बात बेलाग
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समदर्शी
चौधरी चरण सिंह भारत के संभवत: सबसे बड़े किसान नेता थे। उनकी गैर कांग्रेसी राजनीति का डंका उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक और हरियाणा से लेकर राजस्थान तक बजता था। उड़ीसा और मध्य प्रदेश में भी उनकी पार्टी के विधायक रहे। चौधरी साहब के दल का नाम बदलता रहा, पर उनका दबदबा बरकरार रहा। इसी दबदबे की बदौलत वह देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे, लेकिन उनके बेटे अजित सिंह ने उस विशाल राजनीतिक विरासत को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चंद जिलों तक समेट दिया है। इसके दो ही कारण हैं-एक, राजनीतिक दिशाहीनता और दूसरा, सत्तालोलुपता। छोटे चौधरी के नाम से मशहूर अजित की राजनीति भी बहुत छोटी है। उनकी राजनीति सत्ता से शुरू होकर सत्ता तक ही समाप्त हो जाती है। केन्द्र में किसी की भी सरकार हो, छोटे चौधरी को बस मंत्री पद चाहिए। राजनीतिक दिशाहीनता के आलम का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए अण्णा हजारे जब पहली बार अप्रैल में जंतर मंतर पर अनशन पर बैठे तो उससे पहले ही अजित मुम्बई जाकर उनसे मिले और समर्थन दे आये, लेकिन नौ महीने भी नहीं बीते कि अण्णा के आंदोलन को कुचलने के लिए देश भर में खलनायक बनी कांग्रेस से दोस्ती कर ली। अण्णा जिस कांग्रेस की सरकार के विरुद्ध संघर्ष करने को मजबूर हैं, उन्हें सबसे पहले समर्थन देने वाले नेता छोटे चौधरी उसी कांग्रेस की सरकार में मंत्री होंगे और उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव भी मिलकर लड़ेंगे।
जंतर-मंतर का डर
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के दिलोदिमाग में जंतर-मंतर का डर बुरी तरह बैठ गया है। जंतर-मंतर दो बातों के लिए जाना जाता है। एक, देश-विदेश के पर्यटक वहां घूमने आते हैं। दो, जिनकी कोई नहीं सुनता, वे अपनी बात कहने, मांगों पर जोर देने के लिए वहां अनशन, धरना-प्रदर्शन करते रहते हैं। यह सिलसिला पूरे साल चलता है, लेकिन कांग्रेस के दिलोदिमाग में जंतर मंतर का डर बैठा है इसी अप्रैल से, जब अण्णा हजारे ने मजबूत लोकपाल की मांग को लेकर वहां अनशन किया और शुरू में सत्तामद में गर्दन अकड़ाकर धमकाने वाली उसकी सरकार को उनकी साझा मसौदा समिति की मांग माननी पड़ी। उसी सफलता से अण्णा का हौसला और लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी कि अगस्त में रामलीला मैदान में 12 दिन तक अनशन पर पूरे देश को भ्रष्टाचार के विरोध और लोकपाल के समर्थन में खड़ा कर दिया। इसीलिए जब कमजोर लोकपाल की सरकार की साजिश के विरुद्ध 11 दिसंबर को जंतर-मंतर पर एक दिन का सांकेतिक अनशन कर अण्णा ने सभी राजनीतिक दलों को खुली बहस के लिए आमंत्रित किया तो कांग्रेस कन्नी काट गयी। टीवी खबरिया चैनलों पर चर्चा से लेकर छोटे-मोटे प्रायोजित कार्यक्रमों में बड़े-बड़े भाषण देने वाले नेताओं की पार्टी कांग्रेस ने तर्क दिया कि कानून संसद में बनते हैं, इसलिए लोकपाल पर बहस संसद में होनी चाहिए, जंतर-मंतर पर बहस संसद का अपमान है। वैसे याद दिला दें कि सत्ता से बाहर होने पर कांग्रेस को अपनी राजनीति के लिए इसी जंतर मंतर का आसरा रहता है और मनमोहन सिंह सरकार संसद के जरिये जो कानून बनाती है, उनमें से ज्यादातर का खाका कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ही तैयार करती है।
अण्णा की काट
भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए मजबूत लोकपाल की मांग को लेकर 74 साल की उम्र में भी संघर्षरत अण्णा हजारे के आंदोलन को नाकाम करने के लिए मनमोहन सिंह सरकार कोई भी हथकंडा अपनाने से बाज नहीं आ रही। एक-एक कर अण्णा के सहयोगियों को फंसाया जा रहा है तो लोकपाल की मजबूती की हवा निकालने के लिए संसद की स्थायी समिति से रपट भी ऐसी दिलवा दी गयी है, जिसमें संसद की ही भावना का ध्यान नहीं रखा गया है। इस पर जबरदस्त प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही थी। अण्णा के साथ सभी गैर संप्रग दलों की एकजुटता से जब सरकार को अपना यह दांव भी नाकाम होता दिखा तो अण्णा के लोकपाल की प्रमुख मांगों पर कैबिनेट ने 13 दिसंबर को अलग-अलग विधेयकों को मंजूरी दे दी, जबकि लोकपाल पर सर्वदलीय बैठक अगले दिन ही होनी थी। इन विधेयकों के जरिये अण्णा की न्यायिक जवाबदेही, “सिटीजन चार्टर” जैसी अहम मांगों को अप्रासंगिक बनाने की चाल चली गयी है, जबकि लोकपाल विधेयक पर कैबिनेट 19 दिसंबर को विचार करेगी और विधेयक संसद में 20 दिसंबर को पेश होने की संभावना है।
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