सरोकार
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सरोकार
मृदुला सिन्हा
मां तो मां होती है। शिशु को जन्म देकर उसकी नींद सोती-जगती, उसी के साथ हंसती-विसूरती एक स्त्री। वही मां है। कहते हैं मां का विकल्प नहीं हो सकता। यह सही है। रोता बिलखता शिशु मां की गोद का स्पर्श पाकर ही सो जाता है। घर की अन्य स्त्रियां वह भूमिका नहीं निभा पातीं। समाज भी विचित्र है। आखिर मां का भी पर्याय ढूंढ लिया। आया, धाय, जो भी कहिए। वह मां के बराबर ही हो जाती है।
पिछले दिनों मैं अपने शहर (मुजफ्फरपुर) गई थी। मेरे घर में (दिल्ली) काम करने वाली प्रीति की मां पूना से आई थी। वह लूना के एक वर्षीय बेटे की देखभाल के लिए बिहार से पूना गई थी। चार महीने उपरांत लौटी। दहाउरी देवी को अपनी मालकिन लूना से थोड़ी बहुत शिकायतें भी हैं। यदा-कदा मुझे भी सुनने में आती रहीं शिकायतें। दहाउरी मुझसे मिलने आई। मैंने सोचा था वह अपनी मालकिन की शिकायतें कहेगी। पर वह तो लूना के बेटे तेजस के प्रेम में आकंठ डूबी थी। वह उस बच्चे के हंसने-रोने, खेलने-खाने, चलने-छुपने का ऐसा वर्णन कर रही थी, मानो वह उसी का बच्चा हो। वात्सल्य भाव में डूबा था उसका शिशु प्रेम। उसे इस बात का भी गुमान और संतोष है कि बच्चा अपनी मां की गोद से अधिक निÏश्चत उसकी गोद में रहता है। उससे खेलता है। उसे न पाकर रोता है। उसके छुप जाने पर बिसूरता है। इन सारी शिशु लीलाओं की याद में डूबी दहाउरी मुझे भी वात्सल्य रस में डुबो रही थी।
अंत में उसने कहा-“मैंने मन से बच्चे की सेवा की। इसीलिए भगवान ने मुझे भी नाती दिया है।”
मैं भी उस धाय का माय का रूप देख-सुनकर अभिभूत हो रही थी। हमारे समाज में धाय की परंपरा बहुत पुरानी है। राजा-महराजाओं के बच्चों के पालन-पोषण के लिए तो विशेष व्यवस्था होती थी। क्योंकि अकसर वे धाय बच्चों को दूध भी पिलाती थीं। मध्यमवर्गीय परिवारों में भी शिशु केवल अपनी मां का दूध नहीं पीता था। संयुक्त परिवार होता था, कई स्त्रियों के छोटे बच्चे होते थे। जिस प्रकार परिवार की कई व्यवस्थाएं संयुक्त होती थीं, बच्चे भी साझा ही होते थे। आज भी कई संयुक्त परिवारों में ऐसी ही सोच और व्यवहार देखने को मिलता है। शिशु भी साझा धन ही होता है, संयुक्त जिम्मेदारी।
हमारे इतिहास में पन्ना धाय का उत्कृष्ट उदाहरण और आदर्श है, राजा के बेटे की जगह अपने बेटे का बलिदान करवा देना। हम साधारण लोग ऐसा सोच भी नहीं सकते। पर इन धायों की भक्ति और वात्सल्य की कथाएं पढ़-सुनकर रोमांच अवश्य होता है। मेरे जन्म के बाद मेरी मां बीमार हो गई थी। कई वर्षों तक बीमार रही। मेरे बड़े होने पर कई महिलाएं मुझे कहती हुई आह्लादित होती दिखती थीं- “हम तुमको दूध पिलाए हैं।” “तूने बचपन में मेरा भी दूध पीया।” और वे अपना यह भी बड़प्पन जंताती थीं कि उन्होंने अपने बच्चे को रोते-बिलखते छोड़ कर मुझे अपना दूध पिलाया। एक ने कहा-“मेरा बेटा तुमसे छ: महीने बड़ा था। मुझे बहुत दूध होता था। तुम्हें तीन वर्षों तक दूध पिलाया। मेरे बेटे को तुम्हारी मां दूध भात या खिचड़ी खाने के लिए देती थी। तुम मेरा दूध पीती थीं।”
सुन-सुनकर उन महिलाओं के प्रति मेरे मन में उनके लिए मां जैसा ही भाव जगता था। उन्हें मेरे बचपन की सारी यादें जीवंत रहती थीं। मुझे भी अपना शैशवावस्था और बचपन सुन-सुनकर आनंद आता था।
आज बड़े-छोटे शहरों की आबादी बढ़ती जा रही है। गांव खाली हो रहे हैं। परिवार-समाज का रूप बहुत बदल गया, जीवन मूल्य भी। वे पारंपरिक रीति-रिवाज और रहन-सहन भी। ऊपर-ऊपर तो बदला-बदला ही दिखता है। पर अंदर-अंदर का नैसर्गिक भाव अब भी बचा हुआ है। शहरों में संयुक्त परिवार ना के बराबर हैं। कामकाजी माताएं हैं। इन्हें भी अपने बच्चे के लिए आया की जरूरत होती है। मिल जाती हैं। पर गांव-देहात से आई आयाओं में वात्सल्य भाव और ममत्व अधिक देखा जाता है। उसमें भी यदि उस गांव की आया हो जहां की वह मां है तो पूछिए मत। सोने में सुहागा। बच्चे के प्रति उसकी ममता अधिक गहराती है। इन आयाओं में यशोदा का भी रूप होता है। यशोदा तो कान्हा की “मइया” थी। कृष्ण, यशोदा के कोख जाय नहीं थे। यशोदा उनकी आया नहीं थी, मइया थी। पर यशोदा जैसी मां भी आदर्श है हमारे समाज में। न जाने कितने लोग कहते सुने जाते हैं-“मेरी मौसी, बुआ, या मामी ने मुझे पाला-पोसा।”
गांव में एक कहावत है- “मरे माय, जीए मौसी, आधी रात खिलावे चलौसी।”
मां तो मां होती है, पर मौसी से भी कम प्यार नहीं होता। मौसी तो आधी रात में उठकर बच्चे को खिलाती थी।
एक बच्चे के आदर्श वाले आज के समाज में बच्चों को अब बुआ, चाचा, मौसी नहीं मिल रही है। इसलिए जीवन के बड़े अनोखे भाव और व्यवहार से वे वंचित होते जा रहे हैं। मुझे इन बच्चों पर तरस आता है। कामकाजी महिलाएं पालनाघरों में अपने बच्चों को रख आती हैं। वहां बच्चों की संख्या अधिक होती है। एक-एक पर ध्यान देने के लिए आया नहीं होतीं। उन आयाओं के अंदर वह वात्सल्य भी नहीं प्रवाहित होता। औपचारिक संबंध होता है। पालनाघरों की आयाओं को कई बच्चों को देखना पड़ता है। एक के साथ संबंध विकसित नहीं होता। घर में बच्चों की देख-रेख करती आया मां स्वरूप ही हो जाती है। बच्चों को डांटती-फटकारती भी है। पर उनकी डांट-फटकार में भी वात्सल्य घुला होता है। बच्चों को कुछ सिखाने के लिए होती है डांट फटकार। इसलिए मांएं भी बुरा नहीं मानतीं।
बच्चों के माध्यम से मां और आया के बीच भी मधुर संबंध हो जाता है। दोनों का एक लक्ष्य हो जाता है, बच्चों का लालन-पालन। वैसी आयाओं के प्रसंग भी सुनने को मिलते हैं जो बच्चे पर पूरा ध्यान नहीं देतीं। बच्चे के हिस्से का दूध पी जाती हैं। उनका रिश्ता मात्र तनख्वाह से होता है। वे बच्चे की मां नहीं बन पातीं। इन दिनों में दहाउरी के वात्सल्य प्रेम में डूबी हूं। कैसी तेजस मय हो गई है दहाउरी। एक बात और। उसे चेतस की मां से थोड़ी बहुत शिकायत को भी वह अनदेखा कर रही है। कहती है- “दीदी से मुझे क्या लेना देना। तेजस चलने लगेगा, फिर मैं नौकरी छोड़ दूंगी।”” तब की तब देखी जाएगी। अभी तो दहाउरी तेजस से इतनी जुड़ी है कि उसके प्रेम की बातें ही करती है। अपने बच्चों को भी उसी की कहानियां सुनाती है। उसकी नन्हीं बेटी पूजा भी अपनी मां के मुख से तेजस के प्यार में डूबे रहने की कथा सुनकर प्रसन्न है- “माय! और क्या करता है तेजस? सुनाओ न।”
पूजा को उस बच्चे से कोई ईष्र्या नहीं, जिसे उसकी मां उससे अधिक प्यार करती है।
धन्य है समाज। कैस-कैसा रूप है मातृत्व भाव का! किन-किन रूपों और स्वरों में मिलते हैं ममता के चिन्ह और गान। माय हो या धाय, क्या फर्क पड़ता है शिशु को। उसे तो ममत्व भरा स्पर्श चाहिए, ममता के बोल। और ईश्वरीय भाव। सौभाग्यशाली है ऐसे बच्चे जिन्हें ऐसी आयाएं मिलती हैं। कैसा मनभावन रिश्ता है धाय और बच्चे का। एक-दूसरे का सरोकार। सुनने वाले भी आनंदित हो जाएं।
ममता की धार सूखी नहीं है। तभी तो जीवित है मानवता।द
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