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हिमाचल प्रदेश के रेणुका मेला की रोचक कथा

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Sep 27, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 27 Sep 2011 14:33:05

हिमाचल प्रदेश अपने पुरातन समय से ही मेलों के लिए विख्यात रहा है। यहां के हर क्षेत्र में कोई न कोई मेला अवश्य लगता है। एक प्रकार से देखा जाए तो विभिन्न पर्वों के अवसर पर यहां लगने वाले मेले स्थानीय लोगों की सामाजिक व आर्थिक दशा को प्रभावित करते हैं। इसका सबसे प्रमुख कारण यहां की भौगोलिक परिस्थिति है। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण यहां पर यातायात अधिक सुगम नहीं है। छोटे-छोटे नगर व कस्बे, मैदानी शहरों से अपेक्षाकृत कम विकसित हैं। कुछ स्थान तो शीत ऋतु के दौरान शेष राज्य से कटे से रहते हैं। यही कारण है कि दूर-दराज के गांवों व छोटे कस्बों में रहने वाले लोग मेलों के माध्यम से एकत्रित होते हैं। मेलों के दौरान विभिन्न जीवन-यापन की वस्तुओं का व्यापार चरम पर होता है। इन मेलों के दौरान हिमाचल की लोक-संस्कृति के निकट से दर्शन होते हैं। यहां के कई मेलों को इसी कारण वैश्विक पटल पर अच्छी पहचान मिली है। यहां के प्रसिद्ध मेले हैं- मंडी का शिवरात्रि मेला, कुल्लू का दशहरा, रामपुर बुशहर का लवी मेला, कमखनाग मेला, चंबा का मिंजन मेला, विभिन्न शक्तिपीठों पर लगने वाले नवरात्र मेले।

 

इन सभी मेलों के अतिरिक्त हिमाचल के पूर्वी छोर पर स्थित जिला सिरमौर में प्रसिद्ध व्रेणुका मेलाव् लगता है। व्रेणुका जीव् भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम जी की माता हैं। वे सिरमौर जिले के ददाहूं कस्बे के पास एक सुंदर झील के रूप में विद्यमान हैं। जिला मुख्यालय लाहन से यह सुरम्य स्थल लगभग 37 कि.मी. की दूरी पर है। इस जगह पर सड़क मार्ग द्वारा सुगमतापूर्वक पहुंचा जा सकता है। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से घिरा यह एक मनमोहक स्थल है। पर्वतों के बीचों बीच तीन कि.मी. के घेरे में फैली यह झील मानवाकार स्थिति में है। कहा जाता है कि माता रेणुका यहां विश्राम कर रही हैं।

 

इस तीर्थ का अधिग्रहण वर्ष 1984 में गठित रेणुकाजी विकास बोर्ड द्वारा किया गया है। सरकार द्वारा संचालित बोर्ड ही यहां के सारे प्रबंध देखता है। तीर्थ के साथ-साथ इस जगह को सुंदर पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया गया है। झील के चारों तरफ पक्का परिक्रमा मार्ग बनाया गया है। झील के आधे भाग में प्राणी विहार विकसित किया गया है। यहां पर मुख्यत: भगवान परशुराम व माता रेणुका के मंदिर हैं। इसके अतिरिक्त नवनिर्मित दशावतार मंदिर व शिवालय भी दर्शनीय है। झील के साथ-साथ परशुराम ताल व बावड़ी भी भक्तों की श्रद्धा का केन्द्र है। वर्ष में एक बार यहां राज्य स्तरीय मेले का भव्य आयोजन किया जाता है। इस मेले के संबंध में मान्यता है कि दीपावली के पश्चात दशमी के दिन भगवान परशुराम डेढ़ दिन के लिए अपनी माता से मिलने रेणुका तीर्थ में आते हैं। अत: उनके स्वागत व माता-पुत्र के मिलन के उपलक्ष्य में यह उत्सव मनाया जाता है। इस संदर्भ में एक प्राचीन कथा का उल्लेख इस प्रकार है-

 

सतयुग में इस स्थान पर परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि का आश्रम स्थित था। वे अपनी पत्नी देवी रेणुका व पुत्रों सहित शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक दिन राजा सहरुाबाहु, जो एक अत्याचारी शासक था, इस जगह आ पहुंचा। उसके साथ उसकी विशाल सेना भी थी। सहरुाबाहु ने महर्षि जमदग्नि से अपनी सेना के लिए भोजन का प्रबंध करने को कहा। महर्षि जमदग्नि व माता रेणुका ने शीघ्र ही सारे भोजन की व्यवस्था कर ली। यह देखकर राजा सहरुाबाहु बहुत हैरान हुआ। उसने जिज्ञासा पूर्वक महर्षि से पूछा कि उन्होंने इतनी बड़ी सेना के लिए इतनी जल्दी कैसे भोजन की व्यवस्था कर ली? इस पर महर्षि ने उसे बताया कि मेरे पास राजा इंद्र की दी हुई कामधेनु गाय है, जो मांगने पर मनचाही वस्तु प्रदान करती है। यह जानकर सहरुाबाहु के मन में लालच जाग उठा। उसने महर्षि से वह गाय प्रदान करने को कहा, परन्तु महर्षि ने साफ मना कर दिया। इस पर राजा क्रोधित हो उठा। उसने बलपूर्वक गाय को हथियाने का प्रयास किया। इसका महर्षि जमदग्नि व उनके पुत्रों ने विरोध किया। फलस्वरूप उसने महर्षि व उनके चार पुत्रों की हत्या कर दी। अपने पति व पुत्रों की नृशंस हत्या देखकर माता रेणुका चीत्कार कर उठीं। उन्होंने करुण ह्मदय से अपने बड़े पुत्र परशुराम को पुकारा। परशुराम उस समय महेन्द्र पर्वत (अरुणाचल प्रदेश) पर तप कर रहे थे। माता की करुण पुकार सुनकर उन्होंने दिव्य दृष्टि से सारी घटना को जान लिया। क्रोध से भरकर उन्होंने तुरंत सहरुाबाहु पर आक्रमण कर दिया। शीघ्र ही परशुराम ने अकेले ही सहरुाबाहु व उसकी सेना को मार गिराया। इसके पश्चात् वे अपनी माता के पास आए। अपने तपोबल के प्रभाव से उन्होंने पिता व भाइयों को जीवित कर दिया। जब परशुराम जी अपनी माता का आशीर्वाद लेकर वापस जाने लगे तो माता रेणुका ने उन्हें अपने पास रुकने को कहा। परंतु परशुराम ने इसमें असमर्थता व्यक्त की। इसके साथ ही उन्होंने अपनी माता को वचन दिया कि वे हर वर्ष दीपावली के पश्चात् दशमी व एकादशी के दिन डेढ़ दिन के लिए यहां अवश्य आएंगे। तभी से परशुराम जी के आगमन के उपलक्ष्य में यहां यह उत्सव मनाया जाता है। इस मेले का आयोजन तीन दिन के लिए होता है। मेले के दौरान आसपास के गांवों से विभिन्न देवता सज-धज कर पालकियों में ददाहूं नगर पहुंचते हैं। यहां प्रदेश के मुख्यमंत्री उनका स्वागत करते हैं। तब इन्हें शोभायात्रा के रूप में रेणुका जी तक लाया जाता है। इस दौरान भक्तों की भारी भीड़ इनके दर्शनों को उमड़ती है। लोग पवित्र झील में स्नान करते हैं तथा मंदिरों में दर्शन करते हैं। मेले में लोग रोजमरर्#ा की विभिन्न वस्तुओं की खरीदारी करते हैं। मेले में विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। इस मेले की छटा उन दिनों देखते ही बनती है। हिमाचल प्रदेश के विभिन्न इलाकों से विभिन्न जनजातियों के लोग मेले में शिरकत के लिए आते हैं।

 

हरियाणा व पंजाब से भी लोग खास तौर पर इस मेले में भाग लेते हैं। लोग भगवान परशुराम व माता रेणुका जी से सुखी जीवन की मनौतियां मांगते हैं। दशमी से पूर्णिमा तक चलने वाले मेले के अंतिम दिन प्रदेश के राज्यपाल देवताओं की पालकियों को सम्मानपूर्वक विदा करते हैं। एक बार फिर माता रेणुका अकेली रह जाती हैं और फिर से अगले वर्ष अपने पुत्र के आगमन की प्रतीक्षा करने लगती हैं।

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