साहित्यिकी
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मोहन उपाध्याय
पत्थर को पिघला देतीं
आंसू की दो ही लड़ियां;
मानवता सिखला देतीं
जीवन की दो ही घड़ियां।
प्रेम का बंधन है सुकुमार
तोड़ सकती न जिसे तलवार;
तार से जुड़ जाते हैं तार
बजा करता जब एक सितार।
जब भाव उमड़कर अंतर में
निर्झर से बहने लगते हैं;
तब स्वयं स्वरों में हो निर्मित
मुख से वे स्वयं निकलते हैं।
यह याद रखो मन में निसदिन
जो पापी है, दुख पाएगा;
पलभर भी उसको चैन नहीं
वह सदा ठोकरें खाएगा।
प्रेम नहीं जिस जीवन में
उस जीवन को धिक्कार है;
उससे तो वह मरण भला-
जिसमें प्रेम अपार है।
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