भारत-बंगलादेश समझौता भारत अपनी 11 हजार एकड़ भूमि से हाथ धो बैठेगा
|
भारत–बंगलादेश समझौता
एकड़ भूमि से हाथ धो बैठेगा
डा.कृष्ण गोपाल
6 सितम्बर, 2011 को भारत के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह तथा बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने ढाका में एक समझौते पर हस्ताक्षर किये। अनेक विषयों में आपसी सहयोग के साथ-साथ विगत 64 वर्षों से चले आ रहे सीमा विवादों को समाप्त करने की दिशा में इसको एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। 'इंदिरा-मुजीब समझौता 1974'- जो आज तक न कभी भारतीय संसद में चर्चा के लिए ही आया और न ही पारित हुआ, उसकी अगली कड़ी के रूप में इस समझौते को देखा जा रहा है। 6 सितम्बर के समझौते के कुछ अन्य विषयों में-ढाका विश्वविद्यालय तथा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय का आपसी सहयोग, दोनों देशों का दूरदर्शन कार्यक्रमों में परस्पर सहयोग, मत्स्य शोध व विकास संबंधी विविध आयामों पर वार्ता, जैविक विविधता का संरक्षण, सुंदर वन में बंगाल टाइगर (बाघों) का संरक्षण, वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर शोध, सुंदर वन की जैविक विविधता संरक्षण तथा फैशन डिजाइन संस्थानों के आपसी परामर्श तथा सहयोग आदि विषयों पर दोनों देश मिलकर कार्य करेंगे। नेपाल से भारत होकर बंगलादेश के लिए जाने वाली बड़ी रेल लाइन के निर्माण के लिए भी भारत ने अपनी सहमति दी है। इस समझौते में आश्चर्यजनक और हैरान करने वाली बात यह थी कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत में अवैध रूप से घुस आये 3 करोड़ से अधिक बंगलादेशी मुसलमानों के संबंध में कोई भी चर्चा करना उचित नहीं समझा।
इस समझौते के द्वारा दोनों देशों को अपने सीमा विवादों का भी सार्थक समाधान ढूंढना था। भारत और बंगलादेश के मध्य 40,967 किमी. की थल सीमा है। यह सीमा भारत के पांच प्रांतों (पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा, मेघालय तथा मिजोरम) को स्पर्श करती है। सीमा के कुछ स्थानों पर अभी तक अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा पूरी तरह से निश्चित नहीं है तथा कुछ स्थानों पर विवाद भी बने हुए हैं। भारत-बंगलादेश सीमा पर तीन प्रकार के प्रमुख विवाद सामने हैं। 1- अनधिकृत कब्जा (एडवर्स पजैसन), 2- विदेशी अंत: क्षेत्र (एन्क्लेव्स) का निर्धारण, 3-अनिर्धारित सीमा रेखा।
अनधिकृत कब्जे वाले क्षेत्र–भारत–बंगलादेश (पूर्वी पाकिस्तान) के मध्य सीमा निर्धारण का कार्य रैडक्लिफ आयोग (1947) ने किया था। सीमा पर कुछ स्थान ऐसे हैं जहां इस रैडक्लिफ लाइन का उल्लंघन कर एक देश ने दूसरे देश की भूमि पर कब्जा किया हुआ है। इसी को 'एडवर्स पजैसन' (अनधिकृत कब्जा) कहा जाता है। भारत-बंगलादेश की सीमा पर अनाधिकार कब्जे के ऐसे लगभग 100 स्थान हैं। यद्यपि भारत सरकार ने अभी तक दोनों देशों के नियंत्रण में अनाधिकार कब्जे की कुल भूमि की घोषणा नहीं की है, फिर भी विविध संस्थाएं इस संबंध में अपनी जानकारी देती रहती हैं। एक आकलन के अनुसार बंगलादेश ने अनधिकृत रूप से भारत की 3017.16 एकड़ भूमि पर कब्जा कर रखा है और भारत के नियंत्रण में भी बंगलादेश की 2587.25 एकड़ भूमि है। नए समझौते के बाद भारत सरकार यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं कर रही है कि बंगलादेश भारत की कितनी भूमि अपने पास रख लेगा और कितनी जमीन छोड़ेगा, और इसी प्रकार भारत कितनी भूमि रखकर कितनी भूमि बंगलादेश को सौंप देगा। उदाहरण के लिए असम के बोराईबारी (जिला धुबड़ी) में पूर्वी पाकिस्तान ने भारत की 193.85 एकड़ भूमि पर अनाधिकार कब्जा कर रखा था। कहा जाता है कि 1965 के युद्ध के समय पाकिस्तान के लोगों ने रैडक्लिफ लाइन के इधर आकर भारत की भूमि पर कब्जा कर लिया। बोराईबारी में जमीन के भारतीय मालिक जमीन के मालिकाना अधिकार के कागज लिए आज भी घूम रहे हैं। यह वही क्षेत्र है जहां 18 अप्रैल, 2001 को सीमा सुरक्षा बल के 16 जवानों की बंगलादेश रायफल्स के लोगों ने निर्मम हत्या कर दी थी और शवों को विकृत कर भारत भेज दिया था। वैधानिक रूप से यह भूमि भारत की है और भारत इस भूमि को अपने मानचित्र में दर्शाता है। 6 सितम्बर, 2011 के ढाका समझौते के बाद बोराईबारी की 193.85 एकड़ जमीन पूरी तरह से बंगलादेश को चली जाएगी। असम में ही करीमगंज जिले के पल्लातल में 360 एकड़, लाठीटीला–डूमाबारी में 714 एकड़, नयगांव में 145 एकड़ भूमि पर बंगलादेश का अवैध कब्जा बना हुआ है। भारत सरकार ढाका समझौते के बाद असम प्रांत की बोराईबारी, तल्लातल, लाठीटीला, डूमाबारी क्षेत्रों की (193+74.5+90=357.5) एकड़ भूमि बंगलादेश को देने की योजना बना रही है।
असम सीमा पर भारत का बंगलादेश की भूमि पर अनाधिकार कब्जा कहीं नहीं है। 6 सितम्बर का ढाका समझौता भारतीय भूमि पर बंगलादेश के अवैध अधिकार को वैधानिक मान्यता प्रदान कर देगा। इस प्रकार पूरे क्षेत्र का हिसाब लगाने पर ध्यान में आता है कि भारत की भूमि का एक बड़ा भाग, लगभग एक हजार एकड़ बंगलादेश को अधिक चला जाएगा। ढाका समझौते के बाद 7 सितम्बर, 2011 को असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने कहा कि, 'बंगलादेश को दी जाने वाली इस भूमि पर पहले से ही बंगलादेश का नियंत्रण था तथा भारत की ओर से वहां जाकर बसने के लिए कोई तैयार भी नहीं था।' यह एक गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य है।
विदेशी अंत:क्षेत्र की समस्या–स्वतंत्रता के पूर्व बने रैडक्लिफ आयोग को केवल ब्रिटिश नियंत्रित प्रांतों (बंगाल तथा असम) के विभाजन का ही कार्य करना था। भारतीय राजाओं की रियासतें रैडक्लिफ के अधिकार सीमा के बाहर थीं। राजाओं के राज्यों का फैलाव बहुत ही अव्यवस्थित था। कूचबिहार के राजा ने अपनी रियासत का विलय भारत के भीतर 28 अगस्त, 1949 को कर दिया था, किंतु विलय के समय उनकी रियासत के सैकड़ों गांव पूर्वी पाकिस्तान की सीमा के अंतर्गत ही रह गये थे। इस प्रकार कूचबिहार रियासत के 111 भारतीय गांव आज भी बंगलादेश की सीमा के भीतर हैं, इनको 'इंडियन एन्क्लेव्स' कहा जाता है। ढाका समझौते के बाद बंगलादेश की सीमा के भीतर स्थित 111 'इंडियन एन्क्लेव्स' की समस्त भूमि को भारत सरकार बंगलादेश को सौंप देगी। इन एन्क्लेव्स का क्षेत्रफल 17,160 एकड़ है तथा इनके भीतर लगभग 1.86 लाख भारतीय नागरिक रह रहे हैं। इस भूमि का स्वामित्व अब बंगलादेश के हाथ में आ जाएगा। इसी प्रकार बंगलादेश के 51 एन्क्लेव्स अब भारतीय नियंत्रण में आ जाएंगे। दोनों देशों के एन्क्लेव्स की इस अदला-बदली में वहां की जनता को अपनी इच्छानुसार किसी भी देश में रहकर वहां की नागरिकता प्राप्त करने का अधिकार रहेगा। संभावना यही दिखती है कि बंगलादेश के भीतर भारतीय 'एन्क्लेव्स' में रह रहे भारतीय इस अवसर पर अपनी भारतीय नागरिकता को सुरक्षित रखकर भारत में ही आना चाहेंगे जबकि भारतीय सीमा के भीतर 'बंगलादेशी एन्क्लेव्स' में रह रहे बंगलादेशी नागरिकों को भी जब भारतीय नागरिकता प्राप्त करने का लाभ मिलेगा तो वे इस अवसर को क्यों छोड़ेंगे? कुल मिलाकर परिणाम यही निकलने की संभावना अधिक दिख रही है कि दोनों ही ओर के 'एन्क्लेव्स' के लोग भारतीय नागरिक बन जाएंगे। उल्लेखनीय है कि इन सभी एन्क्लेव्स में अधिकतर मुसलमान ही रहते है। जनसंख्या की यह अदला-बदली भारत के सीमावर्ती जिलों में जनसंख्या संतुलन को बिगाड़ देगी।
दूसरी ओर, इन 'एन्क्लेव्स' की अदला-बदली में भारत अपने देश की 10,050 एकड़ अधिक भूमि बंगलादेश को सौंप देगा। अनाधिकार कब्जे (एडवर्स पजैसन) वाले क्षेत्रों को व्यवस्थित करने में भी भारत की लगभग 1000 एकड़ से अधिक भूमि बंगलादेश को चली जाएगी। अत: ढाका समझौते के बाद भारत के कुल क्षेत्रफल में से लगभग 11 हजार एकड़ से अधिक भूमि कम होकर बंगलादेश को चली जाएगी। भारतवर्ष का कुल क्षेत्रफल अब 11 हजार एकड़ कम हो जाएगा। भारत के प्रधानमंत्री तथा केन्द्र सरकार के जिम्मेदार लोग इस तथ्य को भारत की जनता से क्यों छिपा रहे हैं? समझौते के सभी तथ्यों को पूरी तरह जनता के सामने क्यों नहीं रखा जा रहा है? इस समझौते के बाद, देश के सामने अब यह प्रश्न भी खड़ा हुआ है कि क्या अपने देश की इतनी बड़ी भूमि को इस सामान्य तरीके से किसी अन्य देश को दे देना संभव है? क्या यह समझौता भारतीय संविधान की सीमाओं के अंतर्गत हो रहा है? क्या भारत के प्रधानमंत्री और उनके कार्यालय के कुछ अधिकारियों को भारत की भूमि को किसी अन्य देश को देने का अधिकार है?
संविधान में संशोधन आवश्यक–भारत राष्ट्र की भूमि को किसी अन्य देश को देने के विषय पर यह जानना आवश्यक है कि सर्वोच्च न्यायालय के आठ विद्वान न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ (1960) का निर्देश क्या है? इस निर्देश के पीछे एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक घटनाक्रम जुड़ा हुआ है। वर्तमान प्रसंग में इसकी जानकारी देश को होना अति आवश्यक है। 10 सितम्बर, 1958 को एक समझौता भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री फिरोज खान नून के बीच हुआ, जिसको नेहरू-नून समझौता (1958) के नाम से भारत के राजनीतिक इतिहास में जाना जाता है। इस समझौते के अंतर्गत भारत ने अपने संवैधानिक क्षेत्र बेरूबाड़ी यूनियन-12 की आधी भूमि पाकिस्तान को देने का निर्णय किया था। भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष रहे तत्कालीन राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद ने इस समझौते के द्वारा भारत की भूमि को पाकिस्तान को दिये जाने के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निर्णय को असंवैधानिक माना। उन्होंने इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से भी मना कर दिया। सरकार की ऐसी हरकतों से उनको भविष्य में भी खतरा दिखने लगा। कोई भी प्रधानमंत्री इतनी सहजता से भारत संघ की भूमि को किसी दूसरे देश को दे, यह बात उन्हें किसी भी प्रकार से उचित नहीं लगी। अत: यह जानने के लिए कि इस विषय पर भारतीय संविधान का अभिमत क्या है, उन्होंने इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ को सौंप दिया। 14 मार्च, 1960 को सर्वोच्च न्यायालय (1960, 845) ने अपने सर्व सम्मत निर्णय में निर्देश दे दिया कि, 'यह (नेहरू-नून समझौता-1958 के अन्तर्गत हुआ परिवर्तन) भारतीय राज्यों के मध्य सीमाओं का परिवर्तन जैसा सरल विषय नहीं है। भारत की केन्द्र सरकार इस प्रकार समझौता करके भारत की भूमि को किसी अन्य देश को नहीं दे सकती। इसके लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के नियमानुसार संशोधन करना आवश्यक है, इसके उपरांत ही भारतीय भूमि किसी अन्य देश को दी जा सकती है, इसके पूर्व नहीं। आज पुन: आवश्यकता है कि बेरूबाड़ी यूनियन-12 के विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के 1960 के उन निर्देशों का पालन किया जाए।
बेरूबाड़ी यूनियन-12 का विवाद–भारत की स्वाधीनता की प्रक्रिया के समय 3 जून, 1947 को ब्रिटिश सरकार ने घोषणा कर दी थी कि भारत को विभाजित कर 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र कर दिया जाएगा। भारत-पाकिस्तान के मध्य (पूर्व में पंजाब और पश्चिम में बंगाल की) सीमाओं का निर्धारण करने के लिए सर सायरिल रैडक्लिफ की अध्यक्षता में उच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों का एक सीमा आयोग बनाया गया। इसी आयोग को रैडक्लिफ आयोग या सीमा आयोग कहा जाता है। रैडक्लिफ ने स्वतंत्रता के तीन दिन पूर्व 12 अगस्त, 1947 को दोनों देशों के मध्य सीमाओं की घोषणा कर दी। रैडक्लिफ आयोग की इस घोषणा के कारण जलपाईगुड़ी जिले का बेरूबाड़ी यूनियन 12- नामक क्षेत्र भारत के पश्चिम बंगाल में सम्मिलित कर दिया गया।
26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान ने बेरूबाड़ी को पूर्णतया भारत का अंग स्वीकार किया तथा बेरूबाड़ी का प्रशासन पश्चिम बंगाल की सरकार द्वारा संचालित होने लगा। किंतु भारत- पाकिस्तान सीमा पर अभी भी सैकड़ों स्थान ऐसे थे जहां पर कुछ न कुछ विवाद बना हुआ था और जिनका निर्णय होना शेष था। भारत-पाकिस्तान के मध्य सीमा संबंधी इन विवादों के समाधान के लिए 14 दिसम्बर, 1948 को दिल्ली में एक महत्वपूर्ण बैठक हुई और न्यायमूर्ति अलगोट बग्गे की अध्यक्षता में एक पंचाट (ट्रिब्यूनल) की स्थापना हुई। इस ट्रिब्यूनल ने पूर्व और पश्चिम बंगाल की सीमा के विवादों तथा पाकिस्तान की सभी आपत्तियों को बहुत ध्यानपूर्वक सुना। इस ट्रिब्यूनल के सामने जिला जलपाईगुड़ी तथा बेरूबाड़ी यूनियन-12 से संबंधित किसी विवाद का उल्लेख कहीं भी सामने नहीं आया। इस ट्रिब्यूनल ने 12 जनवरी, 1950 को अपनी रपट सौंप दी।' (सर्वोच्च न्यायालय, एआईआर-1960, 845, पैरा 8)
इसके दो वर्ष बाद 1952 में पहली बार पाकिस्तान की सरकार ने बेरूबाड़ी का प्रश्न उठाया। इस पूरे समय (1947 से 1952) तक बेरूबाड़ी भारत का अंग बना रहा था और पश्चिम बंगाल की सरकार द्वारा प्रशासित था। पाकिस्तान ने एक कूटनीतिक चाल चली और नेहरू जी की मानसिक दुर्बलता का लाभ उठाकर वह अब बेरूबाड़ी पर अपना अधिकार जताकर उसको पाकिस्तान का भाग बनाना चाहता था। 10 सितम्बर, 1958 को जवाहरलाल नेहरू तथा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री फिरोज खान नून के मध्य एक समझौता हुआ। भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने यह विचार किया कि, 'बेरूबाड़ी- यूनियन-12 का आधा भाग पाकिस्तान को दे देने से भारत-पाकिस्तान के मध्य संबंध मित्रवत् और मधुर हो जाएंगे। राष्ट्रीय हितों के सर्वथा विपरीत निर्णय करते हुए भारत सरकार ने नेहरू-नून समझौते (1958) के अनुसार बेरूबाड़ी का बंटवारा कर आधा बेरूबाड़ी पाकिस्तान को देने का निर्णय ले लिया। इस निर्णय की सर्वत्र व्यापक आलोचना हुई। भारत के राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद को इस समझौते पर हस्ताक्षर करने थे। वे स्वयं भी नेहरू सरकार के इस निर्णय से नाराज थे। भारत के राष्ट्रपति महोदय ने इस समझौते पर अपनी सहमति देने से मना कर दिया।
(शेष अगले अंक में)
टिप्पणियाँ