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सम्पादकीय

by
Jun 6, 2010, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Jun 2010 00:00:00

जनगणना में घुसपैठियों की पहचान होवोट की राजनीति किस तरह राष्ट्रहित के मामले में दृढ़ता दिखाने के आड़े आती है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जाति आधारित जनगणना पर मनमोहन सरकार की ऊहापोह। प्रधानमंत्री कभी जातिवादी राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों व उनके नेताओं के दबाव में आकर घोषणा करते हैं कि सरकार इस पर मंत्रिमंडलीय बैठक में जल्दी फैसला करेगी और यह बैठक जब किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में असफल रहती है तो कहा जाता है कि अब मंत्रियों के समूह के पास यह मामला भेजा जा रहा है, वही इस पर निर्णय लेगा। इस मुद्दे पर न केवल सरकार, बल्कि उसका नेतृत्व करने वाली सोनिया पार्टी में भी दुविधा की स्थिति है। करें या न करें, इसका कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है, बल्कि यह है कि किया तो वोट का कितना नुकसान या फायदा होगा, न किया तो कितना। यानी सारा खेल वोट की राजनीति का है।भारतीय समाज रचना में जाति को कभी महत्व का स्थान प्राप्त नहीं रहा। योग्यता, गुण-कर्म के आधार पर ही समाज में व्यक्ति स्थान पाता रहा। उसी चिंतन में से यह उक्ति सामने आई “जात न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान”। लेकिन पराधीनता काल में परकीय शासकों ने जाति प्रथा को हमारे सामाजिक दोष के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। अंग्रेजों ने तो अपनी विभेदकारी नीति के रूप में जाति प्रथा का इस्तेमाल किया और हिन्दू समाज को कमजोर करने व तोड़ने के लिए इसे हथियार के रूप में प्रयोग किया। स्वतंत्र भारत में हमारे संविधान निर्माताओं यथा डा.अम्बेडकर आदि ने तो हमारे सांस्कृतिक चिंतन के आधार पर जातिविहीन समाज का लक्ष्य ही सामने रखा। इसलिए जाति आधारित जनगणना की बात करना हमारे सामाजिक ताने-बाने को तो ध्वस्त करने की कोशिश है ही, यह संविधान की मूल भावना के भी प्रतिकूल है। जो लोग इसके लिए दुराग्रह पर डटे हैं, वे केवल अपने राजनीतिक स्वार्थों व वोट के गणित को साधने की दुष्प्रेरणा से ही ऐसा कर रहे हैं, देश के विकास में जाति आधारित जनगणना की भूमिका का उनका दावा खोखला है। पहले ही जाति आधारित राजनीति के कारण समाज जीवन में परस्पर ईष्र्या-द्वेष इस कदर व्याप्त हो गया है कि कई जाति समूह एक-दूसरे के दुश्मन बन गए हैं। कुछ दल तो अपनी जातिगत पहचान से ही जाने जाते हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री वि•ानाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद तो जातिवादी राजनीति सिर चढ़कर बोलने लगी और समाज की शिराओं में जातिवादी जहर तेजी से फैलने लगा। कितने ही युवकों की बलि ले ली उस जातिवादी उबाल ने। देश के राजनेताओं को इससे सबक लेना चाहिए।जनगणना एक महत्वपूर्ण उपक्रम है। राजनीतिक नफा-नुकसान या वोट की राजनीति के आकलन के लिए इसका उपयोग करने की बजाय राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इसका विचार होना चाहिए। इस समय देश के सामने बंगलादेशी घुसपैठियों का संकट अत्यधिक चिंताजनक है। 2 करोड़ से ज्यादा घुसपैठिए देश की सुरक्षा व राष्ट्रीय एकता-अखंडता के लिए गंभीर चुनौती बने हुए हैं। दिल्ली सहित अनेक क्षेत्रों में बंगलादेशी गिरोह कानून-व्यवस्था के लिए भी संकट बन गए हैं। सरकार को इस ओर ध्यान केन्द्रित करके जनगणना के माध्यम से एक राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तैयार करने का लक्ष्य तय करना चाहिए और प्रयासपूर्वक उस पर क्रियान्वयन होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो राष्ट्रहित में यह एक महत्वपूर्ण कार्य होगा। इस आधार पर पहचान किए गए घुसपैठियों को कड़ाई से देश से निकाल बाहर किया जाए। इसके विपरीत जाति आधारित जनगणना पर जोर देना देश की सामाजिक व सांस्कृतिक एकता पर आघात होगा, क्योंकि इससे एकात्मता और सामाजिक समरसता के जो प्रयास हो रहे हैं उनको गहरा धक्का लगेगा।6

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