सरोकार
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मृदुला सिन्हा
मायके से दूर ससुराल की घर-गृहस्थी में उलझी महिलाओं को घर की मुंडेर पर बैठे कौए की कांव-कांव में अपने भाई-भतीजे के आगमन का संदेश मिल जाता था। वे विहंस उठती थीं- व्भैया आने वाले हैं।व् बचपन में साथ रहे। जवानी में बिछुड़ गए। वर्षों से दूर-दूर रहे भाई-बहन मिलेंगे। दिल की बातें होंगी। यदि कौआ का संदेश सही हो गया, भाई आ गए, फिर तो पूछिए मत। बहन के पांवों की जकड़न खुल गई। मशीन सी गति आ गई। कैसे, कहां बिठाएं, क्या-क्या खिलाएं, कैसे बतिआएं। अम्मा, बाबूजी, भाभियां, बच्चे यहां तक कि माल-जाल, बाग-बगीचे, अड़ोसी-पड़ोसी, खेत-खलिहान का हालचाल बताने वाले हैं भैया। जिस आंगन, खेत-खलिहान और गोद-कंधों पर बैठकर उस महिला का बचपन और किशोरावस्था बीतती है, उसे वह कभी नहीं भुला पाती। ससुराल परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने में कष्ट और अहर्निश मेहनत करनी पड़ती थी। मायके से भाई या अन्य व्यक्ति के आने पर जीवन में सरसता आ जाती थी। तब तो न मोबाइल फोन था, न व्यक्ति इतना चलायमान था। बिहार में भाई-बहन के संबंधों को दर्शाता एक खेल व्शामा चकवाव् कार्तिक महीने में खेला जाता है। उस खेल के गीतों में भाई-बहन के संबंध को व्याख्यायित किया गया है। एक गीत भैया के मेहमान बनकर बहन के ससुराल आने से संबंधित है। बहन कहती है-व्ना घर चाउर (चावल) न पनवसना में पान, कौन विधि राखव माई हे, अपन भैया के मान।व्
भाई मेहमान बनकर आ गए। घर में न चावल है न पान। बहन को भाई का मान रखने की चिंता सताने लगी। पर बहन हारती नहीं। भाई जो आए हैं-
व्हाट बजार से चौरवा (चावल) मंगायब,
तमोली घर बीड़ा पान
भले विधि राखब माई हे, अपन भैया के मान।व्
हाट-बाजार से चावल मंगा लेगी, पनहेरी के घर से पान का बीड़ा। फिर क्या है, भाई (मेहमान) का सम्मान हो गया।
ऐसा स्वागत मात्र भाई का ही नहीं होता था। घर आए मेहमान के स्वागत में लोग अपनी आर्थिक स्थिति का भी ध्यान नहीं रखते थे। रोटी पर नमक-मिर्च रखकर खाने वाला परिवार भी घर आए मेहमान के लिए चावल-दाल और एक सब्जी अवश्य बना लेता था। कभी-कभी कर्जा लेकर भी। इस प्रकार शास्त्रों में वर्णित- व्अतिथि देवो भवव् का भाव समाज के नस-नस में प्रवाहित रहता था। समाज ने उन आदर्शों को अपना स्वभाव बना लिया था। मानो अतिथि सत्कार भी सांस लेने की तरह हो।
व्यक्ति और परिवार जीवन पर समाज का दबाव रहता था। यदि किसी परिवार ने अपने अतिथि की अवहेलना की तो पड़ोस का परिवार उसके सम्मान में जुट जाता था। वैसे भी गांव में आया अतिथि किसी एक परिवार का नहीं, पूरे गांव का होता था। किसी घर में मेहमान आने की सूचना पाकर पड़ोसी भी अपने घर से सब्जी, फल, दूध-दही उस घर में भेज देते थे।
मेहमान भी समय निकाल कर आते थे। अर्थात उन दिनों समय की कमी नहीं होती थी। खेती-बाड़ी का काम संपन्न कर ही रिश्तेदारों से मिलने निकलते थे। जमकर भोजन करते थे। पर अधिक दिन टिकने वाले मेहमान तब भी बोझ हो जाते थे। मेजवान के घर का बजट चरमरा जाता था।
दरअसल समझदार अतिथि कभी किसी के यहां बोझ नहीं बनता। अतिथि और मेजवान के बीच सामंजस्य होना ही चाहिए। वह देवता तभी तक होगा जब तक मेजवान के साथ उसका देवतुल्य व्यवहार हो। यानी मेजवान की आर्थिक स्थिति को समझना और उसकी अन्य कठिनाइयों का ध्यान रखना अतिथि का भी काम होता है। गांव देहात में ऐसे भी अतिथि भ्रमण करते रहते थे जिनकी अपनी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होती थी। वे अपने रिश्तेदारों के यहां घूमते रहते।
अतिथि वह जो आए, घर में आनंद लाए और शीघ्र चला जाए। जो मेजवान अतिथि के जाने पर मन ही मन प्रसन्न होते हैं वे भी कहते सुने जाते हैं- व्अभी क्या जल्दी थी, एक दो दिन रुक जाते।व् मेहमान सब समझता है। क्योंकि वह भी तो मेजवान की भूमिका में रहा होता है।
मेजवान और मेहमान के बीच आत्मीयता का संबंध ही होना चाहिए। मेहमानों के भी कई प्रकार होते हैं। कुछ मेहमान, मेजवानों की कठिनाइयों की समझ रखते हैं, कुछ नहीं।
एक मेहमान मेरे घर रात्रि को आए। हम लोग खाना खाकर सोने जा रहे थे। उन्हें खाना बना कर (लकड़ी के चूल्हे पर) खिलाया। सर्दी की रात थी। मेरे घर में दो ही रजाइयां थीं। एक पतला कंबल था। हमने कंबल मेहमान को दिया। मेहमान बोले-व्फिर मैं जाता हूं। किसी और के घर रुक जाऊंगा।व् मेरे पति ने अपनी रजाई दे दी। मेहमान को ठंड की रात में कैसे जाने देते।
हमारे समाज का रहन-सहन बदल गया। शहरी जीवन में मेहमान के सत्कार के लिए लोगों के पास समय नहीं है। गांव में भी अब घूमन्तू मेहमान नहीं दिखते। मेहमान आए न आए, उनकी यादें ताजा हैं। अतिव्यस्त शहरी जीवन में भी मेहमान बहार बनकर ही आता है। शीघ्र चला जाए तो बहार छोड़ जाता है। फिर किसी मेहमान के आने का इंतजार रहता है। मेहमानों को अपने मेजवान की स्थिति का भान रहे तो कितना सुखद है यह रिश्ता।
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