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मनमोहन सिंह बनाम 'महंगाई सिंह'

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Nov 26, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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मनमोहन सिंह बनाम 'महंगाई सिंह'

दिंनाक: 26 Nov 2011 13:12:19

 मुजफ्फर हुसैन

हमारे पेट्रोलियम मंत्रालय की यह एक शोकांतिका रही है कि इसकी न तो कोई स्थायी नीति है और न ही कार्यक्रम। जिसका सबसे बड़ा कारण है सरकार में पेट्रोलियम मंत्री का बार–बार बदलाव।

 नवम्बर को प. जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिवस था। संभवत: इसकी खुशी में तेल कंपनियों की ओर से एक बड़ा तोहफा भारतीय जनता को मिला। उन्होंने घोषणा की कि 15 नवम्बर से पेट्रोल के दामों में 2 रुपये 25 पैसे कम कर दिये। इस बार जब पेट्रोल के भाव बढ़े तो संप्रग के सभी घटकों ने शोर मचाया। इतना ही नहीं, तृणमूल कांग्रेस ने चेतावनी दे दी कि यदि पेट्रोल के दाम कम नहीं होते हैं तो हम अपना समर्थन इस सरकार से वापस लेने के लिए मजबूर हो जाएंगे। तृणमूल की यह धमकी थी अथवा अन्तरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम कम हो जाने की घटना, भारत की तेल कंपनियों ने पेट्रोल के दाम 2 रुपये 25 पैसे कम कर दिये। पिछले 33 महीनों में यह पहली घटना थी कि मूल्य कम हो जाने के शुभ समाचार भारत की जनता ने सुने। लेकिन डीजल और रसोई गैस पर तलवार लटक रही है। उनके दामों में किसी भी क्षण वृद्धि हो सकती है। जब कोई सरकार से पेट्रोल के दामों के बढ़ने की शिकायत करता है तो सरकार स्पष्ट तौर पर कह देती है कि कीमतें हमने नहीं, बल्कि तेल कंपनियों ने बढ़ाई हैं। सवाल यह है कि सरकार कंपनियों के मातहत है या फिर तेल कंपनियां सरकार के मातहत? सरकार अपने 'कर' कम करने को तैयार नहीं तो फिर तेल कंपनियों को क्या पड़ी है कि वे बहती गंगा में हाथ नहीं धोएं? कुछ ही दिनों में सरकार फिर से पुरानी बातें जनता को सुनाएगी और कह देगी कि अन्तरराष्ट्रीय भावों की वृद्धि के आगे हमारी कंपनियां लाचार हैं। इसलिए जनता को 2.25 पैसे की कमी हो जाने पर कोई खुशी नहीं है, बल्कि उन दिनों को सहसा याद करने लगती है जब अटल जी की सरकार थी। उस समय भाव क्यों नहीं बढ़ते थे?

दूरदर्शिता की कमी

अटल जी की सरकार में पेट्रोलियम मंत्री रहे रामनाइक से जब इस संबंध में पूछते हैं तो वे उन दिनों की याद दिलाते हुए कहते हैं कि 2004 में जब राजग सरकार थी उस समय पेट्रोल 33.15 रुपये लीटर था, जो 5 नवम्बर 2011 को 73.81 रु. प्रति लीटर हो गया। यानी पिछले सात साल से जनता प्रति लीटर 40.68 रु. अधिक दे रही है। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि  पेट्रोल में 123 प्रतिशत महंगाई बढ़ी है। मिट्टी तेल 18 रुपये प्रति लीटर था, जो अब 40 रुपये हो गया है। यानी 122 प्रतिशत मूल्य में वृद्धि हुई। रसोई गैस का सिलेंडर 244 रुपए में मिल जाता था, वह अब 402 रुपये हो गया है। अर्थात् 65 प्रतिशत वृद्धि। डीजल 22.50 रुपए प्रति लीटर था, वह अब 45.30 रु. पर पहुंच गया है। सीधे-सीधे 101 प्रतिशत महंगाई बढ़ गई। सीएनजी 19.11 रुपये प्रति किलो थी, जो बढ़कर 31.45 रुपये हो गई है। यानी 60 प्रतिशत वृद्धि। प्राकृतिक गैस पर भी आसमान टूटा और वह 11.53 रुपये से 20.39 रुपये पर पहुंच गई। यानी 77 प्रतिशत की बढ़ोतरी। दिलचस्प बात यह है कि हमारे पड़ोसी देश, जो भारत की तुलना में कम विकसित और गरीब हैं, वहां पेट्रोल की कीमत हमारी तुलना में बहुत कम है। पाकिस्तान में इस समय पेट्रोल 41.81 रुपये, श्रीलंका में 50.30 रुपये और बंगलादेश में 44.80 रुपये प्रति लीटर है। जबकि दुनिया में सर्वाधिक पेट्रोल खर्च करने वाले अमरीका में 42.82 रुपये प्रति लीटर बिक रहा है। भारत में आज की तारीख में इसका भाव 71.56 रुपये है।

मुद्रास्फीति का रोग तब भी था, लेकिन उन दिनों प्रधानमंत्री के पद पर भारत की गरीब जनता के चुने हुए एक सामान्य व्यक्ति अटल बिहारी वाजपेयी थे। आज तो अपने आपको अर्थशास्त्री और उदारवादी अर्थव्यवस्था का प्रणेता कहने वाले मनमोहन सिंह विराजमान हैं। रामनाइक उन दिनों की याद ताजा करते हुए कहते हैं कि प्रति सप्ताह ईंधन के मामले में मंत्रिमंडल विचार करता था और उसके अनुरूप फैसले लिये जाते थे। सरकार उन देशों पर नजर रखती थी जो खनिज तेल उत्पादन में नए थे। रूस में सखालीन और अफ्रीका में सूडान ऐसे दो क्षेत्र थे, जिनमें भारत ने स्वयं उसमें पूंजी लगाई थी। सखालीन में भारत ने 9 हजार करोड़ रुपये लगाए। सन् 2002 में भारत ने पूंजी लगाई जिसका नतीजा यह हुआ कि वहां से भारत को 2007 में तेल मिलना प्रारंभ हो गया। इसी प्रकार सूडान के तेल वाले क्षेत्र में भारत ने 3400 करोड़ का निवेश किया। इस प्रकार भारत ने दूरदर्शिता दिखाई और भविष्य में उसे सस्ते तेल की पूर्ति कहां से होती रहे इस पर अपना लक्ष्य निर्धारित किया।

गन्ने के शीरे की उपयोगिता

इतना ही नहीं, भारत ने कुछ ऐसे प्रयोग भी किये जिनसे खनिज तेल में अन्य वस्तु को मिला देने से उसकी मात्रा में वृद्धि हो सके। आज हमें 78 प्रतिशत कच्चा तेल आयात करना पड़ता है। यदि उसमें गन्ने के शीरे को मिला दिया जाए तो उसकी मात्रा में वृद्धि हो सकती है। गन्ने के शीरे से निकाले गए एथीनोल को यदि कच्चे तेल में मिला दिया जाए तो भारत के लिए यह बड़ा उपयोगी हो सकता है। इससे गन्ने की पैदावार करने वालों को भी बड़ा लाभ हो सकता है। शक्कर की जो कीमत बाजार में नहीं आती है उससे अधिक मूल्य इस शीरे का हो सकता है। दिलचस्प बात तो यह है कि शक्कर बन जाने के पश्चात् जो पदार्थ बच जाता है वही इस शीरे का रूप है। भारतीय किसान धड़ल्ले से आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन हमारी सरकार वह कोई काम नहीं करती है जिससे किसान की आर्थिक स्थिति सुधरे। गन्ना महाराष्ट्र की मुख्य पैदावार है। जितने भी बड़े नेता हैं वे किसी न किसी शक्कर के कारखाने के मालिक हैं। इसलिए महाराष्ट्र अपने शक्कर सम्राटों के लिए प्रख्यात है। उदारीकरण के शहंशाहों को यह छोटी सी बात क्यों समझ में नहीं आती? यद्यपि एथीनोल तैयार करने की विधि जटिल है। लेकिन भारत की सबसे उपयोगी और विदेशी वस्तु पेट्रोल की कमी इस माध्यम से दूर हो जाती है तो फिर इससे बढ़कर अच्छी बात क्या हो सकती है? लेकिन वर्तमान सरकार के नेताओं का तो एकमात्र काम है येन-केन काला धन पैदा करना और उसकी सुरक्षा के लिए विदेशों के चक्कर काटना।

भारत जब आजाद हुआ था उस समय आत्मनिर्भर बनने के लिए जवाहर लाल ने अनेक योजनाओं का श्रीगणेश किया था। उनमें एक योजना थी भारत की धरती में पेट्रोल की खोज। प्रकृति ने इस देश को सब कुछ दिया है। इसलिए पेट्रोल और उसके समानांतर पदार्थ यहां की धरती में उपलब्ध न हों ऐसी बात नहीं है। भारत के प्रथम पेट्रोलियम मंत्री केशवदेव मालवीय के नेतृत्व में तत्कालीन सरकार ने यह खोज प्रारंभ की थी। पाठक भली प्रकार जानते हैं कि असम में डिब्रूगढ़ और डिगबोई के क्षेत्र में तेल के कुएं थे। ब्रिटिश सरकार इनकी खोज कर सकती थी, लेकिन भारत सरकार नहीं, यह एक आश्चर्य की बात है? इंदिरा गांधी की सरकार इस क्षेत्र में सक्रिय थी। जिसका परिणाम हमें 'मुम्बई हाई' के रूप में देखने को मिला। उस क्षेत्र में आज भी काम जारी है। मुम्बई हाई की गैस भारत के लिए उपयोगी हो रही है। लेकिन बताया जाता है कि वह इतनी बड़ी मात्रा में उपलब्ध है कि उसका दोहन अभी तक सरकार नहीं कर पाई है। यह एक अलग विषय है जिसे इतने छोटे से लेख में शामिल किया जाना कठिन है।

स्थायी नीति का अभाव

हमारे पेट्रोलियम मंत्रालय की यह एक शोकांतिका रही है कि इसकी न तो कोई स्थायी नीति है और न ही कार्यक्रम। जिसका सबसे बड़ा कारण है सरकार में पेट्रोलियम मंत्री का बार-बार बदलाव। केशवदेव मालवीय पं. जवाहर लाल के मंत्रालय में ईंधन और पेट्रोलियम मंत्री थे। इस मंत्रालय में एक के बाद एक मंत्री आते गए, लेकिन इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता कि भाजपा-शिवसेना और अन्य घटकों से बनी राजग सरकार को छोड़ दें तो कोई भी पेट्रोलियम मंत्री अपने पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। इसके लिए मुम्बई के रामनाइक एक उदाहरण हो सकते हैं। वर्तमान सरकार में अब तक तीन मंत्री बदले जा चुके हैं। जिनमें मणिशंकर अय्यर, मुरली देवड़ा और अब जयपाल रेड्डी हैं। पेट्रोलियम से जुड़े उद्योगपति भी इस मामले में निष्क्रिय साबित हुए हैं। इसके प्रत्यक्ष उदाहरण रिलायंस के अम्बानी बंधु हैं। दक्षिण भारत की गोदावरी और कृष्णा घाटी में मुम्बई हाई की तरह गैस के भारी भंडार हैं। दक्षिण भारत में उपलब्ध इस गैस को भारत के अन्य भागों तक पहुंचाना एक चुनौती भरा काम है। इस पर आने वाला खर्च भी कोई कम नहीं है।

भारत ने पिछले दिनों ईरान से गैस लेने का एक अनुबंध किया था। इस योजना का सम्पूर्ण देश में स्वागत हुआ था। ईरान और भारत के संबंध सदियों से जुड़े हुए हैं। अरब हमलों के पश्चात् ईरान भले ही बाद में इस्लामी देश हो गया हो, लेकिन उसकी जरथ्रुस्ट सभ्यता दोनों देशों को एक सूत्र में बांधे रही। ईरान इस अनुबंध पर प्रसन्न है। लेकिन गैस की पाइप लाइन पाकिस्तान से गुजरती है, यह दोनों देशों के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द है। अहमदी नेजाद की सरकार मान भी जाए तब भी तालिबानी इस पाइप लाइन को कब ध्वस्त कर देंगे, यह नहीं कहा जा सकता है। इसलिए फिलहाल तो इस पाइप लाइन का काम बंद है। ऊर्जा भारत की सबसे बड़ी समस्या है, लेकिन भास्कर देवता भारत पर प्रसन्न हैं। यदि भारत सौर ऊर्जा के संबंध में सक्रिय हो तो बहुत हद तक इस महंगे पेट्रोल से छुटकारा मिल सकता है। अरब देशों के लिए पेट्रोल काला सोना है। लेकिन यह काला सोना यदि वरदान है तो उसके लिए सबसे बड़ा अभिशाप भी। मध्य-पूर्व में जो कुछ चल रहा है और अमरीका जिस प्रकार से अपनी राजनीति को पेट्रोल आधारित बनाकर विश्व का थानेदार बना हुआ है, उसे देखते हुए अरबी नेता कभी कभी कहते हैं, यदि पेट्रोल हमारे लिए इतना ही बड़ा सिरदर्द है तो एक दिन पेट्रोल के कुंओं में आग लगाकर हमें फिर से अपने 'केमल एज' में लौट जाने पर कोई दुख नहीं होगा।

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