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विश्व हिन्दी-सम्मेलन की फलश्रुतिशिवओम अम्बरअभिव्यक्ति-मुद्राएंकिनसे मिलें, लोग बस्ती केसब ही अंगारे दहकाये,हाथ-पांव लकड़ी के जिनकेवे ही बैठे आग जलाए।कहां रास्ता ढूंढें कोई,आगे-पीछे भूल-भुलैयापंख बचाकर उड़ो चिरैया।-कृष्ण बक्षीसोतीं नहीं शहर की रातें, लेती नहीं विराम।कब होती है सुबह सुनहली कब होती है शाम।।जाने कब दे जाए कोई अनजाने आघात।बाहर नहीं निकलना बेटा घर से रात-बिरात।।-डा. मधुसूदन साहाहिन्दीभाषी चाहें तो एक मिथ्या गर्व की अनुभूति से पुलकित हो सकते हैं कि आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन समारोहपूर्वक संसार के सबसे समृद्ध देश अमरीका में सम्पन्न हो गया। हिन्दी को विश्व-भाषा बनाने के दिवास्वप्न देखने पर भी कोई प्रतिबन्ध नहीं है और कुछ राजभक्त लोग प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह द्वारा भेजे गए औपचारिक सन्देश पर भी विमुग्ध हो सकते हैं, किन्तु जो पिछले अनुभवों के प्रकाश में आज की सच्चाई का साक्षात्कार कर सकते हैं, वे महसूस करते हैं कि एक और औपचारिक कर्मकाण्ड सम्पन्न हुआ है जिसकी परिवेशगत सुगन्ध कुछ दिनों बाद विलुप्त हो जाएगी। हिन्दी को विश्व में स्वीकृति मिली अवश्य है किन्तु उसके पीछे परिवर्तनशील विश्व की बाजार से जुड़ी जरूरते हैं, हॉलीवुड के समानान्तर अपनी सुरीली पहचान अलग से बना रहा हिन्दी सिनेमा है, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर देखे जा रहे विविध चैनलों के लोकप्रिय कार्यक्रम हैं- हिन्दी के प्रसार-प्रचार में आधे-अधूरे मन से किए गए राजकीय प्रयासों का योगदान नगण्य है। सत्ता के जो शिखर दैनन्दिन व्यवहार से लेकर औपचारिक अभिभाषणों तक में अंग्रेजी के मुरीद हैं उनका प्रदर्शनात्मक हिन्दी-प्रेम हाथी के दिखाऊ दांतों की याद दिला देता है।राष्ट्रसंघ में प्रथम बार हिन्दी में भाषण देने के उपरान्त हमारे “कैदी कविराय” (अटल बिहारी वाजपेयी) ने सहज ऊर्जावन्त कुछ पंक्तियां लिखी थीं-गूंजी हिन्दी विश्व में स्वप्न हुआ साकार,राष्ट्रसंघ के मंच से हिन्दी का जैकार।हिन्दी का जैकार हिन्द हिन्दी में बोला,देख स्वभाषा-प्रेम विश्व अचरज में डोला।कह कैदी कविराय मेम की माया टूटी,भारतमाता धन्य स्नेह की सरिता फूटी।।किन्तु तब से लेकर आज तक हिन्दी के सन्दर्भ में समय का रथचक्र उसी बिन्दु पर ठहरा हुआ है। जो देश अपनी घोषित राजभाषा को वास्तविक राजभाषा का स्थान नहीं दिला सका, (स्वाधीनता के छह दशक पूरे होने के बाद भी!), जिसके नायकों ने संविधान के अनुच्छेद में छेद करके अंग्रेजी के प्रभुत्व को असीमित काल तक बनाए रखने का मार्ग निकाल लिया है, जिसकी नई पीढ़ी कान्वेट से दीक्षित होकर आ रही है और दो का पहाड़ा तथा हिन्दी की गिनती न जानने पर गर्व का अनुभव करती है, उसके हिन्दी विषयक अर्थहीन कर्मकाण्डों तथा पाखण्ड भरे उद्बोधनों को सुनकर चित्त में अमर्ष जागता है! अभी कुछ दिन पूर्व कोलकाता में भारतीय भाषा परिषद् की एक विचार-गोष्ठी हुई। विषय था-अंग्रेजी का वर्चस्व तथा भारत एवं दक्षिण एशिया की भाषाओं का संकट। हिन्दी की विडम्बना देखिए कि उद्घाटनकर्ता, साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष यू.आर. अनन्तमूर्ति ने अपने वक्तव्य में अपना अभिमत व्यक्त किया कि भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी से नहीं वस्तुत: हिन्दी से खतरा है। महामनीषियों की इस प्रगतिशील बौद्धिकता के सन्दर्भ में क्या कहा जाए?राजनीति के क्षेत्र में कभी राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन जैसे व्यक्तित्व भी थे जिनकी हिन्दी-भक्ति ने स्वयं महात्मा गांधी के हिन्दी के सम्मान के प्रतिकूल प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया! अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के राजभवन में आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री की उपस्थिति हिन्दी की आराधना का दृष्टान्त तथा हिन्दी हेतु साधना की प्रेरणा हुआ करती थी। अंग्रेजी के वर्चस्व से आक्रान्त आज के परिवेश में हिन्दी के प्रति श्रद्धावन्त समर्पण तथा उसकी सेवा के सामथ्र्यवन्त संकल्प को जगाने वाली कैदी कविराय की ये पंक्तियां पुन: पुन: मननीय हैं-बनने चली विश्वभाषा जो अपने घर में दासी,सिंहासन पर अंग्रेजी को लखकर दुनिया हांसी।लखकर दुनिया हांसी हिन्दी वाले हैं चपरासी,अफसर सारे अंग्रेजीमय अवधी हों मद्रासी।कह कैदी कविराय विश्व की चिन्ता छोड़ो,पहले घर में अंग्रेजी के गढ़ को तोड़ो।क्या सचमुच हमारे घर में बना हुआ अंग्रेजी का ये गढ़ कभी टूटेगा?अभिनन्दनीय अमिताभइसी स्तम्भ में कभी मैंने सिने जगत् के महानायक अमिताभ के सन्दर्भ में कठोर आलोचनात्मक टिप्पणी की है, अपने व्यक्तित्व के प्रभामण्डल के दुरुप्रयोग के लिए उनकी भत्र्सना की है। किन्तु आज उनके प्रति चित्त भाव गद्गद् है, उनके अभिनन्दनीय आचरण को रेखांकित करना चाहता हूं। पिछले दिनों किसी समाचार चैनल पर कोलकाता की एक प्यारी सी बच्ची की बीमारी का समाचार प्रसारित हुआ जिसके इलाज के लिए अपेक्षित ढाई लाख रुपए की राशि का प्रबंध करने में उनके गरीब मां-बाप असमर्थ थे। अमिताभ बच्चन ने भी उस समाचार को देखा और एक बेहद मोहक मुसकान की मालकिन उस बच्ची के जीवन को बचाने हेतु व्याकुल हो उठे। तत्परतापूर्वक उन्होंने चैनल से स्वयं सम्बंध स्थापित किया, फिर बच्ची के मां-बाप से फोन पर वार्ता कर उन्हें सान्त्वना दी तथा तुरन्त ढाई लाख रुपए का ड्राफ्ट उनके पते पर भिजवा दिया। अमिताभ बच्चन का यह आचरण उनके महानायकीय व्यक्तित्व के अनुरूप है। अभिनन्दनीय और अनुकरणीय। आज उन्होंने निदा फाजली के इस शेर के भाव को आत्मसात् किया और श्वास-स्वास में जिया-घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें,किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।26
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