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हुड्डा सरकार के कमजोर प्रशासन व

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Nov 5, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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राज्य/हरियाणा

दिंनाक: 05 Nov 2011 15:16:42

मिर्चपुर कांड पर अदालती फैसला

भेदभावपूर्ण  राजनीति का चेहरा बेनकाब

 गणेश दत्त वत्स

मिर्चपुर कांड कांग्रेस के गले की फांस बन गया है, जिसने हरियाणा की हुड्डा सरकार की ही नहीं बल्कि कांग्रेस आलाकमान की भी नींद उड़ाकर रख दी है। सवर्ण एवं वंचित वर्ग के बीच हुई इस घटना को नियंत्रित करने में जहां मुख्यमन्त्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की कमजोर प्रशासनिक क्षमता उजागर हुई, वहीं उनकी भेदभावपूर्ण नीति भी बेनकाब हुई। यही नहीं, हुड्डा सरकार की कार्यप्रणाली से नाखुश न्यायालय ने भी इस घटना बारे में कई बार सरकार को फटकार लगाई और स्पष्टीकरण मांगा। इतना ही नहीं तो पीड़ित लोगों की गुहार पर मामले को दिल्ली के रोहिणी स्थित विशेष न्यायालय में स्थानान्तरित किया गया। रोहिणी के विशेष न्यायालय ने गत 24 सितम्बर को इस मामले में 15 लोगों को दोषी ठहराया और 31 अक्तूबर को दोषियों को उनके अपराध के अनुरूप सजा सुना दी है। लेकिन जिस प्रकार न्यायालय ने हरियाणा की पुलिस पर ईमानदारी से कर्तव्य पालन न करने का संदेह जताया है उससे मुख्यमन्त्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की प्रशासन पर कमजोर पकड़ भी साफ नजर आती है।

ऐसे में कांग्रेस, जो गरीबों एवं पिछड़ों-वंचितों का हिमायती होने का दावा करती है, उसका असली चेहरा सामने आया है। क्योकि मुख्यमन्त्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने मिर्चपुर की घटना को दबाने का प्रयास किया, जिससे विद्वेष की भावना बढ़ती गई, पीड़ित लोगों में भय एवं आतंक का माहौल बना रहा। बेशक मिर्चपुर कांड के विरोध में आंदोलन को रुकता न देख कांग्रेस के 'युवराज' राहुल गांधी ने घटनास्थल पर जाकर पीड़ितों के जख्म पर मरहम लगाने की नाकाम कोशिश की, लेकिन उन्होंने भी प्रदेश सरकार को ऐसा निर्देश नहीं दिया जिससे वंचित समुदाय में कोई आशा की किरण पैदा होती और उनमें कांग्रेस व उसकी राज्य सरकार के प्रति विश्वास बना रहता। राहुल गांधी के दौरे के बाद भी राज्य सरकार गलत तरीके से मामले में नियंत्रित करने की कोशिश करती रही।

उल्लेखनीय है कि हिसार के मिर्चपुर गांव में 19 अप्रैल, 2010 को दो वर्गों के बीच छोटी-सी कहा-सुनी ने विवाद का रूप धारण कर लिया। जिसके चलते 21 अप्रैल को वंचित वर्ग के कई घरों में आग लगा दी गई, जिसमें ताराचंद वाल्मीकि व उसकी अपाहिज बेटी सुमन की मौत हो गई। इस कांड के बाद असुरक्षित वंचित वर्ग के कई दूसरे परिवारों में भी भय का माहौल बन गया। उन्होंने प्रदेश सरकार पर पूरी तरह सुरक्षा न देने का आरोप लगाया और डर के मारे वे गांव से पलायन कर गए। यही नहीं, इस हत्याकांड में पीड़ित परिवारों ने प्रदेश में न्याय न मिलने का संदेह जताया तो सर्वोच्च न्यायालय को भी मामला स्थानांतरित करना पड़ा।

रोहिणी (दिल्ली) विशेष न्यायालय की अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कामिनी लाऊ ने एक हजार पृष्ठ में सुनवाई पूरी करते हुए अपने निर्णय में कहा कि हरियाणा पुलिस ने जिस तरह से इस मामले को नियंत्रित किया वह अनुचित है। निर्णय का सारांश सुनाते हुए माननीय न्यायाधीश ने आरोपित 97 में से 15 को दोषी करार दिया। जो 82 बरी हुए हैं उनमें नारनौंद के थाना प्रभारी विनोद काजल भी हैं। न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि थाना प्रभारी को यदि बरी नहीं किया जाता तो इसकी आंच पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों तक भी पहुंचेगी। उन्होंने कहा कि पुलिस अधिकारियों को कर्तव्य के निर्वहन में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए। स्मरण रहे कि इस मामले में 2 जुलाई, 2010 को 13 सांसदों के संसदीय दल ने घटनास्थल का दौरा किया था और 15 दिसम्बर, 2010 को अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग के दल ने भी मिर्चपुर जाकर घटना की पूरी जानकारी ली। 14 जनवरी, 2011 को रोहिणी (दिल्ली) की विशेष अदालत में विशेष सत्र न्यायाधीश कामिनी लाऊ ने सुनवाई शुुरू की और 31 अक्तूबर को फैसला सुनाया।

हालांकि हरियाणा सामाजिक भाईचारे की पहचान रहा है। फिर भी, आपसी मनमुटाव जीवन का एक हिस्सा है। लेकिन जब कोई बड़ी घटना घट जाए तो उसको सही प्रकार से संभालने की जिम्मेदारी सरकार व प्रशासन की होती है। मिर्चपुर में हुई घटना के कुछ दिनों के बाद आसपास के गांवों के लोगों ने सवर्ण एवं वंचित वर्ग के लोगों में कटुता कम करने का प्रयास किया, जिससे यह घटना और ज्यादा उग्र रूप धारण नहीं कर सकी। लेकिन हुड्डा सरकार की नाकामी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अब भी यदि सरकार जाग जाए और पलायन कर गए पीड़ित लोगों की पुन: गांव में वापसी करने के साथ-साथ उनमें विश्वास पैदा करे और दोनों समुदायों के बीच भाईचारा कायम कराने की पहल करे, तो यह जनहित में एक सकारात्मक कदम होगा।  n

स्विस बैंक से राजीव गांधी का पैसा

वापस मंगवाने के लिए याचिका

सर्वोच्च न्यायालय में गत 31 अक्तूबर को एक याचिका दायर कर केंद्र सरकार को यह निर्देश देने की मांग की गई है कि स्विस बैंक के खाते में कथित तौर पर जमा राजीव गांधी के 25 लाख फ्रैंक (करीब 13.81 करोड रुपये) वापस मंगाए जाएं। याचिका में एक पत्रिका में छपी 20 साल पुरानी रपट के हवाले से कहा गया है कि स्विस बैंक में राजीव गांधी के 25 लाख फ्रैंक जमा हैं।

अधिवक्ता एम.एल. शर्मा ने अपनी याचिका के साथ एक स्विस पत्रिका में 1991 में छपी रपट की प्रतिलिपि लगाई है। इस रपट में दुनिया भर के विभिन्न नेताओं के नाम से कथित तौर पर जमा राशियों का विवरण है। इसमें राजीव गांधी का भी नाम है। याचिका में अधिवक्ता शर्मा ने कहा है कि उन्हें 1991 में छपी इस रपट की प्रतिलिपि मिली है और इतनी लंबी अवधि बताती है कि इस बीच सरकार ने वह पैसा वापस लाने के लिए कुछ नहीं किया।

 

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