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राष्ट्रीय एकता परिषद सोनिया पार्टी के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के लिए एक ऐसा मंच बन गया है जिसका वह अपनी सुविधा के हिसाब से जब-तब राजनीतिक उपयोग करती रहती है। जब उसे आवश्यकता महसूस होती है तब उसकी बैठक बुलाई जाती है। परिषद की नियमित बैठक हो, राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर उसमें विचार-विमर्श हो और परिषद की कोई कारगर भूमिका सामने आए, इसमें न तो कांग्रेस की कोई रुचि है और न सरकार की। हाल में करीब 3 वर्षों के अंतराल के बाद परिषद की बैठक बुलाई गई, सिर्फ इसलिए कि संप्रग सरकार सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा बनाए गए “साम्प्रदायिक व लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक” पर मुहर लगवाना चाहती थी। लेकिन दांव उलटा पड़ गया और परिषद की बैठक में विधेयक का मुखर विरोध सामने आया, अखबारों की सुर्खियों में वही छाया रहा। जनमानस को त्रस्त कर रही महंगाई, माओवादी हिंसा और जिहादी आतंकवाद जैसे राष्ट्र के लिए गंभीर संकट बने मुद्दों पर वहां कोई चर्चा होना सामने नहीं आया। इसी तरह याद करिए कि अक्तूबर 2008 में भी 3 साल के अंतराल के बाद राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक बुलाई गई थी और उस समय आतंकवादी घटनाएं चरम पर होने के बावजूद बैठक के एजेंडे में आतंकवाद शब्द तक से परहेज किया गया यानी चर्चा के बिन्दुओं में जिहादी आतंकवाद नहीं था, हां, दिखावे के लिए “चरमपंथ” को अवश्य चर्चा के लिए शामिल किया गया। जबकि बैठक का मुख्य एजेंडा केन्द्रित रहा उड़ीसा और कर्नाटक के कुछ क्षेत्रों में तथाकथित चर्च विरोधी हिंसा पर। लेकिन आश्चर्य देखिए कि इस बैठक से कुछ समय पूर्व उड़ीसा के कंधमाल क्षेत्र में हुई वयोवृद्ध स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती और उनके 7 सहयोगियों की नृशंस हत्या का मुद्दा परिषद की बैठक के एजेंडे में नहीं था। क्योंकि यह जघन्य कांड चर्च की शह पर माओवादियों ने किया था। इस भीषण हिंसा में चर्च की संलिप्तता के कई प्रमाण मौजूद होने के बावजूद उस कोण से जांच की दिशा ही घुमा दी गई कि कहीं कानून के हाथ ईसाई मिशनरियों की गर्दन तक न पहुंच जाएं, लेकिन अभी हाल में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने लीपापोती के इन कुत्सित प्रयासों पर तमाचा जड़ते हुए हत्याकाण्ड की दुबारा जांच के आदेश दिए हैं।
सरकार की चालाकी
सरकार चर्च के विरुद्ध क्षुब्ध वनवासी समाज की प्रतिक्रिया को तो हिंसा मानती है और उसे राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक का केन्द्रीय विषय बनाती है, लेकिन 40 वर्षों से कंध वनवासियों के उत्कर्ष के लिए जीवन समर्पित करने वाले, कंधमाल क्षेत्र में वनवासियों हेतु बड़े पैमाने पर शिक्षा, चिकित्सा, स्वरोजगार व कृषि सुविधाएं खड़ी करने के लिए प्रयत्नशील स्वामी लक्ष्मणानंद व उनके सहयोगियों के नरसंहार में उसे कोई हिंसा नहीं दिखती, इसीलिए इस कांड की न तो ठीक से जांच होती है, न हत्यारे पकड़े जाते हैं और न राष्ट्रीय परिषद की बैठक में उस पर चर्चा की जाती है। क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो स्वामी जी की हत्या के पीछे छिपा चर्च का मतांध और अमानवीय चेहरा सामने आ जाएगा। स्वामी जी के अनवरत और अथक प्रयत्नों से जब कंधमाल के वनवासियों के जीवन में खुशहाली आने लगी और चर्च का प्रलोभन के दम पर चलने वाला वनवासियों के मतांतरण का कारोबार ठप्प हो गया तो चर्च बौखला गया, उसे स्वामी जी अपने रास्ते की सबसे बड़ी बाधा नजर आने लगे और भाड़े के माओवादी हत्यारों से स्वामी जी व उनके सहयोगियों की हत्या करा दी गई। यह एक घटना भर नहीं है, बल्कि देशभर के जनजातीय क्षेत्रों में लोभ, लालच, भयादोहन व हिंसा के सहारे बड़े पैमाने पर चल रहे मतांतरण के क्रूर षड्यंत्र की एक सच्चाई है जिसकी परतें खुल गईं तो भारत में चर्च का भयावह चेहरा बेनकाब हो जाएगा। चर्च के एजेंडे को मजबूत करने में लगी हिन्दू द्रोही सोनिया पार्टी यह क्यों चाहेगी? इसलिए उसे चर्च “पीड़ित” नजर आता है और उसकी “पीड़ा” को राष्ट्रव्यापी चर्चा का विषय बनाने के लिए पिछली राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में मुख्य मुद्दा बनाया गया।
हिन्दुओं पर फिर आघात
इस बार फिर लगभग 3 वर्षों के अंतराल के बाद हुई परिषद की बैठक में संप्रग सरकार और सोनिया सलाहकार मंडली का हिन्दू द्रोह खुलकर सामने आया जब उसने साम्प्रदायिक व लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक पर परिषद की मुहर लगवानी चाही। जॉन दयाल, हर्ष मंदर, तीस्ता सीतलवाड़ जैसों की सहभागिता से बना यह विधेयक न केवल भारत के संघीय ढांचे पर प्रहार करने वाला है, जिसमें केन्द्र सरकार को किसी राज्य में विरोधी दल की निर्वाचित सरकार को राजनीतिक विद्वेष के कारण दंगे के आधार पर अनुच्छेद 555 के अंतर्गत बर्खास्त करने का अधिकार मिल जाएगा, बल्कि यह विधेयक हिन्दू द्रोह का पुलिंदा है। यह विधेयक देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज को “आदतन अपराधी व हिंसक” निरूपित करता है और कथित अल्पसंख्यकों के नाम पर मुस्लिम व ईसाइयों को “पीड़ित” बताता है। विधेयक की इस संकल्पना के अनुसार किसी भी दंगे के समय हिन्दुओं को यह साबित करना होगा कि हिंसा में उनका हाथ नहीं था। इस आधार पर चुन-चुनकर हिन्दुओं को जेलों में ठूंसा जाएगा और अल्पसंख्यकों की आड़ लेकर जिहादी आतंकवादी तत्वों को देश में हिंसा का तांडव करने की खुली छूट मिल जाएगी। इतना ही नहीं तो भारत के समरसतापूर्ण सामाजिक ताने-बाने को तहस-नहस करने का भी भरपूर मसाला इस प्रारूप में है। विभिन्न जाति समूहों को अल्पसंख्यक श्रेणी में दर्शाकर बहुसंख्यक हिन्दू समाज को कमजोर करने का षड्यंत्र किया गया है। इससे जातिगत संघर्ष व सामाजिक विद्वेष को बढ़ावा मिलेगा। आश्चर्य तो यह है कि इस विधेयक से संबंधित सामाजिक सौहार्द, न्याय व पुनर्वास के लिए बनाए गए राष्ट्रीय प्राधिकरण में हर्ष मंदर व तीस्ता जैसे घोर हिन्दू द्रोही लोग हैं। हर्ष मंदर को भारत माता के चित्र तक से परहेज है और तीस्ता खरीदे गए झूठे गवाह खड़े कर मोदी विरोध की लड़ाई लड़ रही हैं।
राजनीतिक षड्यंत्र
कुल मिलाकर यह विधेयक सोनिया पार्टी और उसके नेतृत्व में चलने वाली संप्रग सरकार का वोट बैंक परिपुष्ट करने वाला और हिन्दू विद्वेष की मानसिकता से रचा गया एक राजनीतिक षड्यंत्र है, जिसे राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में मुखर विरोध का सामना करना पड़ा। यहां तक कि संप्रग की सहयोगी तृणमूल कांग्रेस व समाजवादी पार्टी भी इसके साथ खड़ी नहीं दिखीं। तृणमूल की मुखिया पश्चिम बंग की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सहित 5 मुख्यमंत्री तो इस बैठक में ही शामिल नहीं हुए और सपा की ओर से इस विधेयक पर तीखी टिप्पणी सामने आयी। सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि इस विधेयक को तैयार करने वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की संवैधानिकता क्या है? यह तो सोनिया गांधी के एजेंडों को आगे बढ़ाने वाली एक चौकड़ी भर है, फिर इसके पास किसी विधेयक का प्रारूप तैयार करने का अधिकार कहां से आया? तो इस बैठक की प्रासंगिकता क्या रही? इससे यह तथ्य भी उभरकर आया है कि सरकार के रवैये के कारण परिषद की बैठक की गंभीरता ही खत्म हो गई है, कि मुख्यमंत्री ही उसे कोई तवज्जो नहीं दे रहे। हां, इस बैठक के नाम पर एक राष्ट्रीय मंच का दुरुपयोग कर हिन्दू द्रोह का आख्यान पढ़ने की कांग्रेसी योजना धराशायी हो गई और यह भी सामने आ गया कि यह सरकार किस तरह अपनी सुविधा के लिए राष्ट्रीय व संवैधानिक मंचों का दुरुपयोग करती है। अपने राजनीतिक लाभ के लिए हिन्दू विद्वेष की किसी भी सीमा तक जाने वाली सरकार को अंतत: मुंह की खानी पड़ी।
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