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मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया…

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Dec 11, 2011, 12:00 am IST
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मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया

दिंनाक: 11 Dec 2011 20:35:12

देव आनन्द

23 सितम्बर,1923 – 3 दिसम्बर,2011

आलोक गोस्वामी

जिंदादिली और जादुई व्यक्तित्व-इन दो खूबियों के चलते, छह दशक से ज्यादा वक्त तक रुपहले पर्दे के जरिए देश-दुनिया के करोड़ों लोगों के चहेते रहे सदाबहार अभिनेता देव आनंद का विदा हो जाना उनके चाहने वालों के दिलों में एक सर्द आह पैदा कर गया। सदी के महानायक अभिताभ बच्चन के शब्दों में-एक ऐसा खालीपन पैदा हुआ है जिसकी भरपाई शायद ही कभी हो पाएगी। छुट्टियां बिताने के साथ ही सेहत की जांच कराने लंदन गए 88 साल के जवां देव आनंद को 3 दिसम्बर की रात दिल का दौरा पड़ा और ताउम्र दिल के धनी रहे देव साहब ने अंतिम सांस ली। जज्बों की कद्र करने वाले, मीठे बोल और दूसरे को एक जादुई जोश से भरने वाले, उम्र की बढ़ती पायदान को छकाने वाले, जिंदगी से मोहब्बत करने वाले, रूमानियत को नए मायने देने वाले देव…. चिर आनंद में लीन हो गए!

23 सितम्बर, 1923 को भारत बंटवारे से पहले गुरुदासपुर में जन्मे धरम देव पिशोरीमल आनंद का बचपन गांव में ही बीता। कालेज की पढ़ाई के लिए लाहौर (अब पाकिस्तान में) के गवर्नमेन्ट कालेज में दाखिला लिया। अंग्रेजी साहित्य से लगाव था सो उसी में बी.ए. करने के बाद निकल पड़े सपनों के शहर बम्बई (अब मुम्बई) की ओर। वहां रोजी-रोटी की शुरुआत की फौज के सेंसर आफिस में, फौजियों की आने-जाने वाली चिट्ठियों पर नजर रखने लगे। काम रुचा नहीं सो बरास्ते थिएटर जा पहुंचे फिल्मों में। सूरत-सीरत भली थी सो काम फट से मिल गया। 1946 में प्रभात टाकीज ने “हम एक हैं” में काम दिया, अदाकार के तौर पर जमे, पर फिल्म ज्यादा नहीं चली। फिर “48 में अशोक कुमार ने बाम्बे टाकीज की “जिद्दी” में हीरो बनाया और बस जम गई बात। कामिनी कौशल के साथ छा गए देव। नाम पहचाना जाने लगा। कामयाबी मिलते ही भाई चेतन के साथ खुद की नवकेतन फिल्म कम्पनी बना ली, जो आज तकरीबन 60 साल के बाद भी कायम है। नवकेतन के बैनर तले पहली फिल्म बनाई सुरैया के साथ। हास्य और रूमानियत में पगी “अफसर” बहुत अच्छा नहीं कर पाई। लेकिन देव आनंद ठहरे बेसब्रे…… हर वक्त कुछ नया करने…. कुछ अलग हटकर करने की उनकी तबसे रही शख्सियत उनके जाते तक कायम रही थी। बहरहाल, “50 और “60 के दशकों में देव आनंद एक के बाद एक फिल्मों में अपनी खास तरह की अदाकारी, संवाद अदायगी और चेहरे के जरिए दिल के आर-पार होने वाले भावों के साथ फिल्म-आकाश पर ऊंची उड़ान भरते गए। अपने दौर के दो अन्य दिग्गज अदाकारों-राजकपूर और दिलीप कुमार-के साथ देव आनंद नाम जुड़वाकर “फिल्मों की त्रिमूर्ति” का तमगा हासिल किया। बाजी (1951), जाल (1952), टैक्सी ड्राइवर (1954), इंसानियत (1955), फंटूश (1956), सी.आई.डी. (1956) से होते हुए तीन देवियां (1965), गाइड (1965), प्रेम पुजारी (1970), जॉनी मेरा नाम (1970), हरे रामा हरे कृष्णा (1971), हीरा पन्ना (1973), देस परदेस (1978), स्वामी दादा (1982) तक देव साहब का जादू सिर चढ़ कर बोला। नवकेतन के जरिए उन्होंने आने वाले वक्त की नब्ज बहुत पहले पहचानते हुए एक के बाद एक फिल्में बनाईं। ऊर्जा ऐसी गजब की थी उनमें कि फिल्म चले या न चले, फिल्म के रिलीज होने से पहले वह अगली कहानी पर काम करने लगते थे। अभी 88 की उम्र में भी उन्होंने इसी साल “चार्जशीट” पर्दे पर उतारी। देव आनन्द जितने अपनी खास अदाकारी के चलते लोगों के दिलों में जगह बना पाए उतने ही उन पर फिल्माए गए गाने भी सदाबहार बने हुए हैं। “अभी न जाओ छोड़कर….”, “खोया खोया चांद…”, “पल भर के लिए कोई हमें प्यार…”, “ये दिल न होता बेचारा….”, “फूलों का तारों का….”, “क्या से क्या हो गया….”, “मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया….”.. कितने गीत गिनाएं…. एक से बढ़कर एक। खूबी यह कि इन गीतों को सुनते-गुनगुनाते हुए मदमस्त चाल, भोली मुस्कान वाले देव साहब का चेहरा जरूर आंखों के आगे तैरता है। सच कहा न?

अपनी साथी अदाकारा कल्पना कार्तिक के साथ 1954 में रूस में ब्याह रचाने वाले देव आनन्द ने 1958 में “कालापानी” के लिए फिल्मफेयर का सर्वोत्तम अभिनेता पुरस्कार जीता।

आर.के. नारायण के सुप्रसिद्ध अंग्रेजी उपन्यास “द गाइड” पर अपने भाई विजय आनंद के निर्देशन में “गाइड” फिल्म में अभिनय की नई ऊंचाइयों को छूते हुए वे सर्वोत्तम अभिनेता का खिताब फिर से जीते थे। सचिन देव बर्मन के सुन्दर संगीत निर्देशन में उन्हीं की आवाज में “गाइड” का गीत “वहां कौन है तेरा….” आज भी भावविभोर कर देता है। देव आनंद नई अदाकाराओं को फिल्म जगत से रूबरू कराने के लिए भी जाने जाते थे। जीनत अमान, टीना मुनीम और ऋचा शर्मा उन्हीं की वजह से सिने जगत में नाम अर्जित कर पाई थीं। एक जादुई व्यक्तित्व के धनी देव आनंद की एक और खूबी यह थी कि वे समाज से सरोकार रखते थे और जहां जो बात गलत होती उसे गलत कहते थे और ठोक कर कहते थे। 1975-77 में उन्होंने श्रीमती इंदिरा गांधी के आपातकाल की खुलकर भत्र्सना की और जे.पी. के आंदोलन का समर्थन किया था। फिल्म जगत के अपने कुछ साथियों के साथ देव साहब ने “77 के चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ खुलकर प्रचार किया था और “नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया” का गठन किया था, जो ज्यादा वक्त कायम नहीं रह सकी।

2001  में देश के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित देव साहब को फिल्म जगत का श्रेष्ठतम सम्मान दादा साहब फाल्के सम्मान दिए जाने की कई बार मांग हुई, पर कांग्रेस सरकारों ने हमेशा कन्नी काटी, क्योंकि वे इमरजेंसी के खिलाफ खुलकर बोले थे। आखिरकार 2002 में वाजपेयी सरकार ने उन्हें इस सम्मान से नवाजा जो उन्हें वर्षों पहले मिलना चाहिए था। पर सम्मानों से परे, दैवीय आनंद से सराबोर रहने वाले देव आज भले भौतिक रूप से हमारे बीच न रहे हों, पर लगता है जैसे वे कहीं नहीं गए हैं। रुपहले पर्दे पर छोड़ी अनगिनत अमिट निशानियां आने वाले लंबे वक्त तक उन्हें हमारे बीच बनाए रखेंगी। अमिताभ की फिल्म आनंद में एक संवाद था, जो बरबस याद हो आया है (पता नहीं क्यों….) – “आनन्द मरा नहीं, आनंद मरते नहीं।” द आलोक गोस्वामी

 

 सम्पादक :  बल्देव भाई शर्मा -दूरभाष: सम्पादकीय-(011) 47642013, 14, 16, 17 तक  फैक्स- (011)47642015,  अणु डाक-editor.panchjanya@gmail.com मुद्रक एवं प्रकाशक प्रमोद कौशिक द्वारा भारत प्रकाशन (दिल्ली) लिमिटेड,

संस्कृति भवन, देशबंधु गुप्ता मार्ग, झण्डेवाला, नई दिल्ली-55 के लिए प्रकाशित तथा विभा पब्लिकेशन प्रा.लि., डी-160 बी, सेक्टर-7, नोएडा (उ.प्र.) से मुद्रित। व्यवस्था-(011) 47642027 प्रसार-47642000 से 2003 तक, विज्ञापन-47642006 से 2009 तक

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