उत्तर था सभी राजनीतिक दलों के मुस्लिम सांसद मुसलमानों की समस्याओं पर एक मत होकर आपके पास आए हैं। तब इंदिरा जी ने उन्हें लताड़ते हुए कहा था आप आग से खेल रहे हैं। इसके पश्चात् किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वे इंदिरा जी से कुछ कहते। आज की कांग्रेस इतनी बदल गई है कि किसी भी दल का मुस्लिम सांसद हो उसे केवल मुस्लिम की हैसियत देकर बातचीत की जाती है। इन राजनीतिक दलों की अब मुस्लिम के नाते कोई अलग पहचान नहीं है। वे केवल और केवल मुसलमान की हैसियत से अपनी मांगें पेश करते हैं। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि अब मुस्लिम लीग और अन्य दलों में कोई अंतर नहीं रहा है। रंगनाथ मिश्र आयोग हो या फिर सच्चर समिति की सिफारिशें उन पर राष्ट्रीयता की दृष्टि से विचार न करके केवल मुस्लिम की हैसियत से सभी मुस्लिम नेता विचार करते हैं। इसमें मुसलमानों का जितना दोष नहीं है उससे बढ़कर हमारे प्रधानमंत्री का है। क्योंकि वे यह कहते हैं कि 16 प्रतिशत मुसलमान होने के कारण देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है। जब प्रधानमंत्री ही देश के संसाधनों को साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से देखते हों तब मुस्लिम नेताओं का इस मामले में पीछे रहने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अंतत: उनकी सरकार ने अन्य पिछड़े वर्ग के 27 प्रतिशत आरक्षण कोटे में से 4.5 प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की घोषणा कर ही दी। मुल्ला-मौलवियों का एजेंडा यदि संसाधनों का विश्लेषण भी साम्प्रदायिक आधार पर होता है तो फिर उस वर्ग के लिए न केवल आरक्षण, बल्कि पृथक निर्वाचन क्षेत्र की मांग भी साम्प्रदायिक आधार पर होती है तो आश्चर्य करने की कोई बात नहीं रह जाती है। मुसलमानों को आरक्षण मिले, यह मांग पिछले कई वर्षों से हो रही है। चुनाव आते ही यह स्वर अधिक बुलंद हो जाता है। अल्पसंख्यक वर्ग की यह खुशकिस्मती है कि अब उसे चुनावों की प्रतीक्षा पांच वर्ष तक नहीं करनी पड़ती है। किसी न किसी विधानसभा का चुनाव सिर पर आ ही जाता है। तब मतों की प्राप्ति के लिए इस प्रकार के मुद्दों का नवीनीकरण हो जाता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि फरवरी 2012 में पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। हर एक सेकुलर राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए अपनी-अपनी मांगों को दोहराने लगा है। उत्तर प्रदेश के विभाजन की मांग इसका ताजा उदाहरण है। इस विभाजन से किसको कितना लाभ होगा, इसका गुणा-भाग किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश के हर निर्वाचन क्षेत्र में मुसलमानों की अच्छी-खासी तादाद है। इसे भुनाने के लिए हर राजनीतिक दल अपने हथकंडे अपना रहा है। दिलचस्प बात यह है कि चुनाव हर पार्टी अपने बलबूते पर लड़ेगी। लेकिन जहां तक अल्पसंख्यक मतदाताओं का सवाल है उनके लिए जो एजेंडा तैयार किया जा रहा है वह सभी दलों में समान है। भारतीय जनता पार्टी की सोच अलग हो सकती है, लेकिन वह फिलहाल तो मुखर नहीं है। इसलिए अल्पसंख्यक समाज का एजेंडा और उनकी सोच हर पार्टी में समान दिखाई पड़ते हैं। यह जाहिर बात है कि मुस्लिम मुद्दे उनके राजनीतिक नेता तैयार नहीं करते, बल्कि उनकी मजहबी जमातें और मुल्ला-मौलवी निश्चित करते हैं। इस्लाम मजहब और राजनीति में अंतर नहीं करता। इसका स्पष्ट प्रतिबिम्ब इन मांगों में देखा जा सकता है। संविधान संशोधन एक समय था उत्तर प्रदेश में मुस्लिम अपना वोट कांग्रेस को देते थे। लेकिन कुछ वर्षों से मुस्लिम समाज समाजवादी पार्टी की ओर आकर्षित हुआ है। किन्तु मायावती के आते ही इस वोट बैंक में बिखराव पैदा हुआ। अब भाजपा को छोड़कर कांग्रेसी, समाजवादी और बसपाई मुस्लिम वोटों पर एकाधिकार मानते हैं। इसलिए ये लोग अपने मतदाताओं के लिए आरक्षण के पक्षधर हैं। सपा नेता आजम खान मुस्लिमों को आरक्षण मिले इसके लिए बड़ी तेजी से आन्दोलन चला रहे हैं। पिछले दिनों एक टी.वी.चैनल की बहस में वे इस हद तक अपनी बात कह गए कि आंध्र में आरक्षण के भीतर आरक्षण देने की व्यवस्था की गई है। यानी पिछड़ों के लिए जो आरक्षण है उसी प्रतिशत में मुस्लिम आरक्षण को भी शामिल कर दिया गया है। लेकिन आजम खान को इस बात का भय है कि पिछड़े इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे। क्योंकि उनके कोटे में से किसी अन्य को कोटा मिलता है तो इसका यही अर्थ होगा कि पिछड़ों के हिस्से में कम सीटें और कम लाभ मिलेंगे। तब वे किस प्रकार चुप बैठेंगे। वंचित और पिछड़ों के आन्दोलन के सामने सरकार को झुकना ही पड़ेगा। ऐसी स्थिति में मुस्लिम आरक्षण का सपना तो अधूरा ही रह जाएगा। इसलिए उनका कहना है कि संविधान को संशोधित करके मुस्लिम कोटा अलग से तैयार किया जाए। क्या केन्द्र सरकार इस संशोधन के लिए तैयार हो जाएगी? अब तक दिया जा रहा आरक्षण वंचित, पिछड़े और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए है। उसके बाद तो उन्हें मजहब के आधार पर आरक्षण देना पड़ेगा। मतों के लालच में केन्द्र सरकार द्वारा ऐसा किए जाने पर भारत पंथनिरपेक्ष देश कैसे रहेगा? मजहब के नाम पर आरक्षण देने का अर्थ होगा पंथनिरपेक्षता की संविधान से विदाई। यानी भारत का जो अब तक सबसे आकर्षक और उच्च कोटि का मूल्य था वह हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय में याचिका जाते ही सरकार की बुद्धि ठिकाने पर आ जाएगी। आजम खान जिस आरक्षण को मजहब के नाम पर संविधान में वैध घोषित कराना चाहते हैं, यह सपना कितना साकार होगा। इसके सामने एक प्रश्नचिह्न खड़ा है। समाजवादी पार्टी के मुस्लिम नेताओं के हौसले कितने बुलंद हैं, यह इस मांग से भलीभांति समझ में आ जाता है कि संसद ऐसा नहीं करेगी तो फिर मुस्लिम नेता पृथक निर्वाचन प्रणाली का सूत्रपात करेंगे, जिसके आधार पर भूतकाल में पाकिस्तान का निर्माण हुआ। साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन करते समय 1905 में कहा था कि बंगाल में एक बंगाल नहीं दो बंगाल हैं। एक हिन्दू बंगाल और दूसरा मुस्लिम बंगाल। इस बंटवारे का विरोध न केवल बंगाल में हुआ, बल्कि सम्पूर्ण देश में राष्ट्रवादी ताकतों ने किया। उसी समय अंग्रेजों के समर्थन से ढाका में नवाब सलीमुल्ला ने मुस्लिम लीग की नींव डाली। यद्धपि कर्जन का सपना साकार नहीं हुआ, लेकिन अंग्रेजों ने इस मुस्लिम लीग के नेतृत्व में भारत के विभाजन की नींव रख दी। मुस्लिमों ने 1909 में पृथक् निर्वाचन क्षेत्र की मांग शुरू कर दी। इसका अर्थ था मुस्लिमों का असेम्बली में प्रतिनिधित्व अलग मजहब के आधार पर होना चाहिए। इस साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को अंग्रेजों ने स्वीकार कर लिया। जिसका अर्थ यह था कि भारत में एक भारत नहीं, बल्कि दो भारत बसते हैं। 1924 तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग एक हीं मंच से अपने अधिवेशन आमंत्रित करते थे और आजादी के मामले में एक होकर आन्दोलन चलाते थे। इसलिए ब्रिटिश और मुस्लिमों ने यह मान लिया कि लीग की आवाज कांग्रेस की आवाज है। इसलिए इस साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व को लेकर कहीं भी विरोध नहीं हुआ। जिस साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व को आधार बनाकर पाकिस्तान का एजेंडा स्वीकार कर लिया गया था ठीक उसी प्रकार अब आजम खान की बात को मान्यता देकर पुन: साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व को मान्यता दी जाने की मांग शुरू हो गई है। खतरनाक मांग मुसलमानों के लिए “अलाहेदा इलेक्टोरेट” शीर्षक से उर्दू प्रेस में एक आलेख प्रकाशित हुआ है, जिसके लेखक हैं डा. सैयद जफर महमूद। वे लिखते हैं कि हिन्दुस्तानी मुसलमान आज की “शुडुल कास्ट” की आजादी से पहले की हालत के मुकाबले में कहीं ज्यादा बुरी हालत में बहुत पीछे कोने में पड़ा है। “सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डवलपिंग सोसायटी” के निदेशक प्रो. राजीव भार्गव ने “ला एण्ड इथिक्स ऑफ ह्यूमन राइट्स” में मुसमलानों का निरंतर घटता प्रतिनिधित्व नामक लेख में लिखा है कि भारत में मुसलमानों को साफ-दिली से वाजिब प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। इसका तरीका यही हो सकता है कि मुसलमानों के लिए विशेष निर्वाचित क्षेत्र बनाए जाएं। जिसमें “प्रीफेन्सीयल वोटिंग” की सुविधा दी जाए। “यदि मुसलमानों को पिछड़े लोगों की तरह आबादी के आधार पर आरक्षण नहीं मिलता है, तो फिर वही डा. अम्बेडकर का 1942 वाला फार्मूला अपनाना होगा। संसद, राज्यों की विधान सभाएं, और सभी स्थानीय इकाइयों आदि में चुनाव के लिए हम मुसलमानों को वोटरों का भिन्न वर्ग स्वीकार किया जाए। हमारी आबादी के अनुपात से सभी निर्वाचित गृहों में अपने मुसमलान प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दिया जाए। इसके लिए संविधान में अलग से संशोधन किया जाए। इसके अतिरिक्त सरकारी नौकरियों में और शैक्षणिक संस्थाओं में उनकी हिस्सेदारी उनकी आबादी के अनुसार तय की जाए।” आजम खान जैसे मुस्लिम नेताओं की वाणी राजीव भार्गव ने व्यक्त कर दी है। यह मांग कितनी खतरनाक है, इस पर समय रहते विचार होना अनिवार्य है। द
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