पाकिस्तान भारत क्यों नहीं बनता?
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देवानन्द के जाने के बाद पाकिस्तान में उठा सवाल
मुजफ्फर हुसैन
पिछले दिनों जब महान कलाकार देवानंद का लंदन में निधन हुआ उस समय पाकिस्तान के 'डेली टाइम्स' ने उनके कृतित्व की प्रशंसा करते हुए जो सम्पादकीय लिखा उसका शीर्षक था 'हमारे भी थे गाइड।' लंदन से प्रकाशित होने वाले उर्दू दैनिक 'जंग' ने भी इन समाचारों को मुख पृष्ठ पर प्रकाशित किया और उन्हें भावभीनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित की। 'डेली टाइम्स' लिखता है, फिल्म 'गाइड' में अपनी भूमिका के लिए उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा। उनके निधन से बालीवुड के इतिहास का एक अध्याय समाप्त हो गया है। वे ऐसे सदाबहार अभिनेता थे, जिनके अभिनय की कई पीढ़ियां मुरीद हैं। देवानंद साहब का पाकिस्तान से यह जुड़ाव तो अवश्य है कि उनका जन्म पाकिस्तान में हुआ था और उसी समय लाहौर के नामी गवर्नमेंट कालेज में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वे 1940 के दशक में अपने सपनों को साकार करने के वास्ते मुम्बई चले गए थे। सन् 1946 में उन्हें पहली बार फिल्म 'हम एक हैं' में नायक की भूमिका मिली और फिर 1971 में उन्होंने स्वयं अपनी फिल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' का निर्माण किया। अपने समकालीन राज कपूर और दिलीप कुमार की तुलना में देवानंद एक लम्बे समय तक अग्रणी भूमिकाओं में छाए रहे। उनका फिल्मी केरियर 6 दशक तक चला, जिसमें उन्होंने या तो फिल्मों में अभिनय किया था या उनके निर्माण में उनका कोई न कोई सहयोग अवश्य रहा। फिल्मों में शानदार योगदान के लिए उन्हें भारत का सर्वोच्च सम्मान पद्म भूषण दिया गया। 2002 में फिल्म जगत का सर्वोच्च दूसरा सम्मान दादा साहब फालके पुरस्कार प्रदान किया गया। जिंदगी के प्रति उनके सकारात्मक दृष्टिकोण और अनवरत काम करने की शैली हम सभी को प्रेरणा देती रहेगी।'
पाकिस्तान में कलाकारों की स्थिति
पाठकों को भली प्रकार याद होगा कि पिछले दिनों जगजीत सिंह की मृत्यु के अवसर पर पाकिस्तानी मीडिया ने उनकी गजल गायकी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए शोकाकुल हृदय से इस महान कलाकार को याद किया। साबरी कव्वाल का जब पाकिस्तान में निधन हुआ तो हरियाणा की भूमि को मरते दम तक चाहने वाले इस कलाकार की मौत पर मातम किया गया। पाकिस्तान जाने के बाद भी उनकी पहचान एक हिन्दुस्थानी की ही रही। क्योंकि उनके एक-एक शब्द में भारतीयता टपकती थी। वे हमेशा भारत लौटने को आतुर रहते थे। लेकिन पारिवारिक बंधनों के कारण वे ऐसा नहीं कर सके। कुछ वर्ष पूर्व जब महान गायक कुंदन लाल सहगल का शताब्दी समारोह भारत में मनाया गया तो पाकिस्तानी दीवानों की तरह उनकी याद में छोटे-बड़े कार्यक्रम आयोजित करते रहे। तब एक सवाल उठता है कि भारत की माटी में ऐसा क्या है कि यहां कला अपने 16 श्रृंगारों से निखर जाती है और पाकिस्तान, जो 64 साल पहले भारत का ही अंग था, वहां कलाकार का दम घुटने लगता है और मन ही मन सोचने लगता है काश मैं भारत से पाकिस्तान नहीं आता? बालीवुड की बड़ी हस्तियों पर जब एक नजर दौड़ाते हैं तब अविभाजित पंजाब, सिंध और फ्रंटियर के कलाकार मुम्बई के आकर्षण में अपना नगर छोड़कर यहां चले आते थे। उन्होंने अपने भारी श्रम से अपना स्थान बनाया। इसलिए उनमें कोई दिलीप कुमार बन गया, कोई राज कपूर, तो कोई देवानंद और कोई बलराज साहनी। पृथ्वीराज कपूर के पिताश्री विशेषर नाथ पेशावर से आए और देखते ही देखते परिवार की तीसरी चौथी-पीढ़ी आज भारत के फिल्मी क्षेत्र में अपना डंका बजा रही है। कलाकार, कवि, लेखक और संगीतज्ञ जो भी उन दिनों मुम्बई चले आए, समय ने उनका हाथ पकड़ा और वे अपने-अपने क्षेत्र की महान हस्तियां बन गए। वे अपने क्षेत्र में इतने सफल हुए कि विश्व उनका लोहा मानता है।
बंजर भूमि
विभाजन से पूर्व पाकिस्तान में इतनी प्रतिभाएं भरी पड़ी थीं कि जो यहां आता था बड़ा कलाकार, कवि, लेखक और संगीतकार बन जाता था। लेकिन पाकिस्तान बनते ही पता नहीं इस बौद्धिक कौशल को कौन-सा सांप सूंघ गया? जो भाग विविध कलाओं का सर्जक था वह अचानक ही बंजर भूमि में बदल गया। दस-बीस नुसरत फतेह अली जैसे पैदा भी हुए तो उन्हें बहुत जल्द ग्रहण लग गया। केवल इतना ही नहीं, पाकिस्तान बन जाने के पश्चात मजहबी जुनून में पागल होकर अथवा अपनी सुरक्षा की चिंता करके जो पाकिस्तान पलायन कर गए उनके भविष्य के आगे प्रश्नवाचक चिन्ह लग गया। भारत में अपनी आवाज से लोगों को दीवाना बनाने वाली नूरजहां के जीवन का नूर ही उतर गया। पाकिस्तान में उनकी बनी फिल्म दुपट्टे में वे लिपट कर रह गईं। उनके पति शौकत, जो सफल निदेशक थे, गुमनामी के गर्त्त में चले गए। जुगुनू फिल्म के संगीत निदेशक फिरोज निजामी कहां लुप्त हो गए? चर्चित कमेडियन नूर मोहम्मद चार्ली, चरित्र अभिनेता शाह नवाज, एस. नजीर पाकिस्तान की धरती में कहां समा गए, इसका उत्तर देने वाला कोई नहीं है। बेगम पारा से पूछिए कि वे पाकिस्तान से पुन: भारत क्यों लौट आईं?
प्रसिद्ध उर्दू कवि जोश मलीहाबादी, महान कहानीकार हसन मंटो और नियाज फतेहपुरी को कौन से नाग ने डंस लिया, इसका उत्तर पाकिस्तान के पास नहीं है। प्रसिद्ध कवि फैज अहमद फैज का इन दिनों शताब्दी समारोह चल रहा है। लेकिन पाकिस्तान में नहीं, भारत में। 17 दिसम्बर को फैज की याद में एक विशाल मुशायरा मुम्बई के नेहरू सेंटर में आयोजित किया गया।
सपना क्यों टूटा?
अब सवाल यह पैदा होता है कि जो कलाकार विभाजन के पूर्व भारत में पाकिस्तान से आए उन्होंने अपनी कला को दर्शाकर भारत का नाम दुनिया में उजागर किया। लेकिन वे कलाकार, जो भारत से पाकिस्तान गए, उनका कोई नामलेवा भी नजर नहीं आता है। लाहौर को पाकिस्तान का बालीवुड बनाने का सपना क्यों टूट गया? भारत के सफल कलाकार पाकिस्तान में जाकर अपनी कला का जौहर क्यों नहीं दिखा सके? जब इसका उत्तर खोजते हैं तो मूल रूप से एक ही बात सामने आती है कि कला खुलेपन में खिलती और परवान चढ़ती है। पाकिस्तान की मांग से लेकर आज 64 वर्ष के बाद भी उस देश में कट्टरता और बंदिश ने अपना साम्राज्य स्थापित कर रखा है। पाकिस्तान को बनाने वाली मुस्लिम लीग के नेता भले ही जिन्ना रहे हों, लेकिन भारत की एकता में जहर घोल कर साम्प्रदायिकता की गंध फैलाने वाले लीग के मुल्ला-मौलवी थे। उनको कला और पंथनिरपेक्षता से जनम-जनम का बैर था। उन्हें हर अच्छी बात में पाकिस्तान खतरे में नजर आता था। इसलिए मुल्ला-मौलवियों की पकड़ में सारा देश आ गया। इस्लाम की व्याख्या मनमाने ढंग से करने की रीत शुरू हो गई। जिन कलाओं में भारत अग्रणी था वे उनके लिए कुफ्र बन गई। इसलिए पाकिस्तान बन जाने के बाद भी उनका रवैया नहीं बदला। कला का गला घोंट दिया गया। पाकिस्तान में कोई संविधान नहीं और कोई जीने का लक्ष्य नहीं, इसलिए मजहब के नाम पर उसे काल कोठरी में बंद कर दिया गया है। इन मुल्लाओं की पकड़ ने अब उसे तालिबान और आतंकवादियों का देश बना दिया है। जहां हर प्रगति उनके लिए विषैला जहर है। राजनीति से लेकर जीवन जीने के तरीकों पर मुल्लाओं के पहरे हैं। इसलिए पाकिस्तान में हर क्षेत्र में कट्टरवाद की खेती लहलहाती है। पाकिस्तान यदि अपने आपका विलय भारत में न भी करे और केवल जीवन जीने की आजादी को भी एक बार यथावत कर दे तो पाकिस्तान कल का भारत बन सकता है।
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