साहित्यिकी
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डा.दयाकृष्ण विजयवर्गीय “विजय”
कालाधन है राष्ट्र का
खड़े कठघरे देखिये नेता सत्तासीन,
ठोके लज्जा ही स्वयं मस्तक अपना दीन।
ऐसी आई देश में अपराधों की बाढ़,
जीवन मूल्यों की हुई हरित पौध तक झाड़।
नहीं वित्त विनिवेश का कोई बचा विभाग,
फैली भ्रष्टाचार की हो न जहां पर आग।
काली पूंजी ने दिया बना भोग को धर्म,
पत्रों की स्याही चुकी लेकिन नहीं कुकर्म।
धन लीला संवेदना लोभ गया मति लील,
काम निडर हो हर रहा खुली धूप में शील।
लिखे कथा निर्माण की फैला भ्रष्टाचार,
काले धन से कर रहे बैंक विदेशी प्यार।
स्वाभिमान खोया कहीं खोया गौरव गान,
विश्व हृदय से उठ चुका श्रद्धायुत सम्मान।
शेष और कितना रहा नीचे गिरना राम,
भ्रष्टाचारियों में लिखा आज देश का नाम।
किस मुख से हम कहें ऋषि-मुनियों का देश,
घोटाले गंदला चुके आध्यात्मिक परिवेश।
सेवा औ” सहयोग अब हुए कोश के शब्द,
ऋण तक भी होता नहीं घूस बिना उपलब्ध।
काला धन है राष्ट्र का जनता की सम्पत्ति,
लाते उसको देश में होती क्यों आपत्ति?
होगा देश समृद्ध फिर निर्धन तक धनवान,
“विजय” कहेगा झूमता मेरा देश महान।
जिंदगी से जुड़ी गजलें
शशिकांत ने देर से ही सही पर अपना धर्म निभाया है और अपने पहले गजल संग्रह “आईना मेरा” के अठारह साल बाद ही सही, उनका दूसरा गजल संग्रह “सफर में हूं” हमारे सामने है। बहुत ही खूबसूरत साज-सज्जा के साथ यह पुस्तक आई है। शशिकांत ने पुस्तक के शीर्षक “सफर में हूं” को कई अलग-अलग शेरों से स्थापित किया है। सफर को लेकर दो-तीन शेर बहुत अच्छे लगे-
जिंदगी क्या है, मुसलसल इक सफर।
जिंदगी और सफर के आपसी सरोकार को यहां बहुत खूबसूरती से बयां किया गया है। ये जिंदगी की एक मंत्रवत परिभाषा जैसी है। रुकना छोड़िए, रुकने की फुर्सत ही नहीं जिसे, यानी जो रुक ही नहीं सकती, वही जिंदगी है। एक अनवरत, लगातार, निर्विघ्न प्रक्रिया का नाम है जिंदगी-
कभी मुड़कर नहीं देखा सफर में,
फकत मंजिल को ही रक्खा नजर में।
इस शेर में दो मुहावरों का सटीक इस्तेमाल देखने लायक है। शिल्प की दृष्टि से ये बात काबिले गौर है। भावपक्ष को देखें तो यहां अर्जुन की तरह चिड़िया की आंख पर दृष्टि केन्द्रित करने वाली बात को और अपने ध्येय से विलग न होने वाली बात को बहुत ही सरल, सहज और सार्थक तरीके से शेर में ढाला गया है। सफर को ही लेकर पुस्तक के अंत में एक शेर है-
मंजिल पे आ गया हूं तो अब लग रहा है ये,
असली मजा तो यार सफर की थकन में था।
ठीक वैसे ही, जैसे आखिरी सिरे से हम अपनी जिंदगी को देखें तो उसकी सारी जद्दोजहद, सारे उतार-चढ़ाव, सारे दु:ख-दर्द से छना हुआ, तपा हुआ, एक दमकता अहसास हमारे सामने आ खड़ा होता है, जिसे देखने का एक अलग ही मजा है, एक अलग ही अनुभव है। अलिप्त होकर खुद को देखने का एक दृष्टा भाव इस शेर की ताकत है।
किसी रचनाकार की रचनाओं को रचनाकार के जीवन से जोड़कर देखना भी आलोचना का एक महत्वपूर्ण बिंदु होता है। कुछ आलोचक बेशक इससे इत्तेफाक न भी रखते हों, लेकिन मेरा मानना है कि अगर साहित्य का सरोकार इंसान की बेहतरी से है, तो साहित्यकार का भी बेहतर इंसान होना लाजिमी है। यहां मैं इस बात को पूरी गंभीरता से रेखांकित करना चाहूंगा कि शशिकांत एक बेहतर इंसान हैं, स्वभाव से संकोची हैं लेकिन विचारों के बहुत पक्के हैं और सच्चे हैं। यह बात उनके लेखन में और अधिक पुष्ट होती है। वे जो जानते हैं, मानते हैं, उसे पूरी तरह ठोक-बजाकर कहते और लिखते हैं। सोच की ऐसी दृढ़ता विरलों में पाई जाती है। जिनमें सोच की दृढ़ता होती है, वे अगर विनम्र भी हों तो यह सोने पर सुहागा हो जाता है। शशिकांत की विन्रमता कई मायनों में उद्धरणीय है। जब वे कहते हैं कि-
इस अपनी सादगी का क्या करूं मैं
कहां ले जाऊं मैं अपनी ये आदत
तो वे अपने कद को और ऊंचा कर लेते हैं। शशिकांत एक अंर्तमुखी व्यक्ति हैं। बाहर की यात्रा से ज्यादा उन्होंने संभवत: भीतर की यात्रा की है। भीतर का यात्री ही शायद ऐसे अश्आर कहने की सामथ्र्य रखता है-
कशिश रूहों में होती है यकीनन
नहीं होता किसी से प्यार यूं ही
***
बर्फ को छूकर ये अंदाजा हुआ
कैसे ढल जाती है ठंडक आग में
***
सोचते हैं कि जाएं किधर
कैद से तो रिहा हो गए
शशिकांत बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं, वे काव्य की अधिकांश विधाओं में लिखते हैं। गजलों में तो वे बिल्कुल डूबे ही हुए हैं। वे एक अच्छे चित्रार भी हैं, काटूनिस्ट भी हैं, अच्छे छायाकार भी हैं। शशिकांत पूरी शानो-शौकत के साथ अपने गजल संग्रह “सफर में हूं” के माध्यम से हमारे सामने आए हैं।
पुस्तक का नाम – सफर में हूं (गजल संग्रह)
रचनाकार – शशिकांत
प्रकाशक – अमृत प्रकाशन,
शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य – 250 रुपए, पृष्ठ – 96
सम्पर्क – (011) 22325468
एक प्रेरक जीवन गाथा
“इस बात में संदेह नहीं कि वर्तमान का जन्म इतिहास के गर्भ से ही होता है। इसीलिए विश्व के प्राय: सभी समाज अपने आपको इतिहास का ऋणी समझते हैं। अपने अतीत पर, अपने इतिहास पर गर्व करते हैं।” कुछ समय पूर्व प्रकाशित होकर आई पुस्तक “बाजीराव पेशवा (प्रथम)” के लेखक और श्रीमंत बाजीराव पेशवा, (प्रथम) समाधि समिति के अधिष्ठाता विक्रम सिंह की यह उक्ति निर्विवाद रूप से सच है। बावजूद इसके कुछ स्वार्थी, आत्मकेन्द्रित और संकीर्ण मानसिकता से ग्रसित लोग अपने अतीत की गौरवमयी परम्परा और व्यक्तित्वों को स्मरण रखना जरूरी नहीं समझते हैं। भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक देशभक्त और महान व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम और कर्तव्य परायणता की मिशाल कायम की, लेकिन उनका हमारी वर्तमान पीढ़ी ने न केवल सम्मानजनक दृष्टि से स्मरण रखा बल्कि उपेक्षित भी किया।
भारत के गौरव वीर शिवाजी की परम्परा से जुड़े बाजीराव प्रथम (पेशवा) भी ऐसे ही महापुरुषों में से एक थे, जिन्होंने अपने देश की एकता और अखण्डता के लिए सर्वस्व अर्पित कर दिया था। बाजीराव (प्रथम) की प्रकाशित इस जीवनी में उनके जीवन और संघर्ष को ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ लेखकद्वय-विक्रम सिंह और द.मा.कुलकर्णी ने लिपिबद्ध किया है। बारह अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक के जरिए बाजीराव के जीवन में विविध आयामों पर दृष्टि पड़ती है। बाजीराव का जीवन बहुत अल्प होते हुए भी बहुत प्रेरक रहा। किशोरावस्था से ही उन्होंने संघर्ष करना शुरू कर दिया था और केवल 40 वर्ष के अपने जीवन काल में अंत तक मातृभूमि के लिए संघर्ष करते रहे। मुस्लिम शासकों और निजामों से लगातार संघर्ष करते हुए बाजीराव किस तरह सफलता के सोपान चढ़ते रहे, इसकी गौरवगाथा इस पुस्तक में कालक्रमानुसार संकलित है। अठारहवीं सदी के तीसरे दशक में बाजीराव ने कितनी चतुराई और साहस से मालवा में मुगलों को परास्त किया, इसका विस्तार से वर्णन “मालवा में मुगल पराजित” शीर्षक अध्याय में किया गया है।
इसके अगले अध्याय “बंगश खान परास्त” में महाराज छत्रसाल के वृद्धावस्था के समय बाजीराव से हुई उनकी आत्मीयता और परिणामस्वरूप छत्रसाल के उन्हें अपना तीसरा पुत्र मानने की घटनाओं का भी वर्णन किया गया है। इसी अध्याय में छत्रसाल के जीवन की संक्षिप्त झांकी भी मिलती है। धैर्य, साहस और अदम्य वीरता के बल पर बाजीराव ने बंगश खान को भी परास्त करने में सफलता प्राप्त करने के बाद गुजरात में अपना वर्चस्व स्थापित किया। इसके पश्चात निजाम शासकों से मौखिक संधि कर, मालवा, बुंदेलखंड और गुजरात विजय के बाद बाजीराव ने दिल्ली की ओर कूच करने का निर्णय लिया और इससे पहले राजपूतों के राज्य राजस्थान में प्रवेश किया। वहां उनका भव्य आदर-सत्कार हुआ। नई दिल्ली में वे मुगल शासकों से अपनी मांगें मनवाने में अभी सफल ही हुए थे कि दक्षिण में पुर्तगाली सेना से लोहा लेना पड़ा। इसी दौरान नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला कर दिया। इन सारे संघर्षों के बीच लगातार विजय पताका लेकर बढ़ने वाले बाजीराव का जीवन किसी भी भारतीय के लिए प्रेरणादायी है। अपने व्यक्तिगत सुख, विलास, शानो-शौकत को उन्होंने कभी प्राथमिकता नहीं दी। आजीवन संघर्ष किया और चालीस वर्ष की अवस्था में ही परलोक सिधार गए।
पुस्तक का नाम -बाजीराव पेशवा (प्रथम)
लेखक – विक्रम सिंह
द.मा. कुलकर्णी
प्रकाशक – समय प्रकाशन
आई. 1/16, शांति मोहन हाउस,
अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-02
मूल्य – 150 रु. पृष्ठ-136
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