गवाक्ष
|
25 दिसम्बर (जन्मदिवस) पर विशेष
* शिवओम अम्बर
कविवर अटल बिहारी वाजपेयी की सारस्वत-साधना के कुछ रूप पर्याप्त चर्चित हुए हैं, उनके गीतों को गुनगुनाया गया है, राष्ट्रभाव से भरी उनकी प्रबोधन पंक्तियां पर्याप्त उद्धृत हुई हैं, किन्तु उनका एक गुरू गंभीर आत्मविश्लेषक रूप अपेक्षाकृत अचर्चित रहा है। वस्तुत: उनके चिन्तन-अनुचिन्तन से अनुस्यूत नई कविता की विधा में लिखी गई कविता-पंक्तियों का अनुभावन उनके अन्त: प्रदेश की एक अभिनव तीर्थ-यात्रा का आह्वान बन जाता है। उगते हुए सूर्य को नमस्कार करने की सांस्कृतिक पीठिका को जीने वाला उनका भावप्रवण चित्त बगीचे में झिलमिलाती ओस की नन्हीं बूंदों के प्रति भी एक प्रगाढ़ आत्मीयता का अनुभव करता है और वह आत्म-संवाद में खो जाते हैं-
मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूं
या उसके ताप से भाप बनी
ओस की बूंदों को ढूंढूं?
सूर्य एक सत्य है
जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
क्यों न मैं क्षण-क्षण को जिऊं?
कण-कण में बिखरे सौन्दर्य को पिऊं?
यह क्षण की महत्ता के प्रति सचेतभाव, यह कण की लघुता को स्वीकारने की वृत्ति अटल जी के अनुरागी अन्तस् की सहजता है और यही सहजता राजनीति के उत्तप्त परिवेश में भी उन्हें पलकों की ओट में संवेदना के ओस-बिन्दुओं को बचाए रखने की कला में दीक्षित करती है।
अपनी एक अन्य कविता में वह आदमी की तथाकथित ऊंचाई पर प्रश्नचिह्न लगाते नजर आते हैं। उनका स्पष्ट अभिमत है कि ऊंचाई और नीचाई तो सापेक्ष स्थितियां हैं। पेड़ पर खड़े आदमी को पेड़ की जड़ के पास खड़ा आदमी छोटा दिख सकता है किन्तु इससे वह छोटा हो नहीं जाता। अटल जी के अनुसार-
इससे फर्क नहीं पड़ता
कि आदमी कहां खड़ा है?
पथ पर या रथ पर?
तीर पर या प्राचीर पर?
फर्क इससे पड़ता है कि जहां खड़ा है
या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है,
वहां उसका धरातल क्या है?
हर व्यक्ति हर स्थिति और परिस्थिति में अपना धरातल साथ लेकर चलता है। तथाकथित उच्चताओं पर प्रतिष्ठित होकर भी यदि वह मानसिक रूप से क्षुद्रता के धरातल पर है तो वह आत्मप्रवंचना को जी रहा है। बाह्य सफलताएं आन्तरिक मूल्यों की बलि देकर प्राप्त करने योग्य नहीं हैं-
आदमी को चाहिए कि वह जूझे
परिस्थितियों से लड़े,
एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।
किन्तु कितना भी ऊंचा उठे
मनुष्यता के स्तर से न गिरे,
अपने धरातल को न छोड़े
अन्तर्यामी से मुंह न मोड़े
जमीन से निरन्तर जुड़े रहने की यह भावना, धरातल पर दृढ़ता के साथ खड़े रहने का यह भाव अन्तत: कवि को इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि व्यक्ति की वास्तविक पहचान सफलताओं के सिंहासन से नहीं, निश्छल-निर्लिप्त मन के कुश-आसन से ही होती है-
मनुष्य की पहचान
उसके धन या आसन से नहीं होती,
उसके मन से होती है।
मन की फकीरी पर
कुबेर की सम्पदा भी रोती है।
पद्मविभूषण अलंकार से सम्मानित होने के बाद दिल्ली में आयोजित अभिनन्दन समारोह में अटल जी के द्वारा पढ़ी गई कविता उनके जीवन दर्शन को समग्र प्रखरता के साथ प्रकट करती है। अपनी जड़ों से पृथक दृष्टि में गहराई और ऊंचाई की सहज समन्विति ही व्यक्तित्व में सार्थकता लाती है, तथाकथित ऊंचाई वास्तविक सफलता नहीं अपितु एकाकी हो जाने का शाप है-
केवल ऊंचाई ही काफी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग
परिवेश से पृथक्
अपनों से कटा-बंटा
शून्य में अकेला खड़ा होना
पहाड़ की महानता नहीं
मजबूरी है
ऊंचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है
वह इस बात को स्वीकारते हैं कि धरती को ऊंचे कद के इन्सानों की जरूरत है किन्तु उनकी आकांक्षा है कि आकाशी नक्षत्रों को दुलारने वाली अप्रमेय प्रतिमा पददलिता दूर्वा के साथ भी वत्सलता के साथ जुड़ी रहे, उसे पुष्पों के साथ ही नहीं कांटों के साथ भी लगाव हो, क्योंकि वे जैसे भी हैं इसी धरती के हैं। इसी कारण वह प्रार्थना कर पाते हैं-
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
गैरों को गले न लगा सकूं
इतनी रुखाई
कभी मत देना।
अपनी इकसठवीं वर्षगांठ पर लिखे गए एक नवगीत में अटल जी ने उम्र के बढ़ने को त्योहार की संज्ञा दी थी और अन्तिम पड़ाव के अनजाने बने रहने की रहस्यमयता में अक्षय सूरज और अखण्ड धरती के शाश्वत दर्शन को पढ़ने की चेष्टा की थी। हर जन्म-दिवस उन्हें गहन चिन्तन की मुद्रा दे देता है, वह अपने-आपको पढ़ते भी हैं, अपने-आपसे लड़ते भी हैं-
मुझे दूर का दिखाई देता है
मैं दीवार पर लिखा पढ़ सकता हूं
मगर हाथ की रेखाएं नहीं पढ़ पाता!
सीमा के पार भड़कते शोले
मुझे दिखाई देते हैं
पर पांवों के इर्द-गिर्द फैली गर्म राख
नजर नहीं आती।
क्या मैं बूढ़ा हो चला हूं?
हर पच्चीस दिसम्बर को
जीने की एक नई सीढ़ी चढ़ता हूं
नए मोड़ पर
औरों से कम, स्वयं से ज्यादा लड़ता हूं!
यह कविता अटल जी की ही नहीं, हर संवेदनशील हृदय का आत्मकथ्य कही जा सकती है। कवि को क्रान्तदर्शी माना जाता है। उसकी भाव-तरलता भविष्य की घटनाओं का पूर्वानुमान लगा लेती है। वक्त की दीवार पर लिखे हुए नियति के लेख वह स्पष्ट रूप से पढ़ लेता है किन्तु अक्सर अपने हाथ की रेखाएं पढ़ने में चूक जाता है, अपने परिपाश्र्व की गर्म राख को नहीं देख पाता, क्योंकि वे रेखाएं उसके वैयक्तिक सुख-दु:ख से जुड़ती हैं, वह राख उसके अपने दग्ध स्वप्नों की होती है। सामाजिकता की वेदी पर वैयक्तिकता की बलि देने की यह परम्परा, “इदं राष्ट्राय, इदं न मम” का यह समर्पण मंत्र तबसे ही दिशाओं में गुञ्जित-अनुगुञ्जित हो रहा है जबसे किसी निर्दोष क्रौञ्च को बहेलिए के बाण से बिद्ध देखकर आदिकवि के अन्तस् का शोक श्लोक बनकर अभिव्यक्त हो उठा था। वेदना-संवेदना की धारा के अक्षय हस्ताक्षर अटल जी के चिन्तन-अनुचिन्तन को शत-शत प्रणाम्! द
अभिव्यक्ति मुद्राएं
बीच अपने है जो परदा वह उठा देता हूं,
ज्ञान को भक्ति के हाथों से सजा देता हूं।
अब जो आती है कभी याद मुझे तेरी तो,
अपनी तस्वीर ही सीने से लगा लेता हूं।
-गोपालदास नीरज
अपने आंचल को भिगोती ही चली जाती है,
जिंदगी रोयी तो रोती ही चली जाती है।
नेक कामों में कभी देर न करिए साहब,
देर होती है तो होती ही चली जाती है।
-डा. कुंवर बेचैन
बांसुरी में छन्द को इतना पिरोया,
नन्द था अब नन्दनन्दन हो गया हूं।
-डा. किशोर काबरा
टिप्पणियाँ