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नूतन राष्ट्राध्यक्षाश्रीमती प्रतिभा पाटिलपद और संस्था की गरिमा का सम्मान हो-तरुण विजयश्रीमती प्रतिभा पाटिल देश की 13वीं राष्ट्राध्यक्षा चुनी गई हैं। उनके चुने जाने से पहले अनेक आरोप लगे और विवादों ने अनेक प्रश्न खड़े किए। वे निरुत्तर नहीं रहेंगे। यह विश्वास करते हुए वर्तमान परिस्थिति में देश की नई राष्ट्राध्यक्षा के रूप में उनकी स्थिति को मान्य कर पद की गरिमा को बनाए रखना ही सर्वथा उचित है। अब वे पूरे देश के सम्मान, प्रतिष्ठा, आशाओं और विश्वास की प्रतीक हैं। हम उन्हें अपने देश की सम्माननीय राष्ट्राध्यक्षा के नाते हार्दिक शुभकामनाएं देते हैं और आशा करते हैं कि उनका कार्यकाल राष्ट्रहित में श्रेष्ठ, सिद्धांतनिष्ठ एवं दबाव रहित निपुणता के नाते जाना जाएगा। वे सफल हों, इसमें राष्ट्र की सफलता है। वे असफल हुईं तो पूरे देश का सिर नीचा होगा। हमें विश्वास है कि उन्हें अब अपनी नई जिम्मेदारी का गंभीरता से अहसास है और वे इन तमाम बातों को पीछे छोड़ते हुए एक नूतन पथ सृजित करेंगी जो अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति से कम महिमावान नहीं होगा।राष्ट्रपति का चुनाव पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता है जो भाषा, जाति, पंथ एवं राजनीतिक झुकावों और विचारधाराओं से ऊपर होना चाहिए। विडम्बना यह रही कि इस बार कांग्रेस ने किसी भी राजनीतिक दल से परामर्श किए बिना अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया और उसके बाद राजग तथा अन्य विपक्षी दलों से तनिक दंभ का परिचय देते हुए कहा कि अब वे सब कांग्रेस उम्मीदवार का समर्थन करें। यह राजनीतिक परिपक्वता नहीं थी। देश के लिए सबसे अच्छी बात यह होती है कि जब सभी राजनीतिक दल आपस में विचार विमर्श करते हुए किसी एक उम्मीदवार को सर्वानुमति से समर्थन देते तब वह दृश्य भी उपस्थित नहीं होता जो राष्ट्रपति चुनावों में हमने पिछले दिनों देखा।इस परिदृश्य में तीसरे मोर्चे की विद्रूप भूमिका निंदनीय और अलोकतांत्रिक ही कही जा सकती है। इस अजीब मोर्चे के जिन घटकों ने इस राष्ट्रपति चुनाव में मत न देने का निर्णय लिया उन्होंने न केवल अपने मतदाताओं के साथ धोखा किया बल्कि संविधान की भावना का भी उल्लंघन किया। यह तीसरा मोर्चा केवल सत्ता की चाहत की गोंद से जुड़ी एक ऐसी भीड़ है जिसकी आंखों में न देश है, न सिद्धांत और न ही लोकहित। इसलिए इस मोर्चे की राष्ट्रपति चुनाव के समय दिखी अलोकतांत्रिक भूमिका इसे भारतीय विचारवान मतदाताओं की दृष्टि में त्याज्य और अस्वीकार्य बनाती है।उप राष्ट्रपति चुनाव इस दृष्टि से काफी मर्यादित, स्तरीय और सहज कहा जा सकता है। डा0 हामिद अंसारी की विनम्र विद्वता भी विवाद से परे है। लेकिन एक सहज सवाल उठना स्वाभाविक है कि जितनी सरलता और आसानी से बिना किसी एक भी अपवाद के सभी राजनीतिक दलों ने “केवल मुस्लिम उम्मीदवार चाहिए” का मंत्र जपा, क्या वह भारतीय लोकतंत्र और वास्तविक सेकुलरवाद की भावना के अनुरुप कहा जा सकता है? यह मानना संभव नहीं है कि किसी दैवी कृपा या अलौकिक प्रेरणा के कारण सभी दलों के उम्मीदवारों का मुसलमान होना संयोगवश घटित हुआ। सच यह है कि इस देश में आग्रही हिन्दू होना राजनीतिक दृष्टि से घाटे की बात बना दी गई है। यदि आप अहिन्दू हैं तो आप इस देश के बहुसंख्यक समाज के सामने तनिक इक्कीस ही नहीं बल्कि बाईस, तेईस और पचास भी बना दिए जाते हैं। अभी तक कोई राजनीतिक दल इस बात का साहस नहीं कर सकता कि वह यह कहे कि हमें श्रेष्ठ भारतीय को अपना उम्मीदवार बनाना है या चाहे कुछ भी हो जाए फलां पद के लिए हम केवल हिन्दू को ही अपना उम्मीदवार बनाएंगे। अपने आसपास नजर घुमाएं और देखें कि क्या कोई राजनीतिक दल यह कह पाएगा कि राष्ट्रपति या उप राष्ट्रपति पद पर इस बार हिन्दू उम्मीदवार ही होना चाहिए था? यह स्थिति क्यों है? इसका जबाव हिन्दू मतदाताओं को अपने भीतर झांक कर ढूंढना होगा। मुझसे व्यक्तिगत तौर पर पूछा जाए तो उम्मीदवार मुसलमान है या हिन्दू इससे बड़ी बात यह है कि वह भारत के हित में कितना समर्पित और मेधावी है। यही चयन की मूल कसौटी होनी चाहिए। यही कारण रहा कि पिछली बार प्रो0 अब्दुल कलाम को रा0स्व0संघ का भी नैतिक समर्थन मिला था।8
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