राडिया गेट में फंसे बड़े पत्रकार
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राडिया गेट में फंसे बड़े पत्रकार

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Dec 12, 2010, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Dec 2010 00:00:00

द देवेन्द्र स्वरूपसर्वशक्तिमान अमरीका सरकार के दस लाख गोपनीय कूटनीतिक दस्तावेजों में से लगभग ढाई लाख दस्तावेजों को एक आस्ट्रेलियाई नागरिक जूलियस असांजे ने अपनी वीकीलीक्स नामक वेबसाइट पर सार्वजनिक करके विश्व भर में तहलका मचा दिया है। अमरीका को अपनी विदेश और रक्षा नीति का बचाव करना मुश्किल हो गया है। इन दस्तावेजों में भारत के प्रति पाकिस्तान और अमरीका की नीतियों का जो चेहरा सामने आता है, उससे भारत में भारी चिंता पैदा हो गयी है। अमरीका नहीं समझ पा रहा है कि उसके ये अति गोपनीय दस्तावेज लीक कैसे हो गये? किस अमरीकी भेदिये ने उन्हें असांजे के हाथों में पहुंचा दिया? कुछ भारतीय विशेषज्ञों का कहना है कि इन दस्तावेजों के प्रकाश में आने से भारत को अधिक चिंतातुर होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इनमें ऐसा कुछ भी नया नहीं है जिसका भारत को पहले से पता न हो। क्या भारत यह नहीं जानता था कि पाकिस्तान ने केवल भारत को ही अपना शत्रु मान रखा है और उसकी समूची रक्षा और विदेश नीति भारत के विरुद्ध ही केन्द्रित है? क्या भारत यह नहीं जानता था कि तालिबान पाकिस्तान की अपनी संतान है और अमरीका के डर से यदि पाकिस्तान को तालिबान के विरुद्ध लड़ाई का दिखावा करना पड़ता है? क्या हम यह नहीं जानते हैं कि अमरीका अफगानिस्तान में जिस बुरी तरह फंस गया है उससे बाहर निकलने में उसे पाकिस्तान की मदद की सख्त जरूरत है? और इसलिए पाकिस्तान के आणविक हथियारों के जिहादियों के हाथों में पड़ने का भय होते हुए भी उसे पाकिस्तान को आर्थिक और सामरिक सहायता के द्वारा खुश रखने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। निष्कर्ष यह है कि पाकिस्तान और अमरीकी नीति के बारे में जो कुछ हम पहले से जानते हैं, उसे ही बहुत सनसनीखेज ढंग से वीकीलीक्स ने प्रस्तुत कर दिया है।सत्ता में उद्योगपतियों की दखलहमारे लिए मुख्य चिंता का विषय होना चाहिए हमारे अपने घर में घटा राडिया गेट। यानी एक लाख सत्तर हजार करोड़ रुपये के “टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले” के सिलसिले में टेलीकाम उद्योग से जुड़े दो बड़े औद्योगिक घरानों-टाटा और मुकेश अम्बानी के साथ-साथ देश के कुछ प्रमुख उद्योगपतियों, केन्द्रीय मंत्रियों, नौकरशाहों और यहां तक कि देश के 30 प्रभावशाली पत्रकारों से जन सम्पर्क करने वाली महिला नीरा राडिया की 5000 टेलीफोनिक वार्ताओं में से केवल 100 वार्ताओं के उद्घाटित होने से मचा हड़कम्प। ये वार्ताएं लम्बे समय से चली आ रही होंगी। पर, सेन्ट्रल बोर्ड आफ डायरेक्ट टैक्स (सी.बी.डी.टी.) ने अपनी जांच के सिलसिले में भारत सरकार से प्रार्थना की कि राडिया के फोन की टेपिंग कराना जरूरी है। जिसके बाद केन्द्रीय गृह सचिव के आदेश पर 2008-2009 में छह महीने के लिए यह फोन टेपिंग हुई। स्वाभाविक ही ये सब टेप सी.बी.डी.टी. के अधिकार में थे। वहां से ये मीडिया के पास कैसे पहुंचे, किसने पहुंचाए, इसकी जांच दस दिन के भीतर पूरी करके सर्वोच्च न्यायालय को बताने का आदेश भारत सरकार के गृह मंत्रालय को रतन टाटा की अपील पर दिया गया है, इसलिए गृह मंत्रालय को उसमें लगना ही पड़ेगा।पर जो टेप अब तक सामने आये हैं उनसे विदित होता है कि 2009 में यूपीए के मंत्रिमंडल के गठन के समय अपने मुवक्किल उद्योगपतियों के हित में नीरा राडिया जी-तोड़ प्रयास कर रही थी कि दूरसंचार मंत्रालय करुणानिधि की द्रमुक (डी.एम.के.) के ही पास रहे और उसमें भी ए.राजा को ही दूरसंचार मंत्री बनाया जाए। संभवत: प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह प्रारंभ में राजा को यह मंत्रालय देने के पक्ष में नहीं थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए नीरा राडिया ने द्रमुक और सोनिया पार्टी के बीच मध्यस्थ की भूमिका अपना ली। उसके सामने बड़ी समस्या यह थी कि प्रधानमंत्री और द्रमुक के बीच इस विषय पर संवाद की स्थिति कैसे पैदा की जाए और प्रधानमंत्री के मन में ए.राजा के प्रति अनुकूलता कैसे पैदा की जाए। इस काम के लिए उसने ऐसे महत्वपूर्ण और वरिष्ठ पत्रकारों का इस्तेमाल किया जिनका प्रधानमंत्री और सोनिया पार्टी के अन्य वरिष्ठ मंत्रियों पर खासा प्रभाव माना जाता है। राडिया ने कुल मिलाकर तीस पत्रकारों से सम्पर्क साधा किंतु इनमें से दो-एक एन.डी.टी.वी. 24न्7 की राजनीतिक सम्पादक बरखा दत्त और हिन्दुस्तान टाइम्स के सम्पादकीय परामर्शदाता व निदेशक वीर संघवी के नामों ने पत्रकार जगत में हलचल मचा दी है।शर्मनाक खुलासाअधिवक्ता प्रशांत भूषण की सहायता से प्राप्त टेपों को “ओपन” एवं “आउटलुक” (29 नवम्बर) नामक अंग्रेजी पत्रिकाओं ने अक्षरश: प्रकाशित भी कर दिया है। वहां राडिया और वीर संघवी के वार्तालाप से विदित होता है कि वीर संघवी हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रति रविवार को प्रकाशित होने वाले अपने काउंटर प्वाइंट स्तम्भ में वही लिखते थे जो राडिया उनसे लिखाना चाहती थी। यह बहुत अविश्वसनीय स्थिति थी। इतने वरिष्ठ और प्रभावशाली पत्रकार कुछ औद्योगिक घरानों के जन सम्पर्क माध्यम को इतनी सहजता से उपलब्ध क्यों हैं? उसके इशारे पर क्यों नाच रहे हैं? पत्रकारिता के धर्म को पूरा करने के लिए या किसी बड़े राष्ट्रहित में? किंतु ऐसा कोई हित उनके वार्तालाप और गतिविधियों में दिखायी नहीं देता। इसलिए इस शुद्ध व्यापारिक लेन-देन में देश के जाने-माने पत्रकारों की भूमिका गंभीर चर्चा का विषय बन गयी है। इंटरनेट पर प्रतिकूल टिप्पणियां आने लगीं हैं। दोनों पत्रकारों पर भारी दबाव बन गया, जिसके उत्तर में एनडीटीवी और बरखा दत्त ने अपनी सफाई में वक्तव्य जारी किये। वीर संघवी ने रविवार (28 नवम्बर, 2010) को अपने साप्ताहिक स्तंभ में लम्बी-चौड़ी सफाई देते हुए अपने स्तंभ को स्थगित करने की घोषणा कर दी। किंतु उसी पृष्ठ पर नीचे दूसरे स्तंभ लेखक करण थापर ने दोनों पत्रकारों का नामोल्लेख न करते हुए उनके आचरण को पत्रकारिता धर्म के विरुद्ध बताया। उसी दिन रात को सीएनएन-आईबीएन चैनल पर वरिष्ठ पत्रकार अरुण शौरी के साथ करण थापर की भेंट वार्ता में बरखा और वीर संघवी दोनों का नाम आया और अरुण शौरी ने भी उनके आचरण को पत्रकारोचित नहीं माना।भारतीय पत्रकारिता की दृष्टि से यह बहुत ही संवेदनशील और महत्वपूर्ण विषय है। प्रचार माध्यमों में राष्ट्रजीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार को जितना महत्व दिया जाता है उसे देखते हुए मीडिया की प्रामाणिकता और शुचिता पर अंगुली उठाने वाले इस प्रसंग की जितनी व्यापक चर्चा होनी चाहिए थी उसका सर्वथा अभाव दिखायी दिया। क्या सचमुच हमारा मीडिया अपने दामन में झांकने से घबराता है। पर भीतर ही भीतर इसका दबाव बढ़ रहा है। शायद यही कारण है कि एनडीटीवी ने पहले से रिकार्ड की गई एक परिचर्चा को मंगलवार (1 दिसंबर) की रात्रि 10 बजे से 11 बजे तक प्रसारित किया। इस परिचर्चा में बरखा दत्त से प्रश्नोत्तर के लिए टाइम्स आफ इंडिया के पूर्व संपादक और कश्मीर पर वार्ताकार दल के सदस्य दिलीप पड़गांवकर, प्रधानमंत्री कार्यालय के पूर्व प्रेस सहायक एवं फाइनेंशियल पत्रकार संजय बारू , स्तंभ लेखक सपनदास गुप्त और इस टेप को प्रकाशित करने वाली पत्रिका “ओपन” के सम्पादक मनु जोसेफ को बुलाया गया। इस वार्तालाप से यह तो स्पष्ट हो गया कि किसी भी पत्रकार ने बरखा दत्त के आचरण को उचित नहीं ठहराया। संजय बारू ने स्पष्ट कहा कि आपको बहुत पहले क्षमा मांग लेनी चाहिए थी। सपनदास गुप्त ने बरखा दत्त के राजनीतिक झुकाव की ओर इशारा करते हुए कहा कि जिस प्रकार भाजपा के साथ मेरी निकटता के कारण कुछ लोग भाजपा नेतृत्व के पास पहुंचने के लिए मुझे माध्यम बनाना चाहते हैं, क्या प्रधानमंत्री के पास पहुंचने के लिए राडिया ने आपके राजनीतिक झुकाव का ही इस्तेमाल तो नहीं किया? बरखा का एकमात्र स्पष्टीकरण था कि मैं राडिया का इस्तेमाल मंत्रिमण्डल गठन के बारे में खबर निकालने के लिए कर रही थी। पर मनु जोसेफ का प्रश्न था कि औद्योगिक घरानों की एक जन सम्पर्क अधिकारी मंत्रिमण्डल गठन में सोनिया पार्टी और द्रमुक के बीच मध्यस्थता कर रही है, यह खबर क्या आपको महत्वपूर्ण नहीं लगी? आपने उसे प्रकाश में क्यों नहीं लाया? इसका बरखा के पास कोई उत्तर नहीं था। वह एक ही बात दोहराती रहीं कि यहां मुझसे निर्णय में भूल हो सकती है। पर इस प्रश्न को उठाने पर बरखा अपना संयम खो बैठीं और मनु जोसेफ व उसके बीच नोक-झोंक पूरी परिचर्चा पर छा गयी।कटघरे में पत्रकारयह तो बरखा दत्त का अपना चैनल था। यद्यपि प्रबंध सम्पादक (मैनेजिंग एडीटर) सोनिया सिंह परिचर्चा का संचालन कर रही थीं, पर वे भी बरखा के आक्रामक तेवरों के सामने सहमी-सहमी सी लगीं। अगले दिन (बुधवार, 2 नवम्बर) को हेडलाइंस टुडे चैनल पर रात्रि 9 बजे से इसी विषय पर आयोजित परिचर्चा में हिन्दू के सम्पादक एन.राम, इंडिया टुडे के सम्पादक एम.जे.अकबर, ओपन पत्रिका की ओर से हरतोष सिंह बल और इंडिया टुडे (भारतीय भाषाओं) के सम्पादक प्रभु चावला तथा परफेक्ट रिलेशंस के दिलीप चेरियन सम्मिलित हुए। राहुल ने परिचर्चा का संचालन किया। उन्होंने बैंकाक के एक होटल में बैठे वीर संघवी से भी प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित किया, उनके व राडिया के साथ वार्तालाप के टेप को भी पुन: सुनाया। इस परिचर्चा में हरतोष सिंह बल ने प्रभु चावला पर राडिया के साथ अपने वार्तालाप में शब्द परिवर्तन का आरोप लगाया। बल ने कहा कि आपने राडिया को कहा था कि निर्णय आने के पहले मैं उन्हें (मुकेश अम्बानी को) आगाह करना चाहता था। जबकि आपने बाद में “फोर वार्न” शब्द की जगह “प्रोब” शब्द लगा दिया। प्रभु ने इस आरोप का खंडन करना चाहा। एन.राम ने प्रभु चावला के स्पष्टीकरण को स्वीकार कर लिया पर बरखा और वीर संघवी के बारे में वे कठोर रहे। उन्होंने कहा, “स्पष्ट ही उन्होंने जो कुछ किया वह पूरी तरह अनुचित था। उनका आचरण धक्का पहुंचाने वाला था। पिछली रात मैंने बरखा का दयनीय प्रयास देखा। वह अशिष्ट थीं, आक्रामक थीं, उनमें पछतावे की भावना नहीं थी। संघवी का स्पष्टीकरण भी संतोषजनक नहीं है। वे कहते हैं कि मैं खबर निकालने के लिए उसे (राडिया) टटोल रहा था। पर जो जानकारी उन्हें मिली वह किसी काम की नहीं थी। एक जगह तो राडिया ने करुणानिधि की पुत्री कनीमोड़ी का धन्यवाद भी संघवी को प्रेषित किया। यह पत्रकारिता की नैतिकता का गंभीर उल्लंघन है।एन.राम ने यहां तक कह दिया कि ऐसा आचरण बीबीसी या फाइनेंशियल टाइम्स या न्यूयार्क टाइम्स में कदापि सहन नहीं किया जाता। उनका अभिप्राय था कि ऐसे पत्रकारों को या तो वे निकाल देते या त्यागपत्र देने को बाध्य करते। पर क्या भारतीय मीडिया में ऐसी नैतिकता की अपेक्षा की जा सकती है। मेल टुडे (2 दिसंबर) में प्रकाशित एक सर्वेक्षण के अनुसार 86 प्रतिशत व्यक्तियों ने इस बात पर गहरी निराशा प्रकट की कि इतने बड़े पत्रकार भी राजनीति और उद्योग के मध्य बिचौलियों का काम करने लगे हैं। 80 प्रतिशत को पीड़ा थी कि मीडिया ने इस विषय को जोर- शोर से क्यों नहीं उठाया? क्या मीडिया अपनी बिरादरी के पाप को छिपा रहा है? 97 प्रतिशत ने कहा कि अब उनका विश्वास पत्रकारों पर से उठ गया है। पता नहीं क्यों आउटलुक के सम्पादक विनोद मेहता, जो राष्ट्रद्रोही अरुंधति राय को छापने में गर्व अनुभव करते हैं, उन्हें टेलीविजन चैनलों पर आने का भी बहुत शौक है और जिन्होंने राडिया के टेपों को छापने में पहल की थी, वे इन दोनों परिचर्चाओं में अनुपस्थित रहे। एनडीटीवी ने तो नीचे पट्टी पर कह भी दिया कि “बुलाने पर भी नहीं आए।”यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में मीडिया ही सबसे बड़ा हथियार रहा है। यदि वह हथियार ही अपनी धार खो बैठे तो यह लड़ाई कैसे लड़ी जाएगी? नया हथियार कहां से आयेगा? 2009 के लोकसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर समाचार पत्रों ने पैसा लेकर पहले पन्ने पर किसी प्रत्याशी विशेष का प्रचार करने वाली खबरें छापीं। कुछ पत्रकारों ने इसके विरुद्ध मुहिम चलायी। प्रेस परिषद को जांच के लिए मजबूर किया। जांच समिति की रपट को दबा दिया गया। पर राम बहादुर राय जैसे कुछ आदर्शवादी पत्रकारों ने उस रपट को प्रकाशित करने का साहस दिखाया। महाराष्ट्र के पद्च्युत मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण के विरुद्ध “पेड न्यूज” का आरोप निर्वाचन आयोग तक पहुंच गया। मीडिया की ताकत से घबराकर राजनेता उन्हें खरीदने और लुभाने की कोशिशों में लग जाते हैं, जिससे पत्रकारों का अहंकार आसमान छूने लगता है। हेडलाइंस टुडे की परिचर्चा में एम.जे.अकबर ने ठीक ही कहा कि “यदि पत्रकार अपने अहं पर थोड़ा अंकुश लगा पाते तो ऐसे प्रश्न खड़े ही नहीं होते।” किंतु एनडीटीवी पर बरखा दत्त की आक्रामकता और अभद्रता देखकर लगा कि पत्रकार अपने अहं के बंदी बन चुके हैं। उनमें आत्मालोचन और पाश्चाताप की भावना का लोप हो गया है। इस स्थिति में लोक जागरण और लोकशिक्षण का काम कौन करेगा? क्या हम यह मान लें कि भारतीय लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी ढह गया है या ढहने के कगार पर है? ग़्9

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