स्त्री विमर्श पर नई नजर
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स्त्री विमर्श पर नई नजर

by
May 10, 2008, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 May 2008 00:00:00

इसेे हमारे समाज की विडंबना ही कहना चाहिए कि वैज्ञानिक और आर्थिक स्तर पर विकास के उच्चतम सोपानों पर पहुंचने के बाद भी हमारी सोच आज भी पुरुषवादी मानसिकता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई है। सार्वजनिक मंचों और मीडिया में हम भले ही नारी सशक्तिकरण के बड़े-बड़े दावे क्यों न कर लें लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि घर के भीतर और बाहर स्त्री नाम के जीव को अपना अस्तित्व और अपनी पहचान बनाए रखने के लिए हर क्षण जूझना पड़ता है। शारीरिक और उससे बहुत ज्यादा मानसिक स्तर पर होने वाले इस संघर्ष की पीड़ा को कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है।कथाक्रम जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका से जुड़ी रचनाकार रजनी गुप्त का तीसरा उपन्यास “एक न एक दिन” हाल ही में किताबघर संस्थान से प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास के माध्यम से लेखिका ने नारी मन में घटित होने वाली उस टूटन-फूटन को बहुत शिद्दत से महसूस किया है जो अक्सर हमारे आस-पास होती रहती है, लेकिन पौरुषता के दंभ में हमें उसका रंचमात्र भी अहसास नहीं होता है। उपन्यास की दो प्रमुख स्त्री पात्र-कृति और अनन्या हैं, जो अलग-अलग परिस्थितियों के चलते अपने दाम्पत्य जीवन से विमुख हो जाती हैं। जहां कृति को उसके पति चौहान साहब ने तानाशाही प्रवृत्ति के चलते छोड़ दिया वहीं दूसरी तरफ अपने काम में मशगूल रहने वाले और पिता बनने में अक्षम राजीव अनन्या से अपना रिश्ता तोड़ लेता है। अपने पति से अलग होने के बाद भी दोनों स्त्री पात्र अपनी अलग पहचान बनाने में सफल भी हो जाती हैं। लेकिन बार-बार स्वयं में एक अपूर्णता का अहसास दिलाने वाले उनके जज्बात और पुरुष को प्राप्त करने की उनकी तड़प आश्चर्यचकित करती है। कृति की इस परावलंबी सोच से (कितनों के मुंह से चौहान साहब की लंपटता के किस्से सुनती रही फिर भी मन में एक ही ख्याल मंडराता रहा-काश कि वह एक बार, सिर्फ और सिर्फ एक बार फिर से उस पर पूर्ववत भरोसा कर पाते। देखिए चौहान साहब मैंने सबका साथ खारिज कर दिया, यही तो चाहते थे न आप?”) पाठकों के मन में प्रश्नों की ढेरों कांटेदार झाड़ियां उगने लगती हैं। जिस पुरुष ने स्त्री के वजूद को हमेशा अपने पैरों तले कुचलना चाहा उसी के प्रति यह मोह, यह आसक्ति आखिर क्यों है? जो तुम्हारे अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं कर रहा है उसके आगे गिड़गिड़ाना कहां तक उचित है? मगर पुस्तक में इन प्रश्नों के कोई सार्थक उत्तर नहीं हैं। संभवत: रचनाकार की ऐसी ही मन:स्थिति को समझते हुए चेखव ने लिखा है कि “लेखक का मुख्य कार्य सवाल को सही ढंग से समाज के सम्मुख रखना होता है, उसका समाधान तलाशना नहीं।” हालांकि आरंभ से लेकर अंत तक पूरी रचना में एक उम्मीद पाठक को जरूर बांधे रखती है कि एक न एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा। और यही वह चैतन्य तत्व है जो पाठक को पूरा उपन्यास पढ़ने के लिए प्रेरित करता है। इस उपन्यास के माध्यम से लेखिका ने स्त्री-विमर्श से जुड़े सदियों पुराने घावों को पहले पूरी सावधानी के साथ उधेड़ा और फिर वर्तमान परिवेश के अनुसार तर्कों और विचारों का मरहम लगाकार उसे फिर से पंख लगा दिए, इस उम्मीद के साथ कि सब कुछ ठीक हो जाएगा-एक न एक दिन। दपुस्तक : एक न एक दिन लेखिका : रजनी गुप्त प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन, 4855-56/24, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002 पृष्ठ : 340 – मूल्य : 425 रुपए19

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