बहनापा संबंध मात्र भावनाओं का
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बहनापा संबंध मात्र भावनाओं का

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Dec 24, 2011, 12:00 am IST
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सरोकार

दिंनाक: 24 Dec 2011 17:43:18

सरोकार

द  मृदुला सिन्हा

बहनापा संबंध मात्र भावनाओं का ताना-बाना नहीं होता। यह व्यक्तित्व निर्माण में भी सहायक होता है। विश्व भर में इस प्रकार का प्रेम संबंध देखा जाता है। इस रिश्ते को भिन्न-भिन्न नाम दिए जाते हैं।

यह तो सत्य है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज के बिना नहीं रह सकता। सामाजिक जीवन जीते हुए न जाने उसके कितने रिश्ते नाते बनते हैं। हर रिश्ते की अपनी खुशबू होती है। संबंधों की भिन्न-भिन्न तासीर। मनुष्य उन संबंधों को निभाता जीवन का भिन्न-भिन्न स्वाद लेता रहा है। कुछ रिश्ते उसके जन्म से जुड़े हैं। मात-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी, बुआ-चाचा-मामा जैसे रिश्ते उसके उस परिवार में जन्म लेने से बन जाते है। ये स्वाभाविक रिश्ते हैं, जन्मसिद्ध।

मनुष्य जीवन में इतने ही संबंध नहीं होते। अपने परिवार की परिधि से निकलकर भी संबंध बनते हैं। कई बार तो समाज में कई धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं के सदस्य बनकर भी उस संस्था से रिश्ता बन जाता है। संस्था के सदस्य अपने हो जाते हैं। परिवार से बढ़कर उस संस्था के लिए व्यक्ति काम करने लगता है। ऐसे रिश्ते भी पारिवारिक रिश्तों से कम नहीं होते। सच्चा मित्र हो तो सभी पारिवारिक रिश्तों से बड़ा हो जाता है। ग्रामीण जीवन में पहले एक नाता होता था- जिसे बहनापा कहते थे। दो हमउम्र लड़कियों और महिलाओं के बीच प्रीत का रिश्ता।

इस रिश्ते के तानेबाने में एक छिद्र भी न दिखे, ऐसा रिश्ता। संबंध भी प्रगाढ़। सभी पारिवारिक रिश्तों को पीछे छोड़ बहनापा समाज में एक-दूसरे के लिए जीना सिखाता है।

बहनापा बनाने के लिए कोई उम्र नहीं निर्धारित होती थी। कच्ची उम्र में बहनापा बनने पर अधिक दीर्घजीवी होता था संबंध। बहनापा बनने के लिए दो लड़कियों के बीच कुछ कसमें (शपथ) भी खाई जाती थीं। सादे तरीके से मनाए जाते उस शपथ समारोह में किसी न किसी बड़ी-बुजुर्ग का होना आवश्यक होता था। एक प्रकार से वे साक्षी होतीं थीं। दोनों लड़कियां/महिलाएं अपने दाहिने हाथ की अनामिकाओं को फंसाकर अंगूठे को कान में लगाने के लिए अत्यंत करीब आती थीं। दादी-नानी-काकी किसी भी महिला द्वारा शपथ ग्रहण करवायी जाती थी। वे एक-दूसरे के कान पकड़कर कानों में कहती थीं-“हे बहनापा राम-राम। हमर तोहर एक काम।” उस शपथ के अनुसार दोनों के बीच मित्रता बरकरार रखने में दोनों ओर से ईमानदार रहने का संकल्प होता था। छोटी बालिकाएं उस शपथ का अर्थ भले ही नहीं समझती हों, वे भाव में अवश्य डूब जाती थीं। अंतरमन से एक हो जाती थीं। इस भाव का प्रगटीकरण उनके व्यवहार में दिख जाता था। जितना समय मिले साथ-साथ रहना, एक-दूसरे के सुख-दु:ख को अपना समझना, हर संभव सहायता करना, ये सारे लक्षण होते थे बहनापा के। ऐसी दो लड़कियों के विवाह हो जाने पर भी संबंध निभाने की कोशिश होती थी। बहनापा के एक पात्र के घर खुशियां आईं तो दूसरी भी खुश होती थी।

बहनापा बनने में धन या उम्र बाधा नहीं बनती थी। एक धनी और दूसरी गरीब घर की लड़कियों में भी “बहनापा” बनता था। अकसर बहिनापाएं अपनी बहिनपा को कुछ-न-कुछ उपहार दिया करती थीं। अधिकतर छोटे उपहार हाथ से बने सामान जैसे रुमाल, डलिया, छोटी चटाई होते थे। एक के घर में कोई खाने की अच्छी चीज बनी, दूसरे घर भी पहुंच जाती थीं। दोनों बहिनपाएं एक-दूसरे का नाम नहीं लेती थीं। लौंग, इलाइची, सखि, गुलाब, चमेली, संगी जैसे शब्द का आदान-प्रदान होता था। एक-दूसरे को उसी नाम से पुकारती थीं। वह नाम इतना प्रमुख हो जाता था कि उनके बच्चे भी उसी संबोधन में मौसी, काकी लगाकर पुकारते थे। जैसे चमेली मौसी से चमेली नानी तक। क्योंकि दो महिलाओं के बीच “चमेली” संबंध उनके बुजुर्गावस्था ही नहीं, मरने के बाद भी जीवित रहता था।

बड़ी उम्र में भी महिलाएं बहिनपाएं बनती थीं। विवाह कर के ससुराल आई दो बहुओं के बीच भी बहनापा का रिवाज था। वे बहुएं एक वृहत परिवार (संयुक्त) की होती थीं, या दो टोलों (मुहल्लों) की। वे दोनों आपस में बहिनपा बनने की कसमें खाती थीं। लौंग, इलाइंची या गुलाब के संबोधन से ही एक-दूसरे को पुकारतीं। दोनों के बीच गहरा स्नेह संबंध होता था। उनके परिवार वालों को भी कोई एतराज नहीं होता था। उल्टा वे लोग सहयोग देते थे। उनके द्वारा बहाई स्नेह-सरिता में गोते लगाते थे। बड़ी उम्र में बने बहिनपा संबंध में भी प्रीत होती थी, पर नन्हीं उम्र में बने इस संबंध के कहने ही क्या! नि:स्वार्थ और निर्मल संबंध होता था। समाज को प्रेम सिखाने वाला।

पन्द्रह वर्ष पूर्व की बात है। बचपन से दिल्ली में रह रही मेरी बेटी मीनाक्षी की सहेली शिवानी के साथ मित्रता देख-सुनकर मुझे गांव में देखी बहिनपा का स्मरण हो आता था। बारहवीं में उत्तीर्ण होने के उपरांत मीनाक्षी को कॉलेज में दाखिला लेना था। जिस कॉलेज में वह दाखिला लेना चाहती थी वहां के लिए उसके पिता की सहमति नहीं थी। मीनाक्षी रोने लगी। शिवानी भी उसके साथ रोती थी। वह मीनाक्षी के पिता से अनुनय विनय करने लगी-“अंकल, मीनाक्षी को उसी कॉलेज में पढ़ने दीजिए न।” उसकी स्थिति देखकर मेरे मुंह से निकला-” शिवानी, मीनाक्षी की बहिनपा लगती है।” वे दोनों शब्दों का अर्थ नहीं समझ पाईं। मैंने समझाया। मीनाक्षी एम.ए के बाद अमरीका चली गई। पर दोनों का “बहनापा” निभता रहा। सात समंदर की दूरी भी उनके बीच दुराव नहीं पैदा कर पाई। शिवानी का विवाह, बच्चे होना अपनी जगह। मीनाक्षी  का बहिनपा होना अटल रहा। यहां तक कि शिवानी का पति समीर भी मीनाक्षी के प्रति उतना ही आत्मीय भाव रखने  (निश्छल)  लगा।

नि:स्वार्थ प्रीत ही बहिनपा संबंध का आधार बनती है। शहरों में भी आज ऐसी मित्रता बनती है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा, जिसका कोई अंतरंग मित्र न हो, पर मित्रता मित्रता है, बहनापा, बहनापा। सभी संबंधों से ऊपर। बहनापा मात्र भावनाओं का ताना-बाना नहीं होता। यह व्यक्तित्व निर्माण में भी सहायक होता है। विश्व भर में इस प्रकार का प्रेम संबंध देखा जाता है। इस रिश्ते को भिन्न-भिन्न नाम दिए जाते हैं। पुरुषों के बीच इस प्रकार की मित्रता को “”मीत”” कहा जाता है। भारत में बहनापे संबंध के बारे में सुनकर मेरी बेटी मीनाक्षी ने अमरीका की एक फिल्म “या, या, सिस्टर हुड” की कहानी सुनाई। कथा सुनकर लगा कि वहां भी बहिनपाएं होती हैं। मनुष्य की चाहत होती है कि कोई उसे अपने से भी अधिक प्रीत करे, वहीं यह भी चाहत कि वह किसी को अपनों से भी अधिक प्रेम करे। इसी चाहत का प्रगटीकरण होता है “बहनापे” में। दो बहनों में बहुत प्रेम होता है। वे दूर-दूर रहकर भी पास-पास रहती हैं। पर यह बहनापा बहिनों से भी बढ़कर होता है-जीने का विश्वास, दु:ख का संबल और सुख का साथी। द

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