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हमें भारतीय मीडिया चाहिए

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Nov 12, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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चर्चा सत्र

दिंनाक: 12 Nov 2011 15:03:17

चर्चा सत्र

 

प्रो. बी.के. कुठियाला

कुलपति, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल

भारतीय प्रेस परिषद के नवनियुक्त अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू ने आते ही एक व्याख्यान में भारतीय मीडिया की वर्तमान स्थितियों पर तीखी टिप्पणी कर दी है। उन्होंने मीडिया को लगाम लगाने की बात की और उसकी अपेक्षित प्रतिक्रिया भी हुई। लगता है मीडिया व न्यायमूर्ति काटजू में शब्दों का युद्ध छिड़ गया है। न्यायमूर्ति चाहते हैं कि मीडिया में आई विकृतियों को आपसी संवाद और सलाह मशविरे से सुलझाया जाए और इसके लिए उन्होंने मीडिया से सहयोग की अपील भी की है।

स्वच्छंदता पर रोक लगे

कोई भी सुझाव, जिसमें मीडिया पर नकेल कसने की बात हो, कभी भी स्वागत योग्य नहीं हो सकती। एक तो यह संविधान की धारा 19(1)(ए) के विपरीत है, जिसके अंतर्गत हर भारतीय को स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार दिया गया है। दूसरे, मानवीय संवाद की किसी भी प्रक्रिया को बाधित करना प्रकृति के नैसर्गिक मूल्यों का क्षरण है। परंतु यह भी सत्य है कि सार्वजनिक संवाद में स्वछंदता नहीं हो सकती। सामाजिक मान्यताओं व संवेदनाओं की अवहेलना करके असत्य, अधूरे सत्य व तत्वों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना तो निंदनीय होना ही चाहिए। मीडिया का समाज पर जितना प्रभाव बढ़ता जा रहा है उससे यह बात अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है कि मीडिया की विषयवस्तु पर निरंतर सूक्ष्मदृष्टि रखी जाए। इस कार्य को मीडिया तो स्वयं करे ही और आपसी वार्ता द्वारा अवांछनीय या असामाजिक विषयों की पुनरावृत्ति को रोके, परंतु विभिन्न सामाजिक संस्थाओं का भी कर्तव्य है कि निगरानी का कार्य करें और अपने विचारों के बारे में मीडिया से लगातार संवाद बनाए रहें।

न्यायमूर्ति काटजू ने वर्तमान भारतीय मीडिया में चार दोषों की ओर ध्यान आकृष्ट करवाया है। उनके अनुसार मीडिया तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करता है। दूसरे, वह मुद्रण के स्थान और प्रसारण को विज्ञापनों के अतिरिक्त सामग्री के लिए भी बेचता है जिससे पाठकों व दर्शकों को धोखे की स्थिति बनती है। तीसरा यह कि मीडिया भारतीय समाज के वास्तविक मुद्दों को न उठाकर आर्थिक और वैचारिक प्रतिबद्धताओं के कारण अनावश्यक विषयों को महत्व देकर प्रस्तुत करता है। न्यायमूर्ति का चौथा आरोप यह है कि मीडिया कुछ लोगों के व्यवहार को इस तरह प्रस्तुत करता है कि मानो उस समुदाय के सभी लोग दोषी हों। इसे वे “ब्रांडिंग” की संज्ञा देते हैं।

बीमारी के लक्षण

गंभीरता व निष्पक्षता से देखा जाए तो ये सभी दोष आज भारत के मुख्यधारा के मीडिया में व्यापक रूप से मौजूद हैं। परंतु इनको ही बीमारी मान लेना अनुचित है। वास्तव में ये तो अतिगंभीर बीमारी के लक्षण मात्र हैं। वास्तविक समस्या तो मीडिया की रचना व उसके घोषित छद्म उद्देश्यों में है। आज का भारतीय मीडिया मुख्य रूप से उद्योग व व्यापार बनकर उभर आया है। पूरे सार्वजनिक जन संवाद को उसने अधिकाधिक धन कमाने का साधन बना लिया है। अश्लील व असामाजिक सामग्री को प्रस्तुत करने का कारण टीआरपी व प्रसार संख्या बढ़ाने की मजबूरी बताया जाता है। इससे भी अधिक आपत्तिजनक तथ्य यह है कि मीडिया में जो लगभग 5 लाख करोड़ रु. का व्यापार हो रहा है, उसमें लगभग आधा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विदेशी निवेश है। ऐसी विदेशी संस्थाएं जो भारतीय संस्कृति व मूल्यों का ह्रास चाहती हैं, अपने सम्प्रदाय या राजनीतिक विचार को प्रतिपादित करने के लिए उनके पास भारतीय मीडिया एक सुलभ साधन के रूप में उपलब्ध हो जाता है। परिणामत: न केवल विज्ञापनों के माध्यम से परंतु मनोरंजन के कार्यक्रमों के द्वारा भी उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। पारिवारिक संबंधों को पश्चिम की प्रथाओं पर ढालने का प्रयास हो रहा है और देश व समाज के प्रति प्रेम व प्रतिबद्धता को क्षीण किया जा रहा है।

गंभीर विश्लेषण आवश्यक

भारतीय प्रेस परिषद् को प्रेस की रचना की तरफ गंभीरता से विश्लेषण करने की आवश्यकता है। पूर्व में परिषद् ने समय-समय पर मीडिया पर उद्योग के प्रभाव पर चिंता व्यक्त की है। दूसरे प्रेस आयोग ने भी इस समस्या को उजागर किया था। अस्सी के दशक तक तो सरकारें भी प्रयासरत रही थीं कि मीडिया में पूंजी का प्रभाव कम से कम हो।

वास्तव में यह बीमारी इस कारण से है कि हमने अपने मीडिया की रचना के लिए पश्चिमी, विशेषकर अमरीका के मॉडल का अनुकरण किया। अमरीका तो स्वयं ही मानता है कि पूरा का पूरा प्रशासन एक व्यापार का रूप है, मानवीय संबंध भी सौदों पर आधारित हैं और परिवार का आधार भी एक “कांट्रेक्ट” है। जब हमने अपने मीडिया को भी पूंजी आधारित व पूंजी प्रभावित बना लिया तो पश्चिमी समाज के जीवन मूल्यों को भी अपना लिया। आज जब इसके परिणाम हमारे सामने आए हैं तो न्यायमूर्ति काटजू के साथ-साथ हर भारतीय ठगा सा महसूस कर रहा है और मानता है कि ऐसा तो मीडिया हमने नहीं मांगा था।

सबसे पहले तो हमें यह मानना पड़ेगा कि सार्वजनिक- सामाजिक संवाद व्यापार आधारित नहीं होना चाहिए। भारतीय विचार में व्यापार को अनिवार्य मानते हुए भी उसे समाज का आधार नहीं माना गया है। भारतीय चिति तो पुरुषार्थ की है। समाज में संवाद की स्थितियां व्यापक हों यह तो अनिवार्य है और स्वागतयोग्य भी, परंतु इस संवाद को बनाने की रचनाएं पुरुषार्थ और सेवा के मौलिक चिंतन पर आधारित हों तो संवाद समाज के सांस्कृतिक, आर्थिक व आध्यात्मिक विकास का साधन बनेगा। समाचार एक “प्रोडक्ट” नहीं हो सकता, वह तो समाज के एक घटक की दूसरे घटक से वार्ता है। आपसी वार्ता को खरीदा और बेचा नहीं जा सकता। इसी तरह से यदि मीडिया व्यापार रहेगा तो उसका आधार सत्य नहीं हो सकता। परंतु यदि मीडिया सेवा कार्य है तो उसमें पूर्ण सत्य ही स्थान पाएगा। प्रेस परिषद के नए अध्यक्ष के पास इस समय अवसर है कि वे वास्तविक व्याधि को समाज के सम्मुख लाएं और वैकल्पिक रचनाओं की प्रस्तुति करें व करवाएं।

न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू से सविनय अनुरोध है कि भारतीय प्रेस परिषद के माध्यम से भारत को भारतीय मीडिया देने के शुभकार्य का नेतृत्व संभालें। मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा ही नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज भी उनके साथ इस कार्य में सहयोग करेगा। पी.सी. जोशी समिति ने वर्षों पूर्व भारतीय टेलीविजन प्रसारण को भारतीय चेहरा देने की अनुशंसा की थी, उसको भी ध्यान में रखते हुए वे हमें पराया नहीं हमारा मीडिया देंगे तो यह भारतीय समाज को उनका अविस्मरणीय योगदान होगा। द

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