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हरियाणा में एक कहावत बड़ी प्रसिद्ध है “इब के मार तन्नै कत्ती नहीं छोड़ूंगा।” अर्थात कमजोर व्यक्ति मार खाता जाता है और अपने प्रतिद्वंद्वी को मार डालने की गीदड़ भभकियां भी देता जाता है। मार खाने वाले के पास न तो कोई इच्छाशक्ति/आत्मविश्वास होता है, न कोई बचाव का सुरक्षित दांव और न ही किसी प्रकार के सशक्त प्रतिकार का मजबूत इरादा। मात्र धमकियों और गालियों के सहारे सामने वाले को पराजित करने की नीयत और नीति दुश्मन का उत्साह बढ़ाती है। इस कमजोरी के फलस्वरूप शत्रु की मारक क्षमता में वृद्धि होती है और मार खाने वाला बलहीन होता जाता है।
कोरी बयानबाजी
यही हाल है इन दिनों वास्तव में सोनिया निर्देशित और कागजों पर मनमोहन सिंह संचालित भारत सरकार का। कमजोर राजनीतिक इच्छा शक्ति, अक्षम कानून, लचर सुरक्षा तंत्र, ढीला खुफिया तंत्र और आपसी तालमेल के अभाव में आतंकवादी जोर पकड़ रहे हैं। सरकार के पास कोरी धमकियों, थोथी बयानबाजी और अपनी तारीफों के पुल बांधने के सिवाय कुछ करने को नहीं है। दिल्ली उच्च न्यायालय में जमा भीड़ पर हुए आतंकी हमले ने इस सरकार की कमजोरी, मजबूरी और बेशर्मी को उस जनता के सामने उजागर कर दिया है जिसने अपनी सर्वांगीण सुरक्षा के लिए इसको बनाया है।
भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दों पर पिट चुकी सरकार ने जनता के जान माल पर हावी हो रहे आतंकवाद के सामने भी घुटने टेक दिए हैं। जिस सरकार का प्रधानमंत्री चौबीसों घंटे दिशानिर्देश के लिए 10 जनपथ (सोनिया निवास) की ओर देखता रहता हो, जिसका गृहमंत्री यह कहकर अपनी लाचारी प्रकट करता हो कि “सरकार सभी आतंकी हमलों को नहीं रोक सकती” और जिसके मंत्री प्रत्येक हिंसक घटना के बाद एक-दूसरे पर दोषारोपण करना शुरू कर दें उस सरकार से कौन और कैसे उम्मीद करेगा कि यह सरकार भविष्य में किसी आतंकी हादसे को रोक सकने का सामथ्र्य जुटा पाएगी?
विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह
जिस प्रकार से देश के गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए अपनी अयोग्यता का ठीकरा राज्य सरकारों पर फोड़ा है उसने तो इस सरकार की थोड़ी-बहुत बची विश्वसनीयता को भी समाप्त कर दिया है। यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न पैदा होता है कि देश में एनआईए और एफबीआई जैसी खुफिया एजेंसियों सहित सभी राष्ट्रीय स्तर की सुरक्षा एजेंसियों का गठन क्यों किया गया है? कहीं गृहमंत्री राज्यों को अपनी स्वतंत्र सुरक्षा व्यवस्था बना लेने जैसा अत्यंत विवेकहीन और असंवैधानिक सुझाव तो नहीं दे रहे?
गृहमंत्री ने यह बयान देकर पाकिस्तान और वहां पनप रहे आतंकी संगठन को क्लीन चिट दे दी है कि “दिल्ली हाईकोर्ट में हुआ धमाका घरेलू आतंकी संगठनों का हो सकता है-अब देश में हर हमले के लिए हम सीमा पार के आतंकी गुटों की ओर उंगली नहीं उठा सकते।”
कायरता का खुला प्रदर्शन
इस तरह की ढुलमुल राजनीतिक इच्छा और संवैधानिक नासमझी/अज्ञान पर आधारित बयानबाजी करके गृहमंत्री ने आतंकवाद जैसी देशव्यापी चुनौती से जूझ रही जनता की लड़ाई को देश और राज्यों में बांटने का जघन्य अपराध किया है। एक ओर प्रधानमंत्री नक्सलवाद और आतंकवाद के खिलाफ सारे देश को एकजुट होने की हुंकार लगा रहें हैं और गृहमंत्री सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्यों के कंधे पर फेंककर आतंक के विरुद्ध लड़ाई को कमजोर कर रहे हैं। यह सरकार की कायरता का प्रदर्शन नहीं तो और क्या है?
राष्ट्रीय स्तर की सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों के सभी सूत्र संभालने वाला देश का गृहमंत्रालय यदि कुछ समय और पी.चिदम्बरम जैसे हीनभावना ग्रस्त नेता के हाथ में रहा तो फिर देश और जनता की सुरक्षा का भगवान ही मालिक है। पी.चिदम्बरम ने तो यहां तक कह दिया कि खुफिया एजेंसियों की जानकारी कोई निमंत्रण पत्र नहीं होती जिस पर तिथि और स्थान लिखे होते हैं। गृहमंत्री ने इस तरह का गैर जिम्मेदाराना वक्तव्य देकर न केवल अपने देश की कानून व्यवस्था को ही कटघरे में खड़ा किया है, अपितु उन आतंकियों की करतूतों पर पर्दा भी डाला है, जिन्होंने तीन महीने पहले ही दिल्ली उच्च न्यायालय में विस्फोट करके वर्तमान आतंकी हमले की सूचना दे दी थी।
न कोई इच्छाशक्ति और न ही क्षमता
उल्लेखनीय है कि 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई में हुए अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले के बाद प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल को बाहर का रास्ता दिखा दिया था। देश पर मंडरा रहे और गहरे होते जा रहे नक्सली आतंकी खतरे से जूझ रहे गृहमंत्रालय की कमान अर्थशास्त्री पी.चिदम्बरम के हाथों में सौंप दी गई। गत 3 वर्ष का समय साक्षी है कि इस कालखंड में नक्सलवाद और आतंकवाद दोनों का आकार बढ़ा है। हिंसा में बेहिसाब वृद्धि हुई, सुरक्षा खुफिया व्यवस्थाएं चरमरा गईं और कानून व्यवस्था ने भी दम तोड़ा। अब क्या नैतिकता के आधार पर पी.चिदम्बरम को अपने पद से त्यागपत्र नहीं दे देना चाहिए? परंतु वे तो उलटा राज्य सरकारों, विपक्षी दलों और सुरक्षा बलों पर ही बरस रहे हैं।
पी.चिदम्बरम के पद भार संभालने के बाद अर्थात 26/11 को मुम्बई में हुए आतंकी नरसंहार के बाद देश के विभिन्न भागों में तीन दर्जन से ज्यादा नक्सली हमले और सात बड़े आतंकी हादसे हुए हैं। इन चार वर्षों में नक्सलियों ने सुरक्षा कर्मियों सहित हजारों लोगों की जान ली है। गृह मंत्रालय सहित पूरी सरकार इसी उधेड़बुन में लगी रही कि नक्सलग्रस्त इलाकों में भारतीय सेना को भेजा जाए कि नहीं। अभी तक सरकार नक्सलियों की नाक में नकेल डालने की कोई पुख्ता रणनीति तैयार नहीं कर सकी।
चिदम्बरम ने यह कहकर अपनी हीनभावना प्रकट कर दी कि “अद्र्धसैनिक बल की एक कंपनी तैयार करने में एक से डेढ़ करोड़ लग जाते हैं। इन्हें फोर्स में औपचारिक तौर पर शामिल करने में और भी ज्यादा वक्त लगता है। मंत्रालय के पास फिलहाल “फोर्स” की इतनी संख्या नहीं है।” इस तरह चिदम्बरम ने सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया।
प्रशासकीय छवि पर गहरा दाग
पी.चिदम्बरम के कालखंड के इन 3 वर्षों में जो बड़े आतंकी हमले हुए हैं उनमें से एक का भी कोई सुराग अभी तक नहीं मिला। वाराणसी के शीतला घाट, बंगलौर के चिन्नास्वामी स्टेडियम, पुणे की जर्मन बेकरी, मुम्बई विस्फोट, जामा मस्जिद और दिल्ली के उच्च न्यायालय में मई 2011 में हुए पहले विस्फोट का न तो पूर्वाभास किसी खुफिया एजेंसी को हुआ और न ही विस्फोट के बाद किसी किस्म की जानकारी प्राप्त हुई। यह गृहमंत्रालय की विफलता मानी जानी चाहिए या फिर पी.चिदम्बरम की “नई सुरक्षा थ्योरी” के अनुसार इसके लिए भी देश की राज्य सरकारें ही जिम्मेदार हैं?
पी.चिदम्बरम ने जिस तरह से आतंकवाद के मुद्दे पर राज्य सरकारों को लपेट में लिया है, उससे उनकी प्रशासकीय छवि पर ही दाग लगा है। गृहमंत्री ने किसी छोटे पुलिस स्टेशन के थानेदार जैसा व्यवहार किया है जो यह कहकर शांत हो जाता है कि अमुक सड़क पर हुई दुर्घटना मेरे इलाके (ज्यूरिसडिक्शन) में नहीं आती। गृहमंत्री को यह स्पष्ट करना होगा कि देश के केन्द्रीय गृहमंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में राज्य आते हैं कि नहीं?
बदलनी होगी कार्य संस्कृति
देश की जनता अपने नीति नियंताओं से यह पूछ रही है कि जब 2001 में अमरीका में और 2005 में लंदन में हुए आतंकी हमलों के बाद अस्तित्व में आई चाक चौबंद सुरक्षा व्यवस्था के कारण इन दोनों स्थानों पर एक भी आतंकी वारदात नहीं हुई तो भारत में इन दस वर्षों में 32 बड़े आतंकी नरसंहार कैसे हो गए? एक ओर नेताओं और सरकार के आश्वासन, घोषणाएं और दूसरी ओर अधकचरी सुरक्षा व्यवस्था को लोग अब समझने लगे हैं। यही वजह है कि सात सितम्बर के हादसे के बाद जख्मियों का पता लेने अस्पताल पहुंचे नेताओं के विरुद्ध जनाक्रोश दिखा। मृत लोगों और जख्मियों के परिवार वालों ने साफ कहा “हमें मुआवजा नहीं, सुरक्षा चाहिए।”
वास्तविकता तो यह है कि जनता की सुरक्षा की चिंता किसी को है ही नहीं। राजनीतिक कार्य संस्कृति और राजनेताओं की स्वयं की प्राथमिकताओं में बदलाव आ गया है। अब नेताओं की सोच में पहला स्थान वोट बैंक की राजनीति है न कि राष्ट्रीय कर्तव्य। इसी वजह से आतंकवादियों के आश्रय स्थलों और उनके आर्थिक मददगारों का कुछ नहीं बिगड़ रहा। आतंकी तो आम नागरिकों से भी ज्यादा सुरक्षित हैं। जब उनके आका राजनीतिक दल उनकी पीठ पर खड़े हों तो फिर भय किस बात का?
प्रचंड जनजागरण की जरूरत
वोट बैंक की इसी राष्ट्रघातक राजनीति के कारण संसद पर हमले के दोषी अफजल को फांसी नहीं हो रही। इसी वजह से मुम्बई हमले के आतंकी कसाब की सुरक्षा और खातिरदारी पर करोड़ों रुपया बर्बाद किया जा रहा है। यही नहीं, अब तो विधानसभाओं में प्रस्ताव पारित करके फांसी का इंतजार कर रहे आतंकियों को क्षमा कर देने का राजनीतिक प्रचलन भी प्रारंभ हो गया है। जब राजनीति का उद्देश्य देश, समाज की सुरक्षा सेवा न होकर चुनाव जीतना, कुर्सी हथियाना और बचाना बन गया हो तो आतंकवाद कैसे समाप्त होगा?
आज आवश्यकता है देश में उभर रही राजनीति की प्राथमिकताएं और उद्देश्य बदलने की। सेवाभिमुख राजनीतिक व्यवहार, चाक चौबंद सुरक्षा व्यवस्था, सतर्क खुफिया तंत्र, कठोर कानून, सख्त और तुरंत सजा जैसे जरूरी कदम तभी उठाए जा सकते हैं जब पी.चिदम्बरम जैसे अवसरवादी नेताओं की जगह राष्ट्रभक्त नेता सत्तासीन होंगे। यह सारा परिवर्तन तभी संभव होगा जब देश की जनता संगठित, शक्ति सम्पन्न और चरित्रवान होगी। भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध खड़े हुए जनांदोलन की तरह आतंकवाद के विरुद्ध भी ऐसे ही प्रचंड जनांदोलन की आवश्यकता है। तभी सरकार को होश आएगा। देखना यह है कि कौन सा राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन अथवा नेता इस कार्य को सम्पन्न करता है?
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