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संस्कृति-सत्य

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Apr 2, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Apr 2007 00:00:00

वीरेन्द्र नाथ दत्त के बलिदान दिवस (21 फरवरी) पर विशेषजिसने फांसी की सजा पाकर गर्व अनुभव कियावचनेश त्रिपाठी “साहित्येन्दु”20 जून , 1889 को क्रान्तिकारी वीरेन्द्र नाथ दत्त गुप्त साही गंज, बाली गांव हाट (बंगाल) में जन्मे थे। उनके पिता श्री उमाचरण दत्त गुप्त तब ही स्वर्ग सिधार गए थे जब वीरेन्द्र की आयु 9 वर्ष थी। उनकी माता थीं श्रीमती वसंत कुमारी। बाल्यावस्था में वीरेन्द्र ने बाली गांव हाट, साही गंज (रंगपुर) और कोलकाता आदि स्थानों में रहकर शिक्षा प्राप्त की। दुर्भाग्य से बीमार हो जाने के कारण वे दसवीं की कक्षा उत्तीर्ण न कर सके। उन दिनों विप्लवी दल “सुह्मद समिति” के कार्यकर्ता सतीश चन्द्र सेन राधानाथ हाईस्कूल में पढ़ाते थे। उन्होंने बालक वीरेन्द्र को विप्लवी दल में भर्ती कर प्रशिक्षण देना आरम्भ कर दिया। वे उसी गांव के एक उपयुक्त स्थान पर तरुणों को व्यायाम, खेल कूद के साथ-साथ लाठी व छुरेबाजी का प्रशिक्षण देते थे। इन गतिविधियों से वहां के मुस्लिम ईष्र्या करते थे। एक दिन उन्होंने विरोधस्वरूप उपद्रव शुरू कर दिया। स्थिति बिगड़ती देख वीरेन्द्र के साथी छात्रों ने उन्हें समझा-बुझाकर वापस भेज दिया, लेकिन मुसलमान शान्त न हुए। उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम युवक इकट्ठे होकर हमला करने पर उतारू हो गए। तब वीरेन्द्र ने उन दंगाइयों को ललकारते हुए कहा, “आओ, जिसने अपनी मां का दूध पिया हो, आगे आकर मुझ पर वार करे।” इस पर मुस्लिमों ने कहा, “हम तो यहां आपसी मसले पर सलाह-मशविरा करने आए थे।” उस दिन दंगा नहीं हुआ और गांव में वीरेन्द्र की धाक जम गई। मुसलमानों की ओर से ऐसी घटनाएं चांदपुर, हमालपुर आदि शाखाओं पर भी हुईं। ये शाखाएं “आत्मोन्नति समिति” की थीं। वहां गोली चलानी पड़ी। जिसके बाद इन्द्रनाथ नन्दी और विपिन गांगुली पिस्तौल सहित गिरफ्तार हो गए। श्री अरविन्द घोष ने मुस्लिमों द्वारा दंगा करने का आभास होने पर इन्हें अन्य साथियों के साथ जमालपुर भेजा था। इससे स्पष्ट है कि परतंत्रता के समय में भी कट्टरपंथी मुसलमान क्रान्तिकारी गतिविधियों में बाधाएं पैदा करते थे। उस समय बंगाल से हिन्दू पेट्रियट, हिन्दू इंटेलीजेन्सिया नामक समाचार पत्र प्रकाशित होते थे। हिन्दू मेल नामक संस्था स्वतंत्रता के साथ-साथ हिन्दुत्व रक्षा, धर्म रक्षार्थ हिन्दू एकता की प्रेरणा देती थी।उन्हीं दिनों अलीपुर बम काण्ड की जांच में लगे पुलिस उपाधीक्षक शम्सुल आलम, पुलिस उप-अधीक्षक ने अपने नाम के साथ मौलवी शब्द जोड़ा और क्रांतिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही का बीड़ा उठाया। हावड़ा षडंत्र केस में भी अंग्रेजों ने इस मौलवी को क्रान्तिकारियों को फांसी दिलाने की पेशकश करने में लगाया था। अलीपुर बम काण्ड में भी इसी ने 40 हिन्दू युवकों को मुकदमें में फंसाकर 206 झूठे गवाह बनाए थे। प्रसिद्ध क्रांतिकारी बाघा जतीन को भी इसी मौलवी ने हावड़ा-बम काण्ड में फंसाने की साजिश रची। ऐसी स्थिति देखकर विवेकानन्द समिति नामक विप्लवी दल ने इस मौलवी को मौत के घाट उतारने का निश्चय किया। इसका दायित्व सतीश सरकार, यतीश मजूमदार और वीरेन्द्र नाथ दत्त को दिया गया। सुरेश मजूमदार ने वीरेन्द्र दत्त को रिवाल्वर दिया और वे उच्च न्यायालय पहुंचे। यह 24 जनवरी, 1910 की घटना है, जिस दिन अलीपुर बम काण्ड के मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई। अलीपुर बम काण्ड और हावड़ा बम काण्ड में शम्सुल आलम बड़ी तत्परता से पैरवी करता था ताकि क्रांतिकारियों को सजा हो। उस दिन किसी काम से वह जैसे ही अदालत से बाहर आया, वैसे ही वीरेन्द्र ने गोली दाग दी। सतीश भी इस समय वहां मौजूद थे लेकिन बचकर निकल गए। लेकिन वीरेन्द्र कुछ सोचकर गिरफ्तार हो गए। अंत में बाघा जतीन, ललित चटर्जी, सुरेश मजूमदार और निवारण मजूमदार भी गिरफ्तार हो गए। लेकिन शम्सुल आलम के मारे जाने से 44 क्रांतिकारी युवक बच गए। पुलिस मात्र 6 युवकों पर ही आरोप सिद्ध कर सकी। इसका श्रेय वीरेन्द्र नाथ दत्त को ही जाता है। वीरेन्द्र से दल का भेद जानने में जब अंग्रेज पुलिस कमिश्नर चाल्र्स टैगर्ट असफल रहा तो उसने छल से युगान्तर की नकली प्रति छपवाकर यतीन्द्र नाथ मुखर्जी के नाम से यह प्रकाशित करा दिया, “वीरेन्द्र कमजोर और कायर निकला क्योंकि उसने अपने साथियों को पकड़वाने के लिए स्वयं को पुलिस के हवाले कर दिया।” वीरेन्द्र ने जब यह पूछा गया तो वह क्रुद्ध हो गए और कहा, “बिल्कुल झूठ है। मैंने तो यतीन्द्र के ही कहने से शम्सुल को गोली मारी है, न कि अपने मन से।” फिर भी अदालत यतीन्द्र को फांसी की सजा देने में असफल रही। न्यायाधीश लारेन्स जेकिन्स ने वीरेन्द्र को फांसी की सजा सुनाई और 21 फरवरी, 1910 को वह वंदे मातरम् का जयघोष करते हुए फांसी पर झूलकर अमर हो गया। फांसी लगने से एक दिन पूर्व ही उसने अपने बड़े भाई धीरेन्द्र नाथ से जेल में कहा था, “दादा! कल मैं फांसी पर चढूंगा, यह गर्व और आनन्द की बात है, शोक करने की कदापि नहीं।” लेकिन खेद है कि ऐसे अनेक क्रान्तिवीरों का नाम इतिहास में लुप्त प्राय: है।18

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