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नर्मदा से पांवधोई तक-जल अनुष्ठानतरुण विजयजल को ईश्वर का रूप माना गया है। वही प्राण और उसका आधार है। इसलिए विश्व की महान सभ्यताएं जल के किनारे ही पुष्पित और पल्लवित हुर्इं। सिन्धु सभ्यता सिन्धु नदी के किनारे उद्भूत हुई तो विश्व का सर्वाधिक प्राचीन धार्मिक नगर वाराणसी वरुणा और असि नदियों के किनारे बसा है। वाराणसी की ये दोनों नदियां आज सूख चुकी हैं और नदी मार्ग में जहां पहले जल बहता था वहां आज आवासीय कालोनियां बन गई हैं। दिल्ली यमुना के किनारे है तो देश के अनेक महानगर और पुण्यशाली तीर्थ गंगा, क्षिप्रा, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी प्रभृति नदियों के किनारे हैं। लेकिन आज देश में लगभग सभी नदियों की स्थिति बिगड़ती जा रही है। इसका मुख्य कारण पृथ्वी के तापमान में वृद्धि के फलस्वरूप होने वाला मौसम परिवर्तन नहीं बल्कि प्रकृति का शोषण और आत्मकेन्द्रित विकास का पाप है, जो भारत की महानतम नदियों को कचरे और प्रदूषण का शिकार बना रहा है। कुछ वर्ष पूर्व डा. कर्ण सिंह जब संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण संरक्षण अधिवेशन में भाग लेने हेतु गए थे तो वे अपने साथ प्रकृति संरक्षण हेतु वेदों एवं उपनिषदों में वर्णीत सूक्त संग्रहीत करके ले गए थे। वही प्रकृति संरक्षण हेतु सर्वश्रेष्ठ नियम और उपाय माने गए। जैसे-जैसे हम अपनी विरासत और सांस्कृतिक परंपरा से हटते गए हैं उसी गति से प्रकृति का कल्याणकारी रूप भी मनुष्य की लिप्पसाओं और भोगवादी प्रवृत्ति से आहत होता गया है। पिछले दिनों खबर छपी थी कि सिन्धु नदी में भी जल कम होने लगा है। यह वही सिन्धु है जिसके बारे में वेदों में उल्लिखित है कि सागर भी सिन्धु के समान अपार जलराशि वाला है अर्थात् सिन्धु की तुलना सागर से नहीं की गई बल्कि सागर की तुलना सिन्धु से की गई।दिल्ली यमुना के किनारे बसी है, लेकिन कभी इस बात की संभावना नहीं दिखती कि कोई यमुना नदी के किनारे मनोरम भ्रमण के लिए जाने का विचार भी कर सके। पूरी नदी एक गंदे नाले के समान बना दी गई है। यह है कृष्ण के उपासकों की उपेक्षा और नदी के महात्म्य को न जानने का परिणाम। धीरे-धीरे नदी संरक्षण के प्रति जागृति बढ़ाने के अनेक उपाय किए जा रहे हैं। सिन्धु दर्शन उत्सव ने पिछले दस वर्षों से न केवल सिन्धु के विषय में देश में जागृति पैदा की है बल्कि लद्दाख की आर्थिक स्थिति सुधारने में भी बहुत बड़ा योगदान दिया है। वहां पूर्व राष्ट्रपति डा.अब्दुल कलाम के प्रयासों से बर्फानी रेगिस्तान के क्षेत्र भी हरे-भरे बनाए गए हैं।इसी प्रकार का अब एक प्रयास भोपाल के निकट नर्मदा संरक्षण हेतु अनिल दवे के नेतृत्व में किया जा रहा है और एक दूसरा अद्भुत प्रयास सहारनपुर की पांवधोई नदी को फिर से जीवित करने हेतु प्रारंभ हुआ है। ये दोनों ही प्रयास राष्ट्रीय समर्थन और जन सहयोग के पात्र हैं।नर्मदा का स्रोत मध्य प्रदेश में अमरकंटक के पास है। यहां विंध्याचल और सतपुड़ा पहाड़ियों के मध्य नर्मदा मैय्या प्रकट होकर गुजरात से होते हुए सिन्धु सागर (अरब सागर) में जा मिलती हैं। लगभग 1300 किमी0 की यात्रा और 2600 किमी0 की परिक्रमा श्रद्धालु जन आज भी करते हैं- पैदल या वाहनों से। अपने अनिल दवे तो नर्मदा मैय्या केदूसरी ओर सहारनपुर में पांवधोई नदी के पुनर्जीवन का अभियान चलाया जा रहा है। सहारनपुर और सुंदर नदी, इसका कभी कोई तालमेल बिठाने की कोई कोशिश भी नहीं करता था। शहर में चारों ओर गंदे नाले और गंदगी ही दिखती है। हालांकि स्वयं में यह एक बहुत बड़ा औद्योगिक नगर और शिक्षा नगर भी है। इस शहर पर कभी भगवान ने कृपा कर नदी का वरदान भी दिया होगा, ऐसा कोई सोचता नहीं। पर इस शहर के बीचोंबीच एक बहुत सुंदर नदी बहा करती थी, जिसका नाम था पांवधोई। लगभग तीन सौ वर्ष पुराना इसका इतिहास भी मिलता है। लेकिन धीरे-धीरे शहर के औद्योगिकीकरण, जनसंख्या में वृद्धि और स्थानीय नागरिकों की उपेक्षा के कारण यह नदी पहले गंदे नाले में परिणत हुई और अब प्राय: सूख ही गई है। पांवधोई बचाव अभियान के संयोजक सुशांत सिंहल हैं। पुराने स्वयंसेवक हैं। पहले बैंक में काम करते थे फिर वहां से छोड़कर लेखन और छायांकन के क्षेत्र में जुटे तो अचानक इस नदी के उद्धार का भी विचार मन में बिजली की तरह कौंधा, तो आश्चर्यजनक सहयोग और समर्थन मिलने लगा। सबकीनदी हमारे जीवन और मन का प्रतिबिम्ब है। जिस नर्मदा से शालिग्राम मिलते हैं और जिस यमुना में श्रीकृष्ण ने कालिय नाग का दमन किया था और उसके तट पर अपनी लीलाएं रची थीं, उस नर्मदा और यमुना के प्रदूषित होने का यदि दु:ख आपके मन में नहीं जन्मता तो इसका अर्थ है कि आपका भारतीय पन और हिन्दू पन-दोनों ही कुछ कम है।सुशांत सिंहल से उनके ईमेल sushant_singhal@rediffmail.com पर और अनिल दवे से उनके ईमेल narmadasamagra@rediffmail.comपर सम्पर्क किया जा सकता है। नर्मदा समग्र प्रकल्प का अन्त:क्षेत्र है- www.narmadasamagra.org6
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