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द राजनाथ सिंह “सूर्य”भ्रष्टाचार और शासकीय आचरण में क्षरण से आज जिस प्रकार देश उद्वेलित है उसका अनुमान कांग्रेसियों को शायद ही उस समय हुआ होगा जब वह अपने अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी की चौथी पारी का जश्न मनाने के लिए तालकटोरा मैदान में एकत्रित हुए थे। उन्हें तब भी इस बात का आभास नहीं हुआ जब कांग्रेस अध्यक्ष का भाषण अगले दिन के समाचार पत्रों में मुख्य शीर्षक पाने में असफल रहा। नवनिर्वाचित कांग्रेस कमेटी के सदस्यों को संबोधित करते हुए सोनिया गांधी ने चाहे जितने भी ऊंचे स्वर में अपना भाषण पढ़ा हो, वह प्रभावहीन ही रहा। क्योंकि उन्होंने जो सर्वाधिक चर्चित मुद्दा था-भ्रष्टाचार, उसका संज्ञान तक नहीं लिया। और बोलीं भी कब, जब पानी नाक से ऊपर पहुंचने लगा। जिन (स्व.) इंदिरा गांधी के जन्मदिन पर उन्होंने भ्रष्टाचार की स्थिति का संज्ञान लिया, क्या उस पर अमल की दृढ़ता भी वैसी है?भ्रष्टाचार पर चुप्पीयद्यपि कुछ ही दिन पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी भ्रष्टाचार की व्यापकता पर सार्वजनिक रूप से चिंता व्यक्त कर चुके थे तथा हमारा पूरा मीडिया राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में भ्रष्टाचार का खुलासा भूलकर मुंबई की “आदर्श हाउसिंग सोसाइटी” के तथ्यों की बखिया उधेड़ रहा था। महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की विदाई को सुनिश्चित मानते हुए समालोचक इस बात का अनुमान लगा रहे थे कि कौन-कौन से पूर्व मुख्यमंत्री, सेना के वरिष्ठतम अधिकारी और प्रशासनिक अधिकारी इस घोटाले में लिप्त रहे हैं। ऐसा पहली बार हुआ है जब राजनीतिक एवं प्रशासनिक अधिकारियों के अलावा सेना के वरिष्ठतम अधिकारी भी फर्जी शपथपत्र देने के दोषी पाए गए। भ्रष्टाचार की इतनी गंभीर स्थिति का सोनिया गांधी ने संज्ञान लेना क्यों उचित नहीं समझा? उनकी पार्टी के एक नहीं बल्कि दो मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों, पद के दुरुपयोग के घेरे में रहे, पूर्व सैन्य प्रमुख तक उसके लपेटे में हों, उपराष्ट्रपति भ्रष्टाचार की स्थिति पर चिंता प्रकट करें और यूपीए सरकार की संचालिका तथा प्रधानमंत्री दोनों ही इस स्थिति का संज्ञान न लें, इससे अधिक चिंताजनक स्थिति और क्या हो सकती है?गठबंधन की विवशता कैसी?सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह प्रश्न खड़ा करने के बावजूद कि ए. राजा संचार मंत्री कैसे बने हुए हैं, उनका मंत्री पद पर बने रहने को गठबंधन की विवशता कहकर नजरंदाज नहीं किया जा सकता। गठबंधन के साथ सरकार इसलिए बनायी जाती है ताकि देश को एक स्थिर और स्वच्छ शासन प्रदान किया जा सके, लेकिन वह भ्रष्टाचार को रक्षा कवच प्रदान करने का कारण नहीं बननी चाहिए। इसलिए अब जबकि सरकार को विवश होकर कुछ कदम उठाने पड़े हैं, कांग्रेस अध्यक्ष अब तक की स्थिति के लिए अपनी मौन सहमति के आरोपों से घिरती जा रही हैं।कांग्रेस कमेटी की बैठक जिस दूसरी घटना के लिए चर्चित हुई वह यह थी कि जब बैठक में सर्वसम्मति से सोनिया गांधी को कार्यकारिणी का अध्यक्ष मनोनीत करने का प्रस्ताव किया गया तो राहुल गांधी वहां से उठकर बाहर चले गए क्योंकि कथित रूप से वे मनोनीत संगठनात्मक स्वरूप में विश्वास नहीं करते। उन्होंने युवक कांग्रेस और राष्ट्रीय छात्र संगठन का विधिवत निर्वाचन कराया है। लेकिन जिस अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक से निर्वाचन और मनोनयन के मुद्दे पर उनका उठकर बाहर चले जाना चर्चित हुआ है, उसका गठन भी मनोनयन के आधार पर ही हुआ है। स्वयं उनका और सोनिया गांधी का भी मनोनयन ही हुआ है।कांग्रेस कमेटी की बैठक में राहुल गांधी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने जैसी चाटुकारिता प्रकट नहीं हुई, लेकिन इससे कांग्रेस में उनकी घटती लोकप्रियता के रूप में आकलन करना सचाई से मुंह मोड़ना होगा। यह बात अलग है कि उनकी पसंद के दो युवा मुख्यमंत्रियों-उमर अब्दुल्ला और अशोक चव्हाण ने जिस प्रकार आचरण किए हैं उससे देश में उनकी क्षमता और प्रतिभा पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। कांग्रेस अपने नेताओं को आईना दिखाने की क्षमता के मामले में सर्वाधिक निचली स्थिति में पहुंच गई है। कांग्रेसजनों की इस लाचार स्थिति का जो लाभ सोनिया गांधी या राहुल गांधी को मिल रहा है, वैसा इसके पूर्व किसी भी अन्य नेता को नहीं मिला। जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी के सत्ता में रहते हुए कांग्रेसजनों ने आईना दिखाया था। लेकिन इतनी चिंताजनक स्थिति में भी नेहरू, इंदिरा या राजीव के समान कद्दावर न होने पर भी सोनिया और राहुल कांग्रेस के चुनौतीविहीन नेता बने हुए हैं तथा यूपीए के माध्यम से सत्ता के नियामक भी।घटता जनाधारलेकिन क्या कांग्रेस में सब कुछ ठीक-ठाक है। देश के केवल दो बड़े राज्यों- आंध्र प्रदेश और राजस्थान में ही उसकी अपने बहुमत की सरकार है। आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री रोसैय्या को पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र जगमोहन रेड्डी दिन में तारे दिखा रहे थे। अंतत: उन्हें जाना ही पड़ा। तेलंगाना के मसले पर अनेक सांसद इतने बंटे हैं कि वे किसी मंत्री द्वारा बुलाये जाने पर भी एक साथ नहीं बैठते। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और केंद्रीय मंत्री सीपी जोशी एक-दूसरे को नीचा दिखाने का एक भी मौका हाथ से नहीं जाने देते। स्थानीय निकाय के निर्वाचन में भाजपा को मिली सफलता का ठीकरा दोनों खुलेआम एक-दूसरे के सर फोड़ते रहे हैं। केंद्रीय मंत्रियों के समूह पर समूह गठित किए जाने के बावजूद उनमें सामूहिकता की भावना का सर्वथा अभाव दिखाई दे रहा है। कांग्रेस के एक दरबारी महामंत्री दिग्विजय सिंह विपक्ष से ज्यादा अपने मंत्रियों को ही कोसते रहते हैं।संघ विरोधी दुराग्रहजहां तक विपक्ष पर हमलावर होने का सवाल है तो संभवत: कांग्रेस ने यह मान लिया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही एकमेव विपक्षी दल है। इसलिए सोनिया गांधी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में यदि किसी संगठन का जिक्र किया तो वह रा.स्व. संघ ही था। राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह तो एक लम्बे अर्से से संघ के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं। शायद इसके पीछे उनका यह आकलन है कि इससे मुसलमान मतदाता एकमुश्त उनकी झोली में आ जाएगा। कांग्रेस की ही तरह हर राजनीतिक दल ऐसी कोशिश करता है, लेकिन मात्र संघ विरोधी भावना की अभिव्यक्ति ही क्या मुस्लिम मतदाताओं की अनुकूलता पाने के लिए काफी है? क्या मुसलमान महंगाई, भ्रष्टाचार आदि के प्रति निरपेक्ष हैं? ऐसा नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में क्षेत्रीय आधार पर अनेक मुस्लिम राजनीतिक दल बन गए हैं और क्षेत्रीय दल उनकी पहली पसंद बनते जा रहे हैं। कारण, उनमें अनुकूल पैठ बनाना उनके लिए आसान होता है।कांग्रेस एक राष्ट्रीय दल होने का दावा करती है लेकिन इस दावे के अनुरूप उसके नेतृत्व की सोच सिकुड़ती जा रही है। कांग्रेस का दावा है कि वह देश का सबसे बड़ा राजनीतिक संगठन है क्योंकि प्रत्येक गांव में उसके सदस्य हैं। यह सही है कि प्रत्येक गांव में “कांग्रेसी” हैं लेकिन क्या कांग्रेस उनकी भावना के अनुरूप संगठित है? यह बात बार-बार साबित हो चुकी है कि मनमोहन सिंह उस क्षमता और पात्रता के अनुरूप स्व-विवेक से आचरण नहीं कर रहे हैं जिसकी प्रधानमंत्री से अपेक्षा है। द11
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