माया-जाल
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उ.प्र. बंटवारे का
लखनऊ से शशि सिंह
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव-राज की कानूनहीनता को मुद्दा बनाकर सत्ता में आयीं बसपा मुखिया मायावती ने इस बार नया माया-जाल फैलाया है- उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव। इसे पहले मायावती ने मंत्रिमण्डल में पारित कराया और फिर विधान सभा में विपक्ष के शोर-शराबे की बीच महज 16 मिनट में बिना किसी बहस के ध्वनि मत से इसे पारित करवा लिया। लेकिन पूर्वांचल, बुंदेलखंड, अवध और पश्चिमी उत्तर प्रदेश नाम से प्रस्तावित नये “राज्यों” को उन लोगों का भी समर्थन प्राप्त नहीं है जो उसके लिए सालों से लड़ते आ रहे हैं। हरित प्रदेश (पश्चिमी उत्तर प्रदेश) की मांग करने वाले राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजीत सिंह कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने की जुगत में लगे हैंट तो पूर्वांचल राज्य की मांग करने वाले अमर सिंह और अन्य लोगों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। बुंदेलखंड में राजा बुंदेला को छोड़कर इसे कहीं से समर्थन मिलता नहीं दिख रहा है। अवध में भी बंटवारे के प्रस्ताव का विरोध हो रहा है। बसपा को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों ने इसे चुनावी पैंतरेबाजी करार दिया है।
अपराध और अपराधियों का राज
उल्लेखनीय है कि मायावती ने जब 2007 का विधानसभा चुनाव जीता था तो जनता को उम्मीद थी कि वह राज्य को कम से कम अपराध और अपराधियों से मुक्त कराएंगी। लेकिन शुरू के दो महीने छोड़ दें तो उनके पूरे कार्यकाल में अपराधी और माफिया तत्व सक्रिय रहे। विधायक शेखर तिवारी, आनंदसेन और अमरमणि त्रिपाठी को हत्या में उम्रकैद की सजा हो चुकी है। बाबू सिंह कुशवाहा, अनंत कुमार मिश्र, अवधपाल यादव, राजेश त्रिपाठी, बादशाह सिंह सहित कम से कम आठ मंत्रियों या मंत्री पद का दर्जा प्राप्त नेताओं को भ्रष्टाचार, दुराचार, गुंडागर्दी के आरोपों में इस्तीफा देना पड़ा। राजधानी लखनऊ में दो-दो मुख्य चिकित्सा अधिकारियों (सीएमओ) और एक उप मुख्य चिकित्सा अधिकारी (डिप्टी सीएमओ) की हत्या की जा चुकी है। ओरैया में एक इंजीनियर को पीट-पीटकर मार डाला गया। बसपा के विधायक पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी, गुड्डू पंडित, योगेंद्र सागर जैसे एक दर्जन से अधिक विधायक दुराचार, भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी जैसे आरोपों से बुरी तरह घिरे रहे। इनमें कई तो कितने ही माह जेल में भी रहे। यह अलग बात है कि अब उनमें से बहुतों ने सपा का दामन थाम लिया।
इतना सब होने के बाद मुख्यमंत्री मायावती चुनाव में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हैं। तभी तो पहले उन्होंने निकाय चुनावों को बिना चुनाव चिन्ह कराने का जाल फेंका, कानून में संशोधन किया। न्यायालय ने उनके इस कदम को अवैध करार दिया। उन्हें अपने कदम पीछे हटाने पड़े। निकाय चुनाव नजदीक आते देख उन्होंने उसे टालने की हरसंभव कोशिश की। यहां भी उच्च न्यायालय के विपरीत फैसलों से उन्हें मुंह की खानी पड़ी। लखीमपुर और पिपराइच विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए तो हार के डर से वहां अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा किया।
मायावती के सामने इससे भी बड़े संकट हैं। उच्च न्यायालय के आदेश पर अब तक दोनों सीएमओ और एक डिप्टी सीएमओ के अलावा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के राजधानी समेत केवल चार जिलों में हुए घोटालों की जांच सीबीआई कर रही थी। उच्च न्यायालय के ताजा आदेश में कहा गया है कि इस योजना में सभी 72 जिलों के घोटालों की जांच सीबीआई करेगी। जांच एजेंसी ने अपना काम शुरू भी कर दिया है। अब बसपा के कई बड़े नेताओं के फंसने का डर सता रहा है।
पापों से नहीं मुक्ति
अब असली अपराधियों के पकड़े जाने की संभावना बढ़ती जा रही है। इसीलिए मायावती अब उनसे पल्ला छुड़ाने में लगी हुई हैं। मायावती ने एनएचआरएम घोटाले में बुरी तरह फंसे अपने सबसे विश्वस्त सहयोगी बाबू सिंह कुशवाहा (पूर्व मंत्री, परिवार कल्याण) और बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा के करीबी अनंत कुमार मिश्र (पूर्व मंत्री, स्वास्थ्य विभाग) का इस्तीफा लेने में देर नहीं लगायी। बाबू सिंह कुशवाहा पर सीबीआई की नकेल कसने वाली थी, उनसे पूरी तरह किनारा कर लिया गया। नतीजतन वह अब अन्य ठौर की तलाश में हैं। उन्होंने हाल ही में मायावती को एक पत्र लिखकर उनके विश्वस्त वरिष्ठ मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी तथा मुख्यमंत्री के नजदीकी दो बड़े अफसरों, कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह और प्रमुख सचिव (गृह) फतेह बहादुर से अपनी जान को खतरा बताते हुए सुरक्षा की मांग की है। पूर्व मंत्री अनंत कुमार मिश्र को पहले लखनऊ की एक विधानसभा से टिकट दिया गया था जिसे बाद में काट दिया और दूसरे को दे दिया। मायावती द्वारा ऐन मौके पर धोखा दिए जाने के डर से कई विधायक अन्य ठौर की तलाश में जुट गए हैं।
सबको सब मालूम है
इस सबके बावजूद मायावती उपरोक्त सभी आरोपों से मुक्त नहीं होने वाली हैं, क्योंकि आम आदमी सब जानता है। जनता पिछले साढ़े चार साल तक मायाराज में हुए अत्याचार की भुक्तभोगी और गवाह है। उसने देखा है कि कैसे माया की पुलिस ने लखनऊ में प्रदर्शन कर रहे भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही को जमीन पर पटक दिया था, मेयर दिनेश शर्मा पर लाठीचार्ज कर जख्मी कर दिया था। राजधानी के तत्कालीन उपमहानिरीक्षक डीके ठाकुर ने प्रदर्शन कर रहे एक सपा नेता की गर्दन को अपने बूटों से रौंदा था। जनता का इस सच से भी सामना हुआ कि अवध विश्वविद्यालय की विधि की छात्रा शशि का पहले अपहरण किया गया, बाद में उसकी हत्या कर दी गई।
नहीं चलेगा तुरुप का पत्ता
मायावती को मालूम है कि जो जनता मुलायम सिंह के कुशासन से मुक्ति पाने के लिए उनके जैसी गैर लोकतांत्रिक नेता को राज्य की बागडोर सौंप सकती है वही इस चुनाव में उन्हें जमीन भी चटा देगी। इसीलिए जनता का ध्यान भटकाने के लिए वह नये मुद्दे- राज्य के बंटवारे-को सामने लेकर आयी हैं। राज्य छोटा हो या बड़ा, जनता को चाहिए राहत। पिछले साढ़े चार साल में उसे मायावती से राहत नहीं मिली, वह केवल इतना जानती है। इसलिए उनका छोटे राज्यों का तुरुप का पत्ता नहीं चलने वाला। मायावती की यदि नीयत ठीक होती तो इतने गंभीर मुद्दे पर विपक्षी दलों के साथ गहन विचार विमर्श और उन्हें विश्वास में लेकर राज्य के बंटवारे का प्रस्ताव लातीं, न कि आनन-फानन में विधानसभा का सत्र आहत कर केवल 16 मिनट में प्रस्ताव पारित करा लेतीं। उनके इन प्रयासों को चुनावी राजनीति का पैंतरा तो कहा जा सकता है लेकिन जनभावनाओं के अनुकूल नहीं माना जा सकता। द
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