भारतीयों के महामना
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पं. मदन मोहन मालवीय के 150वें जन्मदिवस पर विशेष
* डा. कृष्ण गोपाल
पं. मदन मोहन मालवीय भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के ऐसे देदीप्यमान प्रकाश स्तम्भ थे जो राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, सामाजिक तथा अन्य अनेक क्षेत्रों में सर्वमान्य और बेजोड़ थे। राष्ट्रजीवन के विविध क्षेत्रों में प्रवेश कर वे वहां शीर्ष पर ही रहे। उनकी प्रत्येक श्वास देश और समाज के लिए समर्पित थी। नैतिक मूल्यों तथा सामाजिक मर्यादाओं की पुनस्र्थापना के लिए उनका आग्रह जीवन भर रहा। लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, पं. नेहरू आदि उस काल के वरिष्ठतम नेता सदैव उनके प्रशंसक रहे। मालवीय जी के जीवन के सैकड़ों कार्यों में से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एक ज्योतिर्लिंग के समान विद्यमान है। उनके जन्म के 150वें वर्ष में यह देश उनके आदर्शों और उनके देवतुल्य जीवन का स्मरण करे, यह अपेक्षा स्वाभाविक ही है। उनका वह पहला भाषण- प्रयाग के सूरजकुण्ड मोहल्ले में 25 दिसम्बर, 1861 (पौष कृ. 8, वि.सं. 1918) को गोधूलि वेला में श्री ब्रजनाथ व्यास को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। जन्म पर मिष्ठान भी वितरित न हो सके, ऐसी घोर निर्धनता में बालक का जन्म हुआ था। मोहल्ले के ही एक चबूतरे पर चलने वाली एक पाठशाला से उनकी शिक्षा प्रारंभ हुई और बी.ए. करते ही मां ने कहा, “बेटा कोई नौकरी कर लो।” और पं. मदन मोहन मालवीय अध्यापक बन गये। सन् 1886 का द्वितीय कांग्रेस अधिवेशन कलकत्ता में हुआ था। 25 वर्ष के युवा मालवीय जी ने दादाभाई नौरोजी की अनुमति से वहां अपना पहला भाषण दिया। अंग्रेजी के अपने धारा प्रवाह भाषण में उन्होंने उस समय की ब्रिटिश नीतियों पर कठोर प्रहार किये। कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ. ह्यूम व तत्कालीन अध्यक्ष सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सहित कांग्रेस के सभी नेता इस व्याख्यान से इतने प्रभावित हुए कि इसके बाद कांग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन में मालवीय जी का भाषण अवश्य हुआ करता था। सन् 1907 के सूरत के दुर्भाग्यपूर्ण अधिवेशन में कांग्रेस के नरमदल और गरमदल के लोगों के मध्य अप्रिय संघर्ष हो गया। लोकमान्य तिलक को मंच से बोलने नहीं दिया गया। पूरे पण्डाल में कोहराम मच गया। भारी तोड़फोड़ हुई। पुलिस ने सभास्थल को खाली करा दिया। देश को स्वाधीन कराने वालों के व्यवहार की विडम्बना देखकर मालवीय जी का देशभक्त हृदय चीत्कार कर उठा। कांग्रेस के इस विभाजन से वे बहुत दु:खी थे। अन्ततोगत्वा सन् 1916 में उन्हीं के प्रयासों से नरमदल और गरमदल के मध्य समझौता हो सका था। ओजस्वी वक्ता और निडर व्यक्तित्व- मालवीय जी अपनी विलक्षण क्षमताओं तथा सभी के प्रति अपने आत्मीय व्यवहार के कारण देशभर में सर्वमान्य हो गये। उनके करुणामय अति उदार तथा विशाल हृदय को देखकर भारत की जनता ने जिस प्रकार गांधी जी को “महात्मा”, बल्लभभाई पटेल को “सरदार” की उपाधि से सम्मानित किया गया था, उसी प्रकार मालवीय जी के साथ “महामना” की उपाधि सदैव के लिए जुड़ गई। 1909 (लाहौर), 1918 (दिल्ली), 1930 (दिल्ली) तथा 1932 (कलकत्ता) के अधिवेशनों में उन्हें कांग्रेस का अखिल भारतीय अध्यक्ष चुना गया। एक विलक्षण बात यह भी थी कि इस दौरान वे हिन्दू महासभा के भी अनेक बार अध्यक्ष रहे, पर किसी को इस बात पर आपत्ति नहीं थी। सन् 1919 जलियांवाला काण्ड में पुलिस की बर्बर गोलीबारी से हजारों लोग मारे गये। उन दिनों सरकार की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला में थी। “इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल” में सदस्य होने के नाते मालवीय जी वहां तीन दिनों तक बोलते रहे। कहा जाता है कि देश के इतिहास में वह सबसे लम्बा भाषण था। मालवीय जी ने सरकार के अत्याचारों का ऐसा मार्मिक वर्णन किया कि अनेक लोग अपने आंसू न रोक सके। मालवीय जी के इस भाषण से इंग्लैण्ड स्थित ब्रिटिश संसद में हंगामा हो गया। सांसदों ने कहा कि, “जलियांवाला काण्ड के बारे में मालवीय जी ने जो कुछ शिमला की “इम्पीरियल काउंसिल” में कहा है यदि वह सत्य है तो विश्व के समक्ष हमारा सिर शर्म से झुक जाना चाहिए।” “पूना पैक्ट” के शिल्पी-मालवीय जी गांधी जी से केवल आठ वर्ष बड़े थे, किन्तु गांधी जी की उनके प्रति अपार श्रद्धा थी। वे मालवीय जी को एक महान सन्त और उनके हृदय को महासागर स्वरूप मानते थे। सन् 1932 के गोलमेज सम्मेलन के बाद जब ब्रिटिश सरकार ने “साम्प्रदायिक निर्णय” की घोषणा कर, “हरिजनों के आरिक्षत स्थानों पर केवल हरिजन ही वोट डालेंगे”, ऐसी व्यवस्था बनायी, तब गांधी जी ने इसका विरोध किया और वे आमरण अनशन पर बैठ गये। यह अनुसूचित जातियों को हमेशा के लिए हिन्दू समाज से दूर करने की अंग्रेजों की एक साजिश थी। गांधी जी चाहते थे कि तथाकथित अश्पृश्यों के आरक्षित स्थानों पर मतदान सामूहिक ही हो। किन्तु डा. अम्बेडकर गांधी जी की मांग से उस समय असहमत थे। एक ओर गांधी जी का जीवन दांव पर लगा था, दूसरी ओर हिन्दू समाज के अन्दर विभाजन न हो, यह उनकी दूरगामी सोच भी थी। मालवीय जी ने डा. अम्बेडकर को भरोसा दिलाया कि अस्पृश्यता की समस्या हम सभी की समस्या है। अन्ततोगत्वा डा. अम्बेडकर ने अपनी सहमति दी और “पूना पैक्ट” नाम से समझौता हुआ। गांधी जी के प्राण बचे और हिन्दू समाज को स्थायी रूप से बांटने का अंग्रेजी षड्यंत्र विफल हुआ। बहुमुखी प्रतिभा के धनी- परिवार में घोर निर्धनता के कारण उन्होंने अध्यापक की नौकरी तो कर ली थी, किन्तु अपना अध्ययन जारी रखा था। उन्होंने विधि की परीक्षा उत्तीर्ण की और सन् 1892 में अधिवक्ता हो गये। उनकी गणना प्रयाग उच्च न्यायालय के प्रसिद्ध अधिवक्ताओं में होने लगी। पर मालवीय जी ने जीवन में कोई भी झूठा मुकदमा स्वीकार नहीं किया, न झूठी गवाही का ही कभी सहारा लिया, उन्होंने काला कोट या काला गाउन भी कभी नहीं पहना। मालवीय जी पत्रकारिता की दुनिया के भी विशेषज्ञ थे। पराधीनता के काल में देशभक्ति तथा नैतिक मूल्य सम्पन्न विचार जनता तक पहुंचें, इसलिए उन्होंने राजा साहब कालाकांकर के आग्रह पर सन् 1886 में अंग्रेजी और हिन्दी दैनिक “हिन्दुस्तान” के सम्पादन का कार्यभार संभाला। सन् 1906 में मालवीय जी ने “अभ्युदय” नामक साप्ताहिक पत्र का सम्पादन किया और उसको दैनिक बनाया। अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों को ध्यान में रखकर उन्होंने प्रयाग से एक अंग्रेजी दैनिक “लीडर” प्रारम्भ कर दिया। सन् 1929 में साप्ताहिक “भारत” और बाद में दैनिक “भारत” का प्रकाशन प्रारम्भ किया। प्रयाग से ही अच्छे निबन्धों तथा लेखों द्वारा समाज में जागृति लाने के लिए “मर्यादा” का प्रकाशन प्रारंभ किया। दिल्ली से अंग्रेजी का “हिन्दुस्थान टाइम्स” निकलता था, किन्तु उसकी व्यवस्था जब नहीं संभली तो सन् 1934 में मालवीय जी ने इसको अपने हाथों में ले लिया और व्यवस्थित ढंग से “हिन्दुस्थान टाइम्स” को वे दिल्ली से प्रकाशित करते रहे। मालवीय जी ऐसे ही और भी अनेक पत्रों के सम्पादक तथा सहयोगी रहे। वे न केवल कुशल प्रबंधक ही थे, वरन् सम्पादक, प्रूफ रीडर, मशीन मैन से लेकर वितरण तक के सभी कार्यों के विशेषज्ञ थे। छूआछूत के घोर विरोधी- मालवीय जी का जन्म भले एक परम्परावादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था, किन्तु हिन्दू समाज के अन्दर ऊंच-नीच की भावना और छुआछूत से वे बहुत दु:खी थे। हिन्दू समाज की इन कुरीतियों का उन्होंने जमकर विरोध किया। सन् 1925 में अमृतसर में दुग्र्याना मंदिर के शिलान्यास तथा धर्मयज्ञ पर वे स्वयं उपस्थित रहे और उनकी प्रेरणा से मन्दिर का प्रसिद्ध सरोवर तथा मंदिर का परिसर बिना भेदभाव के सभी हिन्दुओं के लिए खोल दिया गया। हिन्दू समाज से संबंधित धार्मिक तथा सामाजिक विषयों पर विचार करने के लिए उन्हीं के प्रयासों से “अखिल भारतीय सनातन धर्म सभा” की स्थापना हुई। कुछ रूढ़िवादी लोगों ने उनके अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम का विरोध किया। मालवीय जी को बुरा-भला कहा, किन्तु मालवीय जी के दृढ़ निश्चय को वे हिला न सके। बिहार के एक अस्पृश्य कहे जाने वाली जाति के विद्यार्थी जगजीवन राम को उन्होंने अध्ययन हेतु काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बुला लिया था। जब उन्हें यह पता चला कि जगजीवन राम के जूठे बर्तन साफ करने का काम छात्रावास के कर्मचारी नहीं करते हैं, तब मालवीय जी स्वयं जगजीवन राम के जूठे बर्तन साफ करने पहुंच गये। इस घटना ने जादू जैसा कार्य किया और फिर अश्पृश्य कही जाने वालि जातियों के विद्यार्थियों के साथ कोई भेदभाव काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अन्दर नहीं हुआ। यही बाबू जगजीवन राम बाद में भारत के उप प्रधानमंत्री तथा केन्द्रीय मंत्री रहे। हिन्दी रक्षक और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना- पराधीनता के दिनों में देश के न्यायालयों में उर्दू भाषा तथा फारसी लिपि का प्रयोग होता था। इसी भाषा में आवेदन पत्र दिये जाते थे। प्रार्थी यह जान भी नहीं पाता था कि उसके प्रार्थना पत्र में क्या लिखा है। यह स्थिति दु:खद थी। इस कारण नागरी (हिन्दी) को न्यायालय की भाषा बनाने के लिए मालवीय जी ने अथक प्रयास किये और न्यायालय के लिए आवश्यक नागरी शब्दावली तैयार करवाई। सन् 1818 में सर मैक्डोनाल्ड से मिलकर हिन्दी भाषा को न्यायालयों में स्थापित करवाया। मालवीय जी के प्रयासों से ही काशी में “नागरी प्रचारणी सभा” तथा प्रयाग में “हिन्दी साहित्य सम्मेलन” की स्थापना हुई। ज्ञान और त्याग की नगरी काशी में एक हिन्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने की बात बहुत पहले से ही उनके मन में पल रही थी। हिन्दू विश्वविद्यालय का संकल्प लेने के बाद उन्होंने वकालत छोड़ दी और भिक्षावृत्ति से अपना जीवन यापन प्रारंभ कर दिया। प्रतिदिन अधिकतम पांच व्यक्तियों से भिक्षा में जो मिल जाता था, उसी से वे अपने भोजन आदि की व्यवस्था करते थे। मालवीय जी जानते थे कि एक न एक दिन भारत अवश्य स्वतंत्र होगा। स्वतंत्रता मिलते ही देश के विकास के लिए हजारों ऐसे प्राध्यापकों, इंजीनियरों, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, चिकित्सकों तथा प्रशासकों की आवश्यकता होगी, जिनके हृदय में देशभक्ति का भाव और अपने महान सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति अगाध श्रद्धा हो। इसके लिए उन्होंने ज्ञान और वैराग्य की नगरी काशी का चयन किया और सन् 1916 की बसन्त पंचमी के दिन गरिमामय वातावरण में गंगा के पवित्र तट पर “काशी हिन्दू विश्वविद्यालय” की स्थापना की। अविरल गंगा के भगीरथ- एक ओर मालवीय जी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में व्यस्त थे, वहीं दूसरी ओर सन् 1916 में ही अंग्रेजों ने गंगा के पवित्र प्रवाह को हरिद्वार में रोकने की योजना बनाई। हिन्दू समाज चाहता था कि गंगा का प्रवाह अविरल और निर्बाध रहे। देश के साधु-संत, राजा-महाराजा तथा सामान्य जन भी उद्वेलित थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का शिलान्यास होते ही मालवीय जी हरिद्वार पहुंच गये। हरिद्वार में लाखों लोग एकत्रित हुए। मालवीय जी को अपने मध्य पाकर हिन्दू समाज का उत्साह दस गुना बढ़ गया। मालवीय जी ने घोषणा कर दी कि, “हिन्दू समाज की मान्यता है कि गंगा अविरल और निर्बाध बहेगी तभी उसका जल पूजन, अर्पण, तर्पण और स्नान के योग्य है। गंगा को पूरी तरह रोकने का हर स्तर पर विरोध होगा। हम गंगा की धारा को रोकने नहीं देंगे।” हिन्दू राजाओं ने सशस्त्र संघर्ष की धमकी दे डाली। सरकार घबरा गई। मालवीय जी की उपस्थिति में ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा। हिन्दू नेताओं के साथ 1916 के दिसम्बर माह में समझौता हुआ कि, “गंगा की अविरल धारा को भविष्य में कभी भी नहीं रोका जायेगा तथा सभी बैराजों में अविरल तथा निर्बाध प्रवाह की निरन्तरता को बनाये रखने के लिए “रामधारा” का प्रावधान किया जायेगा।” मालवीय जी के नेतृत्व में हिन्दू समाज की यह एक बड़ी विजय थी। हरिद्वार में हर की पैड़ी के “मालवीय द्वीप” पर महामना की भव्य प्रतिमा उसी विजय का प्रतीक है। महामना का महान व्यक्तित्व विलक्षण और दैवीय गुणों का संगम था। सैकड़ों गोशालाओं, धर्मशालाओं, अनाथाश्रमों के निर्माणकर्ता मालवीय जी ब्रजभाषा, संस्कृत, भोजपुरी तथा अंग्रेजी के सुन्दर कवि थे। लोगों को आश्चर्य होगा कि नाट्यकला में निष्णात मालवीय जी को द्रौपदी और शकुन्तला की प्रभावी भूमिका में देख दर्शक रोने लगते थे और उनको कल्पना भी नहीं होती थी कि यह कोई पुरुष है। अनेक राज परिवारों में पौरोहित्य का दायित्व भी उनका रहता था। उनके मधुर कण्ठ से “भागवत” का वाचन सुनकर गांधी जी गद्गद् हो गये और कहने लगे कि, “इन धार्मिक ग्रंथों का बचपन में श्रवण करने का सद्भाग्य मुझे प्राप्त नहीं हुआ। वह कमी कुछ हद तक पूज्य मालवीय जी ने पूरी की है।” पंचतत्व की उनकी काया 12 नवम्बर, 1946 को सिमट गई। एक युग प्रवर्तक ब्रह्मलीन हो गया। हिन्दुत्व की गरिमामयी वाणी शान्त हो गई। ढाई लाख लोग उनकी अन्तयात्रा में शामिल हुए। गांधी जी ने कहा, “भारत के पूज्य मालवीय जी अब नहीं रहे। वे सदैव अमर रहेंगे।”द
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