1857 के स्वतंत्रता संग्राम में मुम्बई में भी धधकी थी क्रांति की ज्वाला
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1857 के स्वतंत्रता संग्राम में मुम्बई में भी धधकी थी क्रांति की ज्वाला

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Dec 8, 2007, 12:00 am IST
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दिंनाक: 08 Dec 2007 00:00:00

मंगल गाडिया और सैयद हुसैन को तोप से उड़ाया था अंग्रेजों ने-मुजफ्फर हुसैनक्याआज की मायानगरी मुम्बई में भी 1857 का स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया था? यदि लड़ा गया था तो इसका नेतृत्व किसने किया था? मां भारती पर न्योछावर हो जाने वाले उन लाड़लों से क्या आज की मुम्बई परिचित है? उनकी शहादत का रक्त इस नगर में किन स्थानों पर गिरा था?मुम्बई में रहने वाला शायद ही कोई ऐसा होगा जो एलफिंस्टन कालेज का नाम न जानता हो। यदि उसका एलफिंस्टन कालेज से सम्बंध न भी आया हो तब भी पश्चिम रेलवे से यात्रा करते समय एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन से तो वह अवश्य ही गुजरा होगा। एलफिंस्टन का नाम आते ही ऐसा लगता होगा कि इस व्यक्ति ने अवश्य ही मुम्बई की प्रगति और विकास में कोई बड़ा योगदान दिया होगा। लेकिन कोई भी भारतीय यदि इस व्यक्ति का इतिहास पढ़ ले तब उसे अवश्य यह महसूस होगा कि जिस मुम्बई की धरती से गुलामी के चिन्हों को चुन-चुनकर समाप्त कर दिया गया है, वहां एलफिंस्टन का नाम अब भी क्यों जीवित है?लार्ड माउंट स्टुअर्ट एलफिंस्टन 1822 में पुणे का रेजीडेंट था। पेशवा बाजीराव द्वितीय को युद्ध में परास्त करने वाला यही खलनायक था। पुणे में पेशवाई के अंत के पश्चात् एलफिंस्टन को मुम्बई प्रेसीडेंसी का गवर्नर बनाकर उसका स्थानांतरण मुम्बई कर दिया गया। मुम्बई में आधुनिक शिक्षा के प्रणेता के रूप में भले ही एलफिंस्टन का गौरवगान किया जाता हो लेकिन यह बात भुलाई नहीं जा सकती कि इसी व्यक्ति के नेतृत्व में अंग्रेजों ने मुम्बई में होने वाली 1857 की क्रांति को नाकाम करने में सफलता प्राप्त की थी।1853 ब्रिटेन के हाउस आफ कामन्स ने वह विधेयक पारित कर दिया जिसमें भारत को ईसाई देश बनाने का संकल्प व्यक्त किया गया था। तद्नुसार भारत में लगभग 1300 मिशनरी आकर ईसाई पंथ के प्रचार-प्रसार में लग गए थे। इस समय हर ब्रिटिश सैनिक अधिकारी को निर्देश दिए गए थे कि वह अपनी सैनिक ड्यूटी के अतिरिक्त ईसाइयत के प्रचार में भी अधिकतम योगदान दे। एलफिंस्टन जैसे लोगों के लिए तो यह मनचाहा काम था। नाना साहब पेशवा ने अपने मंत्री अजीमुल्ला खान और रंगो बापू जी गुप्ते को पहले ही लंदन रवाना करके इस बात का पता लगाने की कोशिश की थी कि भारत में कम्पनी की हरकतों पर ब्रिटिश सरकार की नजर है या नहीं। कम्पनी और ब्रिटिश सरकार दोनों ही मिलकर इस मतान्तरण को प्रोत्साहित कर रहे थे, उसके प्रत्याघात सारे देश में दिख रहे थे। लेकिन इसके विरुद्ध क्रांति किस तरह से प्रारम्भ हो, यह सबके सामने बड़ा सवाल था।मुम्बई में 1856 के जून माह में इसी प्रकार के मतान्तरण के कुछ मामले हुए। हिन्दू, मुस्लिम और पारसी युवकों को जोर-जबरदस्ती से ईसाई बना लिया गया। मुम्बईवासी बेचैन हो गए। सबने मिलकर इसके विरुद्ध हस्ताक्षर अभियान चलाया। हिन्दू, मुस्लिम एवं पारसी समुदाय के कुछ प्रभावशाली लोग अपनी फरियाद लेकर मुम्बई की जानी-मानी हस्ती नाना जगन्नाथ शंकर सेठ के पास पहुंचे। नाना भला कैसे चुप बैठ सकते थे। उन्होंने हजारों लोगों के हस्ताक्षर का यह आवेदन 15 अप्रैल, 1857 को मुम्बई के गर्वनर एलफिंस्टन को सौंपा।10 मई को जब मेरठ में भारतीय सैनिकों ने क्रांति का सूत्रपात किया था उस समय एलफिंस्टन का माथा ठनका। उसे शंका हुई कि इन क्रांतिकारियों के साथ नाना जगन्नाथ शंकर सेठ की मिलीभगत है। एलफिंस्टन ने आने वाले दिनों को भांप लिया। उसने तुरंत मुम्बई में 400 सैनिकों की टुकड़ी बुला ली और मुम्बई के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर चाल्र्स फोरजेट को आदेश दिए कि वह नाना की गतिविधियों पर नजर रखे। ग्वालिया टैंक पर आज भी “फोरजेट स्ट्रीट” उस क्रूर अधिकारी की याद दिलाता है।नाना साहब पेशवा ने तय किया था कि 31 मई, रविवार को क्रांति का सूत्रपात करेंगे। लेकिन उससे पहले उन्होंने साधु-संतों, ज्योतिषियों और कीर्तनकारों के रूप में अपने लोगों को सारे देश में क्रांति का संदेश देने के लिए तैनात कर दिया था। नाना साहब पेशवा की इस अनूठी फौज के कुछ लोग मुम्बई भी आए और प्रभावशाली एवं राष्ट्रवादी भारतीयों में 31 मई को क्रांति करने की योजना का संदेश दिया। नाना शंकर सेठ को इसकी पूर्र्ण जानकारी थी। जो भी साधु-संत बाहर से आते थे, नाना ने उन्हें अपनी ताड़देव स्थित धर्मशाला में स्थान देने का प्रबंध किया था। ठीक इसी प्रकार नाखुदा मोहम्मद रोगे नामक राष्ट्रवादी मुसलमान ने अपने स्वामित्व के मकान में इन क्रांतिवीरों को ठहराने की व्यवस्था की थी। लेकिन मां भारती को लज्जित करने वाले देशद्रोहियों की कमी नहीं थी। किसी ने यह संदेश एलफिंस्टन को दे दिया। पुलिस ने रात के समय दोनों स्थानों पर छापा मारा और वहां ठहरे क्रांतिकारियों को पकड़ लिया। सघन रूप से उनकी जांच-पड़ताल हुई। नतीजा यह निकला कि दो को फांसी और छह को आजन्म कारावास की सजा सुना दी गई। फांसी के फंदे पर चढ़ाए जाने वाले दो क्रांतिवीर थे मंगल गाडिया और सैयद हुसैन। 8 अप्रैल, 1857 को बैरकपुर में मंगल पांडे ने फांसी के फंदे को चूमा और मुंबादेवी की धरती पर मंगल गाडिया और सैयद हुसैन ने 15 अक्तूबर को प्रथम शहीद होने का गौरव प्राप्त किया।मुम्बई के गवर्नर एलफिंस्टन ने तय किया कि यह फांसी सार्वजनिक रूप से दी जानी चाहिए ताकि अन्य क्रांतिकारी, उनके मतानुसार, ऐसा दु:स्साहस कभी न कर सकें। मृत्युदंड का जो स्थान चुना गया वह था एस्तालेनेड कैम्प, जो आज आजाद मैदान है। तारीख थी 15 अक्तूबर। और समय था संध्या के साढ़े चार बजे। यह तय किया गया कि दोनों को तोप के मुंह से बांधकर उड़ाया जाएगा। ब्रिटिश नेवी के जवान कूच करते हुए अपने हाथों में बंदूकें थामे आजाद मैदान में आ गए। उनके पीछे खड़ी की गई 10वीं और 11वीं रेजीमेंट की सशस्त्र टुकड़ी। तोपखाने को आगे कर दिया गया।अंग्रेजों की भीड़ उमड़ पड़ी। भारतीय भी वहां बड़ी संख्या में उपस्थित थे, जो देखने आए थे उन दो युवाओं का हौंसला। साथ ही ईस्ट इंडिया कम्पनी की मनमानी और क्रूरता। तोपखाने के पास कैप्टन माइल्स नामक एक सरकारी अधिकारी खड़ा था। कुछ ही क्षणों में उसकी आवाज गूंजी… उसने कागज पर लिखा एक आदेश पढ़ा… “सरकार से बगावत करने वाले दो हिंदियों को तोप के मुंह पर बांधकर उन्हें उड़ा देने का आदेश दिया जाता है।” माइल्स ने अपना हैट उतार लिया और उंगली का इशारा करते ही दो तोपें गरज उठीं। मंगल गाडिया और सैयद हुसैन के चिथड़े बिखर कर दूर जा गिरे….।18

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